- September 27, 2019
चाँद को भी मैंने पागल किया है——-विष्णु उपाध्याय”विशु”
चाँदनी रात में प्रश्न इक हल किया है
चाँद को भी मैंने पागल किया है
गणित की तरह ही कठिन जिंदगी थी
हिंदी के जैसे सरल कर दिया है
मनाते रहे हम जो तुम रूठ गये थे
गुणनखण्ड की तरह तब हम टूट गये थे
पाना चाहा तुम्हें हर प्रकार से
सरल भी न थे तुम अंलकार से
तुम्हें पाने की खातिर जीवन दल-दल किया है
चाँद को भी मैंने पागल किया है
गणित का दशमलव समझ में ना आया
तो माथे की बिंदी को दशमलव था समझा
उत्तरमाला में जब जबाब ही गलत था
तो तुमको ही मैंने उत्तर तब था समझा
रास्ते के मोड़ पर जब तुम मिली थी
देखकर एक पल को मैं यूं रूक गया था
तुम्हारी शान में कोई कमी भी न आये
न्यूनकोण की तरह तब मैं झुक गया था
अश्रुओ को भी पावन गंगाजल किया है
चाँद को भी मैंने पागल किया है
महत्तम की तरह हम छोटे रहे
प्यार को हम अकेले ही ढोते रहे
जख्म तुमने हमको जितने दिये थे
सफल होते गये जख्म धोते रहे
सबने मुझे जब शून्य समझा था
कीमत किसी ने ना पहचान पायी
अंक के पीछे जब लगते गये
कीमत बढी पर तू मान ना पायी
सरल रेखा को भी आंख का काजल किया है
चाँद को भी मैंने पागल किया है
चाँदनी रात में प्रश्न इक हल किया है…..
विष्णु उपाध्याय”विशु”
फिरोजाबाद
8923729922