- November 18, 2015
चीनी – भारत ऋण ग्रस्त देश :: भविष्य में हालात और खराब
क्या चीन और भारत में एक अरब से अधिक की आबादी के अलावा कोई और समानता है ? आर्थिक रूप से चीन हमसे कई दशक आगे हो सकता है लेकिन पिछले कुछ सप्ताहों से दोनों देश एक साझा समस्या से जूझ रहे हैं। वह समस्या है फंसे हुए कारोबारी ऋण की जो इतना ज्यादा हो चुका है और इतना अस्पष्ट है कि चीजों का अनुमान लगा पाना तक मुश्किल है।
एक नए विश्लेषण के मुताबिक चीन की बैलेंस शीट से इतर ऋण प्रतिबद्धतायें और वाणिज्यिक बैंकों का असमेकित ऋण अब तक सामने आई जानकारी से करीब 50 फीसदी अधिक है। चीन एशिया का सर्वाधिक नकदीयुक्त देश है। यहां कर-जीडीपी अनुपात 340 फीसदी है जबकि पूर्व में इसके जीडीपी का 285 फीसदी होने का अनुमान जताया गया था।
कारोबारी ऋण के मामले में भारत की स्थिति उतनी बुरी नहीं दिखती। लेकिन इस्पात और बुनियादी ढांचागत क्षेत्र की हालत बहुत खराब है। गत माह के अंत में क्रेडिट सुइस ने ऋणग्रस्त कारोबारी घरानों से संबंधित अपनी रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट में देश के सर्वाधिक ऋणग्रस्त कारोबारी समूहों की जानकारी है। इसमें अदाणी समूह से लेकर जेपी और वीडियोकॉन तक शामिल हैं। उनका समग्र ऋण आठ साल पहले की तुलना में सात गुना हो चुका है।
वित्त वर्ष 2015 में भी इसमें बढ़ोतरी जारी है। इस बीच कुछ समूहों ने पूंजीगत खर्च में कमी और परिसंपत्ति बेचने की कवायद शुरू की है। बुरी बात यह है कि ऋण चुकाने की उनकी क्षमता बढऩे के बजाय घट रही है। इसके लिए आंशिक तौर पर कठिन आर्थिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। लेकिन ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि वे ठीक चल रहे अपने कारोबार को सबसे पहले बेच रहे हैं।
क्रेडिट सुइस के मुताबिक जेपी समूह ने अपने सीमेंट कारोबार और जलविद्युत संयंत्रों की बिक्री की है लेकिन इस क्रम में उसने वह परिसंपत्ति गंवा दी है जो वित्त वर्ष 2015 में उसकी ब्याज और कर पूर्व आय में 59 फीसदी की हिस्सेदार थी। रिपोर्ट के मुताबिक समूह की बुनियादी ढांचागत कंपनियों के कर्ज ने पूंजीगत खर्च में खूब इजाफा किया है। कई परियोजनाएं अब तय लागत से 20 से 70 फीसदी तक ऊपर चल रही हैं।
भविष्य में हालात और खराब हो सकते हैं। बैंकों पर यह दबाव डाला गया है कि वे अपने अधिकाधिक फंसे कर्ज को उजागर करें। ऐसा करने से स्थिति थोड़ी स्पष्ट हो सकती है। क्रेडिट सुइस ने इन कंपनियों के अंकेक्षकों की रिपोर्ट पर नजर डाली और पाया कि इन कंपनियों का कुल फंसा हुआ कर्ज 53 अरब डॉलर था जिसमें से 37 अरब डॉलर को अंकेक्षक शून्य से 90 दिनों के लिए डिफॉल्ट घोषित कर चुके थे।
चीन में अंकेक्षण का स्तर बहुत खराब है और वहां छद्म वित्तीय व्यवस्था (सामान्य बैंक की तरह काम करने वाले गैरबैंकिंग संस्थान) की समस्या से निपटना मुश्किल नजर आता है। वित्तीय और ऊर्जा क्षेत्र को छोड़कर 1,700 कंपनियों के तीन चौथाई आंकड़ों से गुजरने के बाद पेइचिंग के एक वित्तीय विश्लेषक ने कहा कि मुनाफे और राजस्व वृ्द्धि में तेजी से गिरावट आई है। उनके मुताबिक, ‘सूचीबद्ध कंपनियों की कार्यशील पूंजी की स्थिति में वर्ष 2012 के बाद सबसे तेज गिरावट आ रही है।’ निर्यात में 7 फीसदी की गिरावट और अक्टूबर में आयात में 19 फीसदी की गिरावट में सुधार की कोई संभावना नहीं।
चीन के जाने माने विश्लेषक एन स्टीवंसन-यांग ने हाल ही में एक ऐसेट ब्रोकर (जो वित्तीय कंपनियों को फंसे हुए कर्ज से निजात दिलाने में मदद कर रहा है वह भी बिना उसे स्वीकार किए) के साथ बातचीत की। उसने एक पोंजी योजना के बारे में बताया जो ऋण पुनर्गठन की तरह दिखती है और जिसमें ब्रोकर फंसे हुए कर्ज को खरीदते हैं और कुछ गिरवी की बिक्री करते हैं। ब्रोकर ने स्टीवंसन यांग को बताया कि ऐसी परिसंपत्ति के पैकेज का अच्छा बाजार है। कई कंपनियां आईपीओ लाना चाहती हैं लेकिन उनके पास पर्याप्त परिसंपत्ति नहीं है। हम उनको कुछ सस्ता फंसा हुआ कर्ज बेच देते हैं।
भारत की बात करें तो इस सप्ताह हमने देखा कि अदाणी पोर्ट के शेयर 52 सप्ताह के निचले स्तर पर आ गए। यह तब हुआ जब कंपनी ने कहा कि वह तमिलनाडु में 2,000 करोड़ रुपये की लागत से एक बंदरगाह का अधिग्रहण कर रही है। जेएसडब्ल्यू स्टील और टाटा स्टील के बॉन्ड प्रतिफल में तेजी आ रही है। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस उद्योग पर 43.8 अरब डॉलर का ऋण है जिसके बड़े हिस्से के भुगतान में चूक होनी तय है।
इस नकारात्मक परिदृश्य के बावजूद 650 ऐसेट मैनेजरों पर बार्कलेज के हालिया तिमाही सर्वेक्षण में पता चला कि उभरते बाजारों के निवेशक चीन को लेकर चिंतित हैं लेकिन 38 फीसदी निवेशक भारत को सर्वाधिक आकर्षक उभरता बाजार मान रहे हैं। फाइनैंशियल टाइम्स के मुताबिक भारत का प्राइस-टु-बुक चर 3.2 गुना है जो उभरते बाजारों के 1.4 गुना से कहीं अधिक है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निरंतर विदेश यात्राओं की आलोचना करने वाले सही नहीं हैं। चीन के राष्टï्रपति शी चिनफिंग ने हाल में अपनी अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर यात्रा में भले ही खूब शोर पैदा किया हो लेकिन मोदी की विदेश यात्राओं ने कम से कम अर्थव्यवस्था की मदद की है। चीन और भारत में कारोबारी ऋण की इस स्थिति को देखते हुए संस्थागत विदेशी निवेशकों का ध्यान अपनी अर्थव्यवस्थाओं से हटाना एक तरह से टालने जैसा ही है।
भारत की बात करें तो कर्ज का पुनर्गठन, बिजली की दरों को सही करने के क्रम में प्रभावी नियामक रखना ताकि राज्य बिजली इकाइयां पुन: दिवालिया न हो जाएं। इसके अलावा राज्य स्वामित्व वाले स्वतंत्र प्रबंधन वाले बैंक बनाना और नया दिवालिया कानून जो बड़े कारोबारी डिफाल्टरों पर दबाव बनाएगा।
वर्ष 1991 से एक प्रश्न बारबार सामने आ रहा है: क्या सरकार के पास ऐसा करने के लिए अनुशासन है? अगर आपको इसका जवाब हां लगता है तो मैं एक ऐसे ब्रोकर को जानता हंू जो अरबों के फंसे हुए कर्ज से निजात दिला सकता है।