- March 10, 2016
ईश्वरीय वरदान है बेबाक अभिव्यक्ति – डॉ. दीपक आचार्य
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किसी भी क्रिया-प्रतिक्रिया, वाणी, स्वभाव या व्यवहार की परिपूर्ण शुद्धता तभी प्रकट हो सकती है जबकि वह पूरी तरह मौलिक हो। हृदय से निकली कोई सी बात यदि सीधी होंठों से बाहर निकलेगी तो वह मौलिकता लिए हुए और शत-प्रतिशत शुद्ध होगी तो ही उसका प्रभाव जगत पर पड़ेगा।
हृदय से निकले विचार यदि मस्तिष्क के गलियारों से होकर बाहर आएंगे तब संभव है उसमें कुछ मिलावट जीवात्मा के पूर्वाग्रह, दुराग्रह या स्वार्थ के अनुरूप हो जाए और विचार अपनी शुद्धता खो देने के साथ ही मौलिकता का भी परित्याग कर देते हैं और इस अवस्था में यह मिलावट भरे शब्द प्राणहीन होते हैं जिनका न जगत पर कोई असर पड़ सकता है न हमारे जीवन के लिए ये कभी उपयोगी हो सकते हैं।
जिनका हृदय पूर्ण पारदर्शी होता है, दिमाग मलीनताओं से मुक्त रहता है उन्हीं के भीतर दैवीय और शाश्वत विचारों का प्रवाह बना रहता है। ईमानदारी से देखा जाए तो भगवान इन्हीं लोगों के माध्यम से जमाने भर तक अपनी कल्पनाओं, संकल्पों और विचारों को पहुंचाता है।
यह विचार यदि पूरी शुद्धता के साथ बाहर निकलते रहते हैं, इनमें किसी भी प्रकार की मिलावट नहीं होती है उस स्थिति में ईश्वरीय विचारों का आवागमन बना रहता है और इससे हमारा चित्त दैवीय मंच के रूप में स्थापित हो जाता है जहां ईश्वरीय विचारों का आगमन होते ही उन्हें उसी स्वरूप में मौलिकता के साथ दुनिया तक पहुंचा दिया जाता है।
जब तक यह शाश्वत क्रम अपनी परिपूर्ण शुद्धता के साथ विद्यमान रहता है तब तक हम पर भगवान की कृपा बनी रहती है और हमारे माध्यम से जगत और जीवों को कुछ न कुछ नवीन ऊर्जा संचरण तत्व प्राप्त होते रहते हैं। हम तक पहुंचने वाले दिव्य विचारों को समाज और दुनिया तक पहुंचाने का कोई सा माध्यम हो सकता है, इन माध्यमों को परिपुष्ट करने के लिए भगवान अपनी ओर से पूर्ण सामथ्र्य एवं विभूति प्रदान करता है जिससे कि उसका मिशन लम्बे समय तक चलता रहता है।
जो लोग अपने जीवन में शुचिता को बनाए रखते हैं उनके लिए भगवान जिन्दगी भर किसी न किसी रूप में वरदान देता रहता है और अक्षय कीर्ति तथा श्रेय की प्राप्ति कराता रहता है। यही कारण है कि संसार भर में जो लोग ईश्वरीय प्रवाह को आगे से आगे बढ़ाने के लिए पूरी ईमानदारी, पवित्रता और विशुद्धता के साथ काम करते हैं वे कालजयी और शाश्वत यश प्राप्त करते हैं, इस यश के ग्राफ को दुनिया की कोई ताकत नीचे नहीं ला सकती। यह हमेशा ऊध्र्वगामी और उच्चतर स्थिति में ही बना रहता है। इनके जीवन व कर्मयोग की श्रेष्ठताओं को देख कर यह आभास अच्छी तरह हो जाता है कि इन पर भगवान की पूर्ण कृपा बरस रही है।
ईश्वरीय विचारों को संसार के सामने प्रकट करने का माध्यम कोई सा हो सकता है। लेखन हो, संबोधन हो या फिर व्यवहार हो। इसके अलावा जो लोग ईश्वरीय प्रवाह की शुचिता बनाए रखते हैं उनका मौन भी बहुत कुछ कह जाता है।
इन लोगों को अपने विचार प्रकट करने के लिए न कागज-कलम, माउस-कम्प्यूटर की जरूरत होती है न होंठ खोलने की। ये मन में जो संकल्प कर लिया करते हैं वह अपने आप उन लोगाें के दिल और दिमाग तक सहज-स्वाभाविक रूप से पहुंच जाता है जिन तक यह पहुंचाना चाहते हैं। मौन वैचारिक आवागमन दूसरे सभी प्रकार के माध्यमों से श्रेष्ठतर होता है।
वे लोग बिरले ही होते हैं जो कि शाश्वत प्रवाह के संवहन में ईश्वरीय मंच के रूप में अपने आपको स्थापित कर लिया करते हैं और जीवन भर ईश्वरीय कृपा में नहाते हुए सृष्टि के कल्याण के लिए समर्पित होते हैं व अमर हो जाते हैं।
लेकिन ऎसा कर पाना दूसरे सामान्य लोगों के लिए संभव नहीं हैं क्योंकि ये लोग संसार में किए जाने वाले सभी व्यवहारों में अपना स्वार्थ देखते हैं। इन लोगों को ईश्वर या उसके विधान पर भरोसा नहीं होता है इसलिए ये अपनी ऎषणाओं और स्वार्थों से हर विचार, व्यवहार और कर्म को देखते हैं और इस वजह से इनका मन-मस्तिष्क सब कुछ अशुद्ध एवं मलीन हो जाता है। और यह मलीनता ईश्वर को कतई पसंद नहीं है। इसलिए वह इन्हें अपने कार्यों का माध्यम नहीं बनाकर इन्हें उन्हीं के भरोसे छोड़ देता है।
यही कारण है कि ये लोग जिन्दगी भर षड़यंत्रों, कुचेष्टाओं, निन्दा और पराये भोगों, संसाधनों और व्यक्तियों पर निर्भर रहा करते हैं। इससे इनकी अभिव्यक्ति शुद्धता और मौलिकता से दूर रहती है और केवल मानसिक व्यापार का ही इस्तेमाल होता है।
ये लोग चाहते हुए भी बिन्दास होकर न कोई व्यवहार कर सकते हैं न किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति। इनकी हर अभिव्यक्ति मलीनता लिए हुए होती है और इसमें दुराव व दुर्भावना ही पग-पग पर झलकती है। अभिव्यक्ति के लिए कोई सा अवसर आ भी जाए तो ये अपने स्वार्थ और प्राप्ति को देखकर ही दिमाग चलाते हैं, इस कारण से इनकी अभिव्यक्ति नीरस और प्रभावहीन होती है जिसका प्रभाव कुछ क्षण के लिए हो सकता है, बाद में नहीं।