मध्यस्थता प्रक्रिया का मखौल उचित नहीं

मध्यस्थता प्रक्रिया का मखौल उचित नहीं

बिजनेस स्टैंडर्ड (श्यामल मजूमदार) —उस घटना को करीब दो महीने बीत चुके हैं जब एक अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता पंचाट ने निर्णय दिया था कि भारत द्वारा वोडाफोन पर कर जवाबदेही लागू करना भारत और नीदरलैंड के बीच हुई निवेश संधि का उल्लंघन है। कंपनी ने मध्यस्थता पंचाट के समक्ष इस बात को चुनौती दी थी कि भारत सरकार ने सन 2012 के कानून के जरिये अतीत से कर लगाया था। इसमें वह सौदा भी शामिल था जिसके तहत 2007 में वोडाफोन ने 11 अरब डॉलर की राशि खर्च कर हचीसन व्हाम्पोआ के मोबाइल कारोबार में 67 फीसदी हिस्सा खरीदा था।

सरकार की प्रतिक्रिया वही थी जिसका अनुमान लगाया जा सकता था: हाल ही में सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय से यह सोचने का समय मांगा कि वह इस फैसले को चुनौती देगी या नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि अभी इस मसले पर कैबिनेट की अधिकार प्राप्त समिति की बैठक होनी शेष है। ऐसा लगता नहीं कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के वित्त मंत्री के रूप में दिवंगत अरुण जेटली द्वारा दिए गए आश्वासनों के बावजूद कुछ बदला है।

उन्होंने कहा था कि सरकार उन मामलों में मध्यस्थता पंचाट के फैसलों का आदर करेगी जहां कंपनियों ने पिछली तारीख से लागू कर के मामलों में ऐसी मांग को चुनौती दी हो। सरकार की ओर से स्वाभाविक प्रक्रिया यह होनी चाहिए थी कि वह मध्यस्थता पंचाट के आदेश को स्वीकार कर लेती। खासकर ऐसे समय में जब पंचाट में भारत के नामित रोड्रिगो ओरेआमुनो ने भी भारत के दावे को खारिज कर दिया था। यह मामला वोडाफोन की 2007 की हच एस्सार लिमिटेड की खरीद से जुड़ा है क्या विवाद निस्तारण के लिए 13 वर्ष की अवधि पर्याप्त नहीं थी?

सरकार इस मामले में अपने कदम वापस खींच ही रही है, अदालतें भी ज्यादा पीछे नहीं हैं। इसका संबंध 2005 के एक और विवाद से है। इस महीने के आरंभ में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अमेरिकी अदालत के आदेश पर भी स्थगन दे दिया। अमेरिकी अदालत ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान की वाणिज्यिक शाखा एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन को कहा था कि वह बेंगलूरु के स्टार्ट अप देवास मल्टीमीडिया को एक उपग्रह का सौदा रद्द करने के एवज में 1.2 अरब डॉलर की राशि चुकाए।

एंट्रिक्स ने पहले मध्यस्थता में जाने से इनकार किया था और सर्वोच्च न्यायालय से इस संबंध में एक निषेधाज्ञा आदेश भी हासिल कर लिया था। परंतु एक वर्ष बाद सर्वोच्च न्यायालय ने वह निषेधाज्ञा समाप्त कर दी थी और मध्यस्थता की प्रक्रिया आगे बढ़ी। देवास ने कहा कि तीन अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय पंचाट और नौ अलग-अलग मध्यस्थों ने कहा कि समझौते को खत्म करना गलत था। एक पंचाट ने तो कहा कि यह गतिविधि एक तरह से चौंकाने या चकित करने वाली है। दूसरे ने इसे भारत द्वारा सदिच्छा का स्पष्ट उल्लंघन बताया।

बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के इसे स्थगित रखने के निर्णय ने देवास की मुसीबतों में इजाफा किया लेकिन इसमें चकित होने वाली कोई बात नहीं है। देश की न्याय व्यवस्था नियमित रूप से मध्यस्थता के निर्णयों में हस्तक्षेप करती रही है और नीतिगत मामलों में अपवाद का दावा किया जाता रहा है। यह उस सिद्धांत की अवहेलना है जिसके मुताबिक न्यायालय को केवल दुर्लभ मामलों में ही हस्तक्षेप करना चाहिए।

परंतु भारत के न्यायालयों में ऐसा नहीं हुआ और ऐसे में जब भी किसी अंतरराष्ट्रीय पंचाट में फैसला खिलाफ जाता है, कंपनियां तुरंत न्यायालय का रुख करती हैं। इसका ताजा उदाहरण है फ्यूचर समूह। जैसे ही सिंगापुर मध्यस्थता पंचाट ने अंतरिम आदेश में कहा कि समूह अपने खुदरा और थोक कारोबार को रिलायंस रिटेल को अभी न बेचे, समूह ने तुरंत दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा दिया। एमेजॉन ने यह आरोप लगाते हुए पंचाट का रुख किया था कि रिलायंस और फ्यूचर समूह के बीच 27,000 करोड़ रुपये का के सौदे में संविदात्मक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।

आश्चर्य नहीं कि भारत अनुबंध प्रवर्तन के मामले में 190 देशों में 163वें स्थान पर है। भारत में वाणिज्यिक विवाद के निस्तारण में औसतन चार वर्ष का समय लगता है। जबकि सिंगापुर में यह अवधि 164 दिन है और वह शीर्ष पर है। जबकि भारत अनुबंध प्रवर्तन में पांच सबसे फिसड्डी देशों में से एक है। सन 2018 में वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के जरिये वाणिज्यिक विवादों की तीव्र सुनवाई की शुरुआत की गई थी। हालांकि इसका क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हो सका क्योंकि वाणिज्यिक अदालतों द्वारा दिए गए निर्णयों का क्रियान्वयन विभिन्न न्यायिक प्रक्रियाओं में उलझता रहा।

भारतीय जनता पार्टी ने सन 2014 के चुनावों में कर आतंकवाद खत्म करने का वादा किया था और नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई थी। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में भी कांग्रेसनीत संप्रग सरकार पर आरोप लगाया था कि वह कर आतंक और अनिश्चितता का माहौल बना रही है। पार्टी का कहना था कि इससे न केवल कारोबारी वर्ग चिंतित है बल्कि निवेश के माहौल पर भी नकारात्मक असर हो रहा है। इन बातों ने ब्रिटेन की केयर्न एनर्जी पीएलसी जैसी कंपनियों में आशा जगाई थी।

यह कंपनी पूंजीगत लाभ पर कर लगाए जाने को लेकर सरकार के साथ उलझी हुई थी। परंतु ये सारी आशाएं हवा हो गईं। भाजपा सरकार के सत्ता में आने के दो वर्ष बाद फरवरी 2016 में केयर्न से 1.4 अरब डॉलर का कर मांग लिया गया था। इसमें ब्याज और जुर्माना दोनों शामिल थे। इस मामले में मध्यस्थता पंचाट का निर्णय जल्दी ही आने वाला है लेकिन वोडाफोन के अनुभव बताते हैं कि भले ही पंचाट का निर्णय केयर्न के पक्ष में आए लेकिन उसे न्याय पाने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ सकता है।

मंत्रियों का अधिकार प्राप्त समूह जो इस मामले पर अंतिम निर्णय लेगा वह अगर यह बात याद रखे तो बेहतर होगा कि वोडाफोन मामले में देरी का विदेशी निवेशकों पर बुरा असर पड़ रहा है। इससे निवेश के केंद्र के रूप में देश की प्रतिष्ठा को भी काफी नुकसान पहुंच रहा है।

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