- April 21, 2016
अतीत की चुप्पी है सारी बीमारी की जड़ – डॉ.दीपक आचार्य
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कोई भी बीमारी यकायक बड़ा, गंभीर और घातक स्वरूप धारण नहीं कर लिया करती है। इसका आरंभिक संक्रमण होने के काफी अर्से बाद धीमे-धीमे रूप में इसका आकार और प्रभाव बढ़ता रहता हैै।
बहुत बाद में जाकर जब गंभीर और असहनीय लक्षण सामने आते हैं तब जाकर हैरानी छा जाती है और रहस्य प्रकट हो ही जाता है। इस अवस्था तक आने के बाद दो ही रास्ते बचते हैं – या तो दवाइयों और जात-जात के वेन्टिलेटरों के सहारे जिन्दा रहें अथवा सहज स्वाभाविक रूप से देह का क्षरण होते देखते रहें और अचानक अनचाहे देहपात हो जाए।
यह स्थिति केवल किसी शरीर की ही नहीं बल्कि सभी जगह देखी जाती है। बड़े-बड़े समुदाय, संस्थाएं, व्यवस्थाएं, संगठन और राष्ट्र इसी तरह लापरवाही और उपेक्षा की वजह से जमींदोज हो गए और आज उनका कोई नामलेवा नहीं बचा है।
इस बीमारी का कारण भी कोई है तो हम ही हैं जो इसे हमेशा हल्के में लेने के आदी रहे हैं और आमतौर पर इनकी उपेक्षा कर दिया करते हैं। इसलिए यह कहा जाए कि हर वर्तमान बीमारी के लिए अतीत की भूलें, लापरवाही और अनदेखी ही जिम्मेदार है तो अनुचित नहीं होगा।
और यह अतीत कोई और नहीं बल्कि हमारे से पहले वाले वे लोग हैं जिन्होंने जो कुछ किया उसका भी खामियाजा वर्तमान भोग रहा है, जो कुछ नहीं किया, उसका भी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
अपने चंद स्वार्थों, झूठी शौहरत पाने, अपने आकाओं की नज़रों में खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने, खुद का घर भरने और अपनी ही अपनी वाहवाही करने कराने के फेर में इन लोगों ने जहाँ नहीं बोलना चाहिए वहाँ कुछ न कुछ बोल-बोल कर, अच्छे इंसानों और श्रेष्ठ कामों की शिकायतें कर करके बिगाड़ा करके रख दिया।
वहीं जहाँ उन्हें बोलना चाहिए था, अच्छों और सच्चों का पक्ष लेना चाहिए था, सकारात्मक परिवर्तन के पक्ष में खुद की भूमिका सुनिश्चित करनी थी वहाँ ये लोग चुप्पी साधे ऎसे पड़े रहे जैसे कि नीम-बेहोशी में पड़ें हों या समाधि का ढोंग कर रहे होंं।
बात स्वतंत्रता से पूर्व और बाद के दशकों की ही क्यों न हो, बहुत से लोग पाला बदलते चले गए, खूब सारे फल पाने के चक्कर में एक से दूसरे पेड़ की डालियों पर बंदरिया उछलकूद करते हुए इधर की उधर करते हुए जाने कहाँ से कहाँ बढ़ गए।
हर युग में ऊर्जावान, संघर्षशील और जूझारू लोगों की कोई कमी नहीं रही लेकिन अतीत के इन मूक द्रष्टाओं, चुप्पी साधने वाले मौनी बाबाओं तथा अपनी वरिष्ठता और बुजुर्गियत की धौंस जमाने वालों ने इन्हें बोलने ही नहीं दिया, अभिव्यक्ति पर लगाम लगा अथवा लगवा दी।
सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रौब झाड़ने वाले इन लोगों ने कभी समुदाय, संस्था या राष्ट्रीयता की परवाह नहीं की। इनमें से बहुत सारे लोग ऊपर चले गए हैं इसलिए उन पर टिप्पणी करना जीवात्माओं का अपमान होगा लेकिन बहुत सारे जीव आज भी हैं जिन्होंने अतीत की मौज-मस्ती और रौब छंट जाने के बाद भी अब तक सबक नहीं लिया है।
उसी भाषा और व्यवहार में हैं जैसे पहले थे। कुछ लोग पिछलग्गुओं की जिन्दगी जीते हुए उन्हीं पुरानी गलियों-चौबारों में प्रशस्तिगान करने में रमे हुए हैं, कुछ हैं जिन्हें आज भी यह समझ नहीं आ सकी है इंसान को सामाजिक प्राणी भी कहा गया है।
सच तो यह है कि अपने नंबर बढ़ाने, जायज-नाजायज कामों को करने-कराने, स्वार्थों की अंधी दौड़ में तरह-तरह के पाक-नापाक समझौते करते रहने, अजीब किस्मों के लोगों से वैध-अवैध समीकरण बिठाने में हमने पूरी जिन्दगी निकाल दी और अब भी उन्हीं प्रदूषित धाराओं में रमे हुए हैं।
हम अपने आपको कितना ही बड़ा, महान और अजातशत्रु मानते रहें, इसका कोई फर्क नहीं पड़ता यदि हमने सम सामयिक दायित्व नहीं निभाए, समाज के प्रति अपने फर्ज से मुँह मोड़ते रहे और अपनी ही बार-बार प्राण प्रतिष्ठा कराते रहने के लिए भटकते रहे।
आज वर्तमान दुःखी है और संतप्त है तो उस अतीत के कारण, जो उसे विरासत में गुलामी, अभिव्यक्तियों पर पहरे और स्वार्थी-संकीर्ण मनोवृत्ति के साथ ऎसा कुछ दे गया है कि जिसे वर्तमान नहीं चाहता।
जहां कहीं अतीत मलीनता से घिरा हुआ नज़र आता है वहाँ रोशनी लाने के सारे रोशनदान बौने ही साबित होने लगते हैं। मलीनताओं से घिरा अतीत जब सूरज की बात करता है, उपदेशों पर चलने को कहता है, चिकनी-चुपड़ी बातों से मन बहलाकर भ्रमित करने लगता है, तब लगता है कि यह अतीत कितना काला-कलूटा और मैला है।
जो हो गया सो हो गया। हम वर्तमान हैं, और वर्तमान को चाहिए कि अतीत की घिनौनी और काली छाया के घेरों से बाहर निकले और अतीत को छोड़ दे, इस अतीत को अब यमराज के पाले में डालें।
वक्त आ गया है जब कीचड़ मिले शैवालों और कैंकड़ों से मुक्त होकर साफ पानी में नहाने का पुण्य भी पाएं और पवित्रता भी। इसी से आएगा वह सब कुछ जो तन-मन-जीवन को आलोकित करने वाला होगा।