- December 15, 2015
घर न ले जाएँ दफ्तरी बोझ – डॉ. दीपक आचार्य
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इंसान का पूरा जीवन अभिनय से भरा हुआ है। सभी लोग अलग-अलग मंचों पर अपनी किसी न किसी प्राप्ति के लिए अभिनय में रमे हुए हैं। तकरीबन सारे ही लोग रोजी-रोटी और सामान्य जिन्दगी पाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
आजीविका पाने के प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं मगर सभी का लक्ष्य प्रकारान्तर से एक ही है। सब लोग चाहते हैं सुरक्षित जिन्दगी और सुनहरा भविष्य। इसके लिए हम सभी लोग किसी न किसी जतन में लगे हुए हैं।
हर इंसान की जिन्दगी का प्राथमिक ध्येय रोटी-कपड़ा और मकान है और इसके लिए वह हर तरह के प्रयासों में जुटता हुआ अपने-अपने कर्मयोग को आकार दे रहा है। हर सामान्य आदमी जिन्दगी भर इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता हुआ नज़र आ रहा है।
अपने आपको इससे थोड़ा ऊपर और अलग मानने वाले लोग भोग-विलासिता और लोकप्रियता के चक्कर में हैं। इनसे भी आगे एक प्रजाति और भी है जो ईश्वर की तरह संप्रभु होकर जीना चाहती है और साम्राज्यवादी चिन्तन के साथ शोषक और सर्वोपरि होकर दूसरों को हमेशा हर क्षण दीन-हीन और क्षीण देखना चाहती है और उसी से इस प्रजाति को आनंद आता है।
तरह-तरह की इंसानी प्रजातियों और विभिन्न रंगमंचों पर छायी किसम-किसम की भीड़ के बीच कई तरह के वैचारिक मुण्ड नज़र आते हैं। होना यह चाहिए कि जो जहां जिस रंगमंच पर काम करता है वहाँ जब तक रहे, तब तक पूरी ताकत झोंकता हुआ अपने किरदार को अच्छी तरह निभाए और निरन्तर ऊँचाइयों की ओर अग्रसर होता रहकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाए और विशेषज्ञ के रूप में अपने आपको निखारे।
फिर दूसरे मंच पर जाकर भी इसी प्रकार का कर्तव्य निर्वहन करे। लेकिन यह तभी हो सकता है कि जब हम अपने कर्तव्य के तमाम प्रकारों के बीच कोई न कोई अदृश्य सीमा रेखा या दीवार खींचे रखें। जो लोग अलग-अलग किरदार निभाते हुए अपने-अपने मंचों को जीते हैं वे जमाने भर में मस्ती और आनंद के पर्याय हो जाते हैं।
लेकिन बहुत सारे लोग ऎसा नहीं कर पाते। वे मिक्चर की तरह घालमेल जीवन जीते हैं और हर अभियन तथा मंच के बीच मकड़ियों के जालों की तरह गूंथ जाते हैं। यही कारण है कि ऎसे लोगों की जिन्दगी मकड़ी के जालों की तरह उलझन भरी हो जाती है और वहां से निकल पाना इनके बस से बाहर हो जाता है।
घर और दफ्तर की बात करें, घर और काम-धंधे या दुकान की बात करें या फिर कोई से दो जीवन मंचों की, सबमें यही बात ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी का भी घालमेल न करें। न अपने रंगमंचों को आपस में मिलाएं, न अपने किरदारों को।
हर किरदार और मंच को पृथक-पृथक निभाएं और उसी के अनुरूप आचरण करें, लोक व्यवहार करें तथा स्वभाव भी वैसा ही रखें। कई बार काल्पनिक अभिनय और वास्तविक जिन्दगी में हम साम्यता या पर्याय तलाशने की कोशिश करते हैं लेकिन इसका हमें कुफल ही भुगतना पड़ता है।
हममें से अधिकतर लोग दफ्तर-दुकान के रोजमर्रा के कामों, विचारों तथा प्रतिक्रियाओं को घर ले जाते हैं, घर वालों के सामने जिक्र करते हैं और उनसे इन विषयों पर चर्चा करते रहते हैं। अधिकांश मामले वे होते हैं जो हमारी चिन्ताओं, तनावों और व्यथा-कथाओं से संबधित रहते हैं और इससे हम अपना समय भी बर्बाद करते हैं, घर वालों को भी चिन्ता में डालते हैं और बेवजह पारिवारिक तनावों की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं।
इससे कलह बढ़ता है, औरों के प्रति शत्रुता के भाव जगते हैं और धीरे-धीरे दफ्तरी तनाव और विवाद सार्वजनिक होने लगते हैं। बहुत सारे लोग घर जाकर अपनी दुकान, दफ्तर और बाहर का रोना रोते रहते हैं और घर वालों को भी इसमें बेवजह शरीक करते हैं।
इससे नुकसान हमारा ही होता है। जो समय हमें घर-परिवार, पति-पत्नी, बीवी-बच्चों और माता-पिता या दूसरे कुटुम्बियों के साथ या साामजिक प्राणी के रूप में अपने क्षेत्र में आनंदपूर्वक मनाना होता है वह समय हमसे छीन जाता है और दुखड़ा रोना या कमेन्ट्री करके घर वालों के कान पका देना हमारी रोजमर्रा की आदत हो जाती है।
यह स्थिति न हमारे व्यक्तिगत जीवन के लिए अच्छी कही जा सकती है, न हमारे पारिवारिक और घरेलू जीवन के लिए। जो काम और विचार जहां का है, वहीं छोड़ कर जाएं और अपने हर अभिनय को पूरी मस्ती एवं जीवन्तता के साथ निभाएं।
इसी प्रकार की स्थितियां दफ्तरों और व्यवसायिक परिसरों की होती है जहां हम अपने घर के दुखड़े रोते हैं, घरेलू कलह, तनावों, समस्याओं और अभावों के बारे में खुलकर चर्चा करते हैं और दूसरों से यह मिथ्या आशा रखते हैं कि कोई उनके काम आएगा, उनके दुःख-दर्द सुनेगा तथा राहत देगा।
यह भी नहीं तो कुछ लोगों की वंशानुगत आदत होती है कि वे घर की चर्चा बाहर और बाहर की चर्चाएं घर में करने को ही जिन्दगी का प्राथमिक कत्र्तव्य मान लिया करते हैं। ऎसे लोगों के जीवन में न कभी कोई सुकून आ सकता है, न सुख का कोई कतरा।
इसलिए जहां हैं वहां वहीं की बातें करें, किसी एक मंच का कथोपकथन दूसरे मंच पर न जाएं, किसी एक किरदार को दूसरे मंच पर पेश न करें।