- January 12, 2025
12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष-: शक्ति, जिम्मेदारी और भविष्य की ओर एक दृष्टि
12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष-
युवावस्था: शक्ति, जिम्मेदारी और भविष्य की ओर एक दृष्टि
कुछ कर गुजरने की तमन्ना ही युवावस्था की पराकाष्ठा है
1- युवावस्था: शक्ति, जिम्मेदारी और भविष्य की ओर एक दृष्टि
2- सोच बदलो, जीवन बदलो एक प्रेरणादायक पुस्तक
3- विवेकानंद: भारत की आध्यात्मिक शक्ति के अमर उद्घोष
– सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
युवावस्था जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति, सामर्थ्यवान, शक्तिशाली, चैतन्यवान, स्फूर्तिवान इत्यादि अनेक गुणों से लबालब होता है, इसके बाद इन गुणों में क्रमशः कमी आती जाती है प्रायः वैसे देखा जाये तो भारतीय युवक दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा अधिक संयत और समझदार पाये जाते हैं। पश्चिमी दुनिया के युवक नशों के शिकंजे में अपने आपको जकड़ चुके हैं। वे मानव सभ्यता के विकास और सामाजिक जीवन की मर्यादाओं पर जरा भी विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि मानव समाज का संगठन प्रारंभ से ही कुछ ग़लत धारणाओं के आधार पर किया गया है। ऐसे समाज की जड खोदकर उसे समाप्त कर देना उनकी दृष्टि में एक पुण्य कार्य है। वही वे मर्यादाहीन उच्छृंखलता की सारी हदें पारकर चुके हैं।- जबकि भारतीय युवा जगत में अभी ऐसी मर्यादाहीन उच्छृंखलता देखने को नहीं मिलती हैं।
अब से पचास साठ वर्ष पूर्व तक यहाँ का युवा वर्ग परिवार और समाज द्वारा अनुशासित था। अंग्रेजी शासन. सरकारी नौकरी में चुनाव के समय युवकों की शिक्षा और व्यक्तिगत योग्यताओं के साथ- उनके पारिवारिक परम्पराओं को भी महत्व देता था। इसलिये वाह्य व्यावहारिक जीवन में से आधुनिक होते हुये भी प्रायः जीवन के उन मूल्यों और अंधविश्वासों तक के प्रति आस्थावान बने रहते थे, जो उनके कुल में प्राचीनकाल से चले आ रहे थे। महात्मा गाँधी ने सन् 1920 में युवा वर्ग को असहयोग आंदोलन में शामिल होने का आह्वान किया। उक्त आंदोलन में सम्मिलित होने का अर्थ ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना ही नही था वरन अप्रत्यक्ष रूप से परम्परागत रीति, रस्म रिवाज़ों के प्रति विद्रोह करके बहुत सी पारिवारिक और सामाजिक मर्यादाओं को छिन्न भिन्न करना भी उसके अंतर्गत था। फिर पुन: सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश में युवा आंदोलन का दूसरा दौर शुरू हुआ। युवा वर्ग में इस समय यह भावना थी कि वे एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक है और उनकी भावना की कदर होना चाहिये। दूसरी ओर नया शासक वर्ग ब्रिटिश शासनकाल से चली आई शिक्षा पद्धति को बिना बदले उन्हें अपनी मान्यताओं के अनुसार मर्यादाओं के नये सांचों में ढालना चाहता था। ।
सन् 1965 के बाद से भारतीय युवा आंदोलन में एक नया मोड़ आया, समझदार युवकों ने देखा कि रोज़गार के दफ्तर खुले होने के बाद भी बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। वंही दी जाने वाली शिक्षा का वास्तविक और व्यावहारिक जीवन में उपयोगी नहीं हो पा रहा हैं फिर भ्रष्टाचार और महँगाई निरंतर बढती जा रही है नैतिकता नाम की चीज़ समाज में नहीं रह गई है। गरीब और गरीब और अमीर पे अमीर होते जा रहे हैं, तब युवा वर्ग की अपनी निरुददेश्य उच्छृंखलता का परिज्याग कर निर्माण को किसी दिशा की ओर ले जाने वाले आंदोलन की आवश्यकता का एहसास हुआ। वे गम्भीर होकर विचार करने और अपने आंदोलन को सोद्देश्य पूर्ण बनाने की चेष्टा भी करने लगे। तभी गुजरात राज्य में भ्रष्टाचार के विरुद्ध हुआ आंदोलन एवं विधानसभा भंग करो आंदोलन का श्रीगणेश हुआ था।
हमारे देश में युवा वर्ग की कुल जनसंख्या लगभग चालीस करोड़ के आसपास है, पर यह इतनी बड़ी शक्ति संगठन के अभाव में बिखरी पड़ी हैं। युवावर्ग की ऐसी कोई संस्था नहीं हैं जो इस शक्ति का प्रतिनिधित्व कर सकें। देश के विभिन्न राजनैतिक दल अपनी अपनी ‘विचारधारा के अनुसार इसे संगठित करने का प्रयत्न करते हैं फिर उनका उपयोग अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिये करने लग जाते हैं।
भारतीय युवक के सामने आज सबसे बड़ी समस्या अपने दिमाग की दृढ़ता और नैतिकता को कायम रखने की आवश्यकता है। हमारा देश आज राजकीय पुँजीवाद एकाधिकार तथा निजी पूँजीवाद एकाधिकार के कठिन संघर्ष के बीच से गुजर रहा है। दोनों ही अपने अपने तरीके से युवा वर्ग को आकर्षित करने का प्रयत्न कर रह है। बाहर से युवा वर्ग को नीति न्याय और सिद्धांत की बहुत सी बातें बताई जाती हैं। समाजवाद जनतंत्र और धर्म निरपेक्षता के ऊंचे आदर्श उनके सामने रखे जाते हैं — किंतु युवक के सामने जब उन आदर्शो का हनन होता है तभी युवा आक्रोश जाग उठता है ।
अध्यापक अभिभावक और सामाजिक नेता छात्रो को प्रत्यक्ष रूप में कुछ सिखाते हैं और ठीक उसके विपरीत आचरण करने के लिये अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करते हैं। युवक अपने स्वभाव से सच्चा ईमानदार और नैतिकता पूर्ण आचरण पसंद करने वाला होता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि युवक को दी जाने वाली शिक्षा जीवन के लिये उपयोगी बनाई जाए और युवा शक्ति को रचनात्मक दिशा देने का प्रयास किया जाय।
कहते है जिस प्रकार अग्नि के शांत होते ही उसकी प्रचण्ड लगने वाली ज्वाला समाप्त हो जाती है वैसे ही मनोविकारों को मिटाते ही बुद्धि शुद्ध हो जाती हैं। युवा वर्ग को इसीलिए सर्वप्रथम आवश्यकता है अपना विकारों पर पूर्ण नियंत्रण। उन्हें पनपने का जरा भी मौका न मिले, इसका ख्याल अगर युवा वर्ग कर लें तो निसंदेह आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।
–सोच बदलो, जीवन बदलो एक प्रेरणादायक पुस्तक
सदविचारों की रोशनी दुर्भाग्य के अंधकार को खत्म कर देती है: सूर्य सिन्हा
उमेश कुमार सिंह—— “सोच बदलो, जीवन बदलो” एक ऐसी प्रेरणादायक पुस्तक है जो पाठकों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने का वादा करती है। यह पुस्तक उन लोगों के लिए है, जो जीवन में आने वाली चुनौतियों और उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए खुद को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेखक सूर्य सिन्हा, जो एक प्रेरक वक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, ने इस पुस्तक के माध्यम से विचारों की शक्ति और उनके जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को गहराई से समझाने की कोशिश की है।
पुस्तक का उद्देश्य और मुख्य संदेश
डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक सोच बदलो जीवन बदलों जिसके लेखक सूर्य सिन्हा है। यह पुस्तक आपको जीवन में सकारात्मक सोच की महत्ता से परिचित कराएगी। हमारे विचार ही हमारे जीवन क आधार होते हैं और जैसे हमारे विचार होते हैं। वैसा ही हमारा जीवन बनता है। इस पुस्तक में आप जानेंगे कि कैसे सकारात्मक विचार आपके जीवन को बेहतर बना सकते हैं, जब कि नकरात्मक विचार समस्याओं का कारण बनते हैं। पुस्तक में सरल भाषा में बताया गया है कि सकारात्मक सोच कैसे क्रोध, कुंठा और भय से मुक्ति दिलाकर जीवन में शांति और सफलता की ओर ले जाती है। एक सही विचार आपके पूरे जीवन को बदल सकता है। लेखक का उद्देश्य है कि पाठक अपने विचारों की ताकत को समझें और जीवन में सफलता, शांति, और संतोष प्राप्त करने के लिए सकारात्मक सोच को अपनाएं। मनुष्य का जीवन उसके विचारों पर निर्भर करता है। सकारात्मक विचार न केवल जीवन को खुशहाल बनाते हैं, बल्कि मनुष्य को उसकी पूरी क्षमता तक पहुँचने में भी मदद करते हैं। वहीं, नकारात्मक विचार जीवन को अव्यवस्थित और कठिन बना सकते हैं।
लेखक और उनकी प्रेरणा
सूर्य सिन्हा एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं। वे न केवल एक सफल लेखक और प्रेरक वक्ता हैं, बल्कि समाज सेवा के क्षेत्र में भी अग्रणी हैं। उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों और चुनौतियों को इस पुस्तक का आधार बनाया है। लेखक का यह दृढ़ विश्वास है कि हर व्यक्ति के भीतर अनंत संभावनाएं हैं। जरूरत है तो केवल उन्हें पहचानने और सही दिशा में विकसित करने की।
पुस्तक की संरचना और सामग्री
यह पुस्तक 32 अध्यायों में विभाजित है, जिसे दो खंडों में प्रस्तुत किया गया है।
1. खंड एक: इसमें विचारों की मूलभूत समझ, उनका दर्शन, और उनके जीवन पर प्रभाव पर चर्चा की गई है। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि विचारों का सीधा संबंध मनुष्य के जीवन के हर पहलू से होता है।
2. खंड दो: इसमें व्यावहारिक दृष्टिकोण से बताया गया है कि विचारों को जीवन उपयोगी सूत्र में कैसे बदला जाए। लेखक ने विचारों को सकारात्मक दिशा में ले जाने और जीवन में सफलता हासिल करने के तरीके पर प्रकाश डाला है।
मुख्य अध्याय और उनकी विशेषताएँ
कुछ प्रमुख अध्यायों में शामिल हैं:
· सकारात्मक विचार क्या है?: इसमें सकारात्मक सोच की परिभाषा और महत्व बताया गया है।
· एक विचार पूरा जीवन बदल सकता है: यह अध्याय विचारों की शक्ति और उनके जीवन में परिवर्तन लाने की क्षमता पर केंद्रित है।
· जुनूनी बनें और जूझें: यह अध्याय पाठकों को प्रेरित करता है कि वे अपनी क्षमताओं को पहचानें और अपने जुनून को हासिल करने के लिए संघर्ष करें।
· विचार और व्यक्तित्व: इसमें विचारों और व्यक्तित्व के बीच संबंध पर चर्चा की गई है।
· सफलता का बीजमंत्र: आशापूर्ण विचार: यह अध्याय सकारात्मक सोच को सफलता का आधार मानता है।
भाषा और शैली
सूर्य सिन्हा की लेखन शैली सरल और प्रभावशाली है। उन्होंने जटिल विषयों को भी बहुत ही सहज और सुलभ भाषा में प्रस्तुत किया है। उनके विचार सीधे पाठकों के दिल और दिमाग पर प्रभाव डालते हैं। पुस्तक में दिए गए उदाहरण और अनुभव इसे और अधिक प्रासंगिक बनाते हैं।
पुस्तक का प्रभाव और महत्व
यह पुस्तक पाठकों को आत्मविश्लेषण के लिए प्रेरित करती है। इसमें यह संदेश दिया गया है कि अगर आप अपने विचारों को नियंत्रित करना सीख लें, तो आप अपने जीवन को अपने मनचाहे तरीके से जी सकते हैं। यह पुस्तक न केवल व्यक्तिगत विकास में सहायक है, बल्कि इसे एक मार्गदर्शक के रूप में भी देखा जा सकता है।
लेखक की अनूठी शैली
सूर्य सिन्हा की सबसे बड़ी ताकत उनकी प्रेरक और सटीक शैली है। उन्होंने न केवल सकारात्मक विचारों के महत्व को बताया है, बल्कि उन्हें कैसे अपनाया जाए, इसका व्यावहारिक दृष्टिकोण भी दिया है।
निष्कर्ष
“सोच बदलो, जीवन बदलो” एक प्रेरक और जीवन बदलने वाली पुस्तक है। यह हर उस व्यक्ति के लिए उपयोगी है, जो अपने विचारों और जीवन को बेहतर बनाना चाहता है। यह पुस्तक बताती है कि आपकी सोच ही आपकी सबसे बड़ी ताकत है और सकारात्मक सोच से आप जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। यह पुस्तक केवल पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि इसे जीवन में अपनाने के लिए है।
3-
12 जनवरी विवेकानंद जयंती पर विशेष –
विवेकानंद: भारत की आध्यात्मिक शक्ति के अमर उद्घोष
विवेकानंद ने सनातन हिन्द को विश्व में स्थापित किया
– सुरेश सिंह बैस शाश्वत
विश्व वन्दनीय स्वामी विवेकानन्द जैसी महान विभूति ने शायद हिन्दुत्व जागरण जैसे महान कार्य के लिये अपना सारा जीवन ही अर्पित कर दिया था। और यही कारण है कि स्वामी जी का स्थान आज विश्व में सर्वोत्तम है। परम अवतार पुरुष रामकृष्ण परमहंस स्वामीजी के गुरु थे। स्वामीजी के कार्य साधना के प्रेरणा स्त्रोत भी वही थे। कलकत्ते में 12 जनवरी सन् 1863 ई. में संक्रांति के पवित्र त्यौहार दिवस मे स्वामीजी का जन्म विश्वनाथ दत्ता बाबू के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। माता इन्हें प्यार से “बिले” कहती थी। वैसे इनका नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। स्वामीजी से परिचित होने के लिये कुछ घटनाओं का जानना अत्यंत आवश्यक है जो निम्न है।
दयालु बिले –
एक बार की बात है विश्वनाथ ‘दत्त के यहां कई साधु-सन्यासी भिखारी लगभग रोज खाना और पैसे के लिये दरवाजे पर आया करते थे। बिले उन्हें जो कुछ हाथ लगता दे देता। इस पर मां कहती यदि बिले इसी तरह देता रहा तो मैं कैसे घरगृहस्थी चला पाऊंगी? इसी कारण एक दिन उन्होंने उसे अटारी मे बंद कर दिया। और बोली कि वह अब घर की चीजें नहीं दे पायेगा। एकदम अकेले अटारी पर बंद बैठे बिले उदास हो गया। तुरंत ही उसने एक भिखारी की आवाज सुनी। बिले भिखारी को कुछ देने के लिये सामान खोजने लगा। तभी शाल और कम्बल दिखे उसने तुरंत ही खिड़की से उस भिखारी जो चीथड़ों से ढंका था। उसके शरीर में हड्डी के सिवाय कुछ नहीं था। बिले यह देखकर बहुत दुःखी हो गया और तुरंत उस भिखारी को वह शाल- कम्बल प्रसन्नता पूर्वक दे दिया! बेचारा भिखारी नन्हें बालक की दयालुता‘ पर गद्गगद् हो गया।
सत्यवादी बिले-
एक बार भूगोल की कक्षा मे मास्टर ने बिले से एक सवाल पूछा। बिले ने उत्तर तो दे दिया, लेकिन मास्टर ने कहा कि उत्तर गलत है। बिले ने कहा “नही उत्तर बिलकुल सही है।” मास्टर बहुत गुस्सा हुए। उन्होंने उसे न केवल डांटा ही नहीं, बल्कि एक थप्पड़ भी रसीद कर दिया। लेकिन जब मास्टर घर पहुंचे तो इन्हें मालूम हुआ कि बिले ने जो कुछ बताया था, वही ठीक था। वे बिले के घर खेद प्रकट करने बिले के घर गये।
एक दूसरे मौके पर जब मास्टर कक्षा में पढ़ा रहे थे। बिले बातों में लगा था। मास्टर ने उनसे कुछ सवाल पूछे उनका अनुमान था कि वह उत्तर नहीं दे सकेगा, और तब उसे बात करने की सजा दे सकेंगे। लेकिन बिले ने सभी सवालों के जवाब खटाखट दे दिये। इस पर मास्टर ने कहा- “ओह, मैं गलती पर था। तुम वह लड़के नहीं हो जो बातें कर रहा था। तब बिले ने कहा “मास्टर जी. यह सच है कि मैने आपके सवालों का जवाब दे दिया, लेकिन में ही वह लड़का हूं जो बातें कर रहा था।”
कुशाग्र बिले –
स्वामीजी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। पिता प्रयास करते थे कि किताबी शिक्षा के अलावा नरेन्द्र का चारो ओर से बुद्धि का विकास हो। पिता-पुत्र के बीच तर्क वितर्क भी होता था। अक्सर ही बिले के तर्क के सामने पिता विश्वनाथ बाबू पराजय स्वीकार करने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते थे।
18 वर्ष के होते-होते उन्होंने परमहंस की शिष्यता ग्रहण कर ली जब 16 जून 1885 को रामकृष्ण ने अपना शरीर त्याग किया तो उन्होंने स्वामीजी को संन्यास धारण करने की सलाह दी थी। और अंतिम समय कहा था कि नरेन्द्र संन्यास धारण करने के बाद ही राष्ट्र में हिन्दुत्व जागरण के कार्य को आसानी से कर सकोगे। “जीवन भर अनवरत आगे बढ़ते रहो। रूक जाना अवनति की निशानी है” – स्वामी विवेकानन्द । शिक्षा का उद्देश्य है मनुष्य के अंदर रौशनी पैदा करना, एक ऐसी रोशनी जो उसे जीवन भर मार्ग दर्शन कराती रहे, उसे भटकते न दे।
“स्वामी विवेकान्द”
नरेन्द्र का नया नाम स्वामी विवेकानन्द पड़ गया, जब उन्होंने सन्यास ‘धारण किया और हिंदुत्व जागरण के लिये उन्होंने भारत भ्रमण की लम्बी यात्रा का निश्चय किया। वे देखना चाहते थे कि भारत के विभिन्न भागों के लोगों का रहन सहन कैसा है। इनकी यात्रा के समय एक जोड़ी कपड़ा, एक कमंडल, कुछ पुस्तकें और एक दण्ड था ।वे गांव-गांव नंगे पैरों से गुजरते लोगों की हालत देखते और उन्हें हिन्दुत्व का उपदेश देते आगे बढ़ते रहे। कभी पेड़ो के नीचे, कभी गरीब की कुटिया कभी, राजमहल उनका आश्रय बनता था। स्वामी जी वाराणसी ,हिमालय, राजस्थान के मरूस्थल, बंबई, बंगलौर, कोचीन, म.प्र. महाराष्ट्र मदुराई होते हुए रामेश्वरम गए। वे जहां जहां भी गये, वहां उन्होंने गरीबों की तकलीफ ही देखी। स्वामीजी यह सब देखकर भीतर से रो पड़े। वे सोचने लगे भारत का अतीत कितना गौरवमय था। यही महान भारत आज कितना गिर गया है। स्वामी जी सोचते रहते कि हमारा देश फिर कैसे अपना खोया गौरव हासिल कर सकता है।
अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव में वह कुमारी द्वीप कन्याकुमारी जा पहुंचे। वही के एक सागरीय शिला से उन्होंने यह घोषित किया था कि “मुझे राह मिल गई”। जब अमेरिका में सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन होने वाला था तब स्वामीजी ने हिन्दुत्व के जागरण के लिये वहां जाने का निश्चय कर लिया। 31 मई सन् 1893 को स्वामी जी शिकागो (अमेरिका) रवाना हुए। धर्म महासभा की बैठक 11 सितम्बर 1893 से शुरू हुई। सभी धर्मो के प्रतिनिधिगण एक के बाद एक बोले। स्वामीजी तनिक भयभीत थे। आखिकार वे खड़े हुए और मंच में आगे आये और बोले -“”मेरे अमरीकी बहनों और भाईयों।” तुरंत ही जनता में हर्षोल्लास उमड़ पडा। हजारों श्रोता बार-बार करतल ध्वनि करने लगे। वे पहली बार इतना आत्मीय संबोधन सुनकर गदगद हो उठे थे।
स्वामीजी ने गेरूये परिधान में सात हजार लोगों के सामने जो भाषण दिया वह सीधे जाकर लोगों के अंतर को छु रहा था। उनकी तेजस्वी वाणी गुंज रही थी- “ “भारत भूमि दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता, प्रेम तथा शिष्टाचार की जन्म भूमि है। अपने अनुभव के आधार पर मैं दृढ़ता से कह सकता हूं कि भारत आज भी इस संबंध में दुनिया का अग्रणी है। इसे महान कार्य करने हैं……आश्चर्यजनक शक्ति प्राप्त करनी है। हमें दूसरे राष्ट्रों को बहुत सी बातें सिखलानी है।
स्वदेश में लौटने पर स्वामीजी का जगह-जगह भव्य स्वागत किया गया। बंगाल में उन्होंने कहा था- “वे निर्भिक बने और शक्ति उत्साह एवं विश्वास के साथ अपना सब कुछ देश के लिये बलिदान देने को तैयार हो जाएं। हमारे पूर्वजों ने हमें जो आध्यात्मिक थाती सौंपी है। उससे विश्व की परिचित करावें। तभी तो भारत अपना समुन्नत आध्यात्मिक पद एक बार फिर से प्राप्त कर सकेगा।” “वाराणसी में उन्होंने कहा था- “तुम तब तक हिन्दु कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते, जब तक इस नाम को धारण करने वाला कोई अंकिचन भी दुख दारिद्र्य से पीड़ित है।
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत शशि
एवीके न्यूज सर्विस