फ़िल्मो में प्रयोग होती कनपुरिया लफ़्फ़ाज़ी —- अकरम क़ादरी

फ़िल्मो में प्रयोग होती कनपुरिया लफ़्फ़ाज़ी  —- अकरम क़ादरी

मशहूर कहावत है “ढाई कोस पास पर पानी बदले और ढाई कोस पर वाणी” यह कहावत बिल्कुल सटीक है- क्योंकि कानपुर से लखनऊ ज़्यादा दूर नहीं है लेकिन भाषा बिल्कुल अलग है। लखनऊ में उर्दू मिक्स अवधी बोली जाती है तो कानपुर में एकदम रौबदार कनपुरिया जो आजकल बॉलीवुड को खूब पसंद आ रही है। बहुत फ़िल्में बन रही हैं और न जाने कितनी फ़िल्मो की पटकथा लिख चुकी होंगी। कनपुरिया अंदाज़ के अक्खड़ता की वजह से यह लफ़्फ़ाज़ी, बोली, लोकोक्ति, मुहावरे अपना स्थान बॉलीवुड में बना रहे है।

कानपुर शहर दो चीज़ों के लिए बहुत मशहूर है – एक है “पान-मसाला गुटखा दूसरा चमड़ा (लेदर)” आजकल कई भारतीय फिल्मों और टीवी सिरियल में कनपुरिया भाषा का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है क्योंकि इस भाषा मे एक रौब और दबंगई है जो भारतीय सिनेमा के महारथियों को खूब समझ मे आ रही है। वो उस भाषा के साथ न्याय करने की कोशिश भी करते है।

शब्दों की अदायगी में एक अनूठापन है जो किसी भी दर्शक के दिल में उतरने की महारत रखती है। उसका सबसे बड़ा कारण है- यह भाषा जिस चरित्र द्वारा बोली जाती है वो या तो फ़िल्म का विलेन होता है फिर उसका किरदार रौब वाला होता है।

इस भाषा मे आजकल काफी फ़िल्में, धारावाहिक, वेब सीरीज बन रही हैं जो दर्शकों पर सीधा अपना प्रभाव छोड़ रही हैं। किसी भी फ़िल्म की सफलता तभी है जब दर्शक बाहर निकले तो उसके दिमाग़ में फ़िल्म की कहानी हो और जुबां पर उस फिल्म के संवाद।
कनपुरिया लफ़्फ़ाज़ी में यह ख़ासियत है कि उसके डायलाग दिल पर उतरते है इसलिए ही फ़िल्म निर्माता खूब कानपुर बेस फ़िल्मे और वेबसीरीज बना रहे है।

जिसमे कुछ फिल्में सिल्वर स्क्रीन पर आ भी गयी है जैसे एलएलबी-2, टशन, तनु वेड्स मनु-1, तनु वेड्स मनु-2, बंटी और बबली, दबंग-2, साईं वर्सेज आई, कटियाबाज, देसी कट्टे, बाबर, हंसी तो फंसी, होटल मिलन, मरुधर एक्सप्रेस और भैया जी सुपरहिट उसके अलावा अनेक टीवी धारावाहिक आ गए है जो छोटे पर्दे पर धूम मचा रहे है-

कृष्णा चली लंदन, ‘शास्त्री सिस्टर्स, भाबी जी घर पर हैं, लापतागंज, जीजा जी छत पर हैं, हर शाख पर उल्लू बैठा है, नीली छतरी वाले, ऑफिस-ऑफिस।

ऊपर दिए गए नाम और उनके मतलब से ही आपको इस भाषा (बोली) की दबंगई का पता चल जाएगा कि किस प्रकार यह भाषा फ़िल्म जगत में अपना स्थान बनाये हुए है। हर क्षेत्र की अपनी एक भाषा विशेष होती है जिसका इस्तेमाल करने पर पता चल जाता है कि यह किस सीमा तक दर्शक पर अपनी पैठ बना पाएगी इस बोली भाषा की शब्दावली ही निराली है कुछ शब्द और उनके अर्थ जो फिल्मों में इस्तेमाल हुए है ।

◆ आम बोलचाल के कनपुरिया जुमले

– विधिवत मारेंगे और कौनौ मुरौवत न करेंगे “ढंग से पिटेंगे बिल्कुल भी शर्म नहीं करेंगे”
– ज्यादा बकैती न करो- “कम बोलो”
– अबहिं मार मार के हनुमान बना देबे- “इतना मारेंगे की मुंह लाल कर देंगे”
– टोपा हो का – “बेवकूफ हो क्या”
दीहिस कंटाप- “थप्पड़ जड़ दिया”
– हपक के एक कंटाप धरा तो सारी रंगबाजी धरी रहि जहिये- “ज़ोर से एक थप्पड़ पड़ेगा, सारी दबंगई बाहर आ जायेगी”
– ये मठाधीसी अपने पास ही धरो- “यह नेतागिरी अपने पास रखो”
– भाई जी, अगले का भौकाल एकदम टाइट है- “सामने वाला बन्दा मज़बूत है”
– अबहीं झपडिय़ा दीन्ह जाइहौ तब पता चली कि पंजीरी कहां बटत रहे-” एक थप्पड़ में पता चल जाएगा कि पंजीरी (मेवे का बना पौष्टिक आहार) कहाँ बंट रही है”
– अरे सरऊ काहे पचड़े में पड़त हौ अबहिं लभेड़ हुई जइहै- ” भाई पंगा ना लो वरना समझ लेना”
– कुछ पल्ले पड़ रहा है कि ऐसे ही औरंगजेब बने हो- “कुछ समझ मे आ रहा है या फिर फालतू में बादशाह बने बैठे हो”
– ज्यादा बड़ी अम्मा न बनौ-“ज्ञान ना दो”
– गुरु व्यवस्था तो फुल टन्न रही- “खाने-पीने का इंतेज़ाम ज़बरदस्त था”
– हर जिगाह चिकाई न लिया करो – “हर वक़्त मज़ा ना लिया करो”
– मार कंटाप शंट कर देंगे – “एक थप्पड़ में गाल लाल कर देंगे”
– अबे सोच का रहे हो बे?- “क्या सोच रहे हो”
– भौकाल बन रहा तौ बनाए रहो गुरू- “काम हो रहा है तो करते रहो”
– कसम से, बमपिलाट लग रहे हो- “बहुत खूबसूरत लग रहे हो”
– का गदर मचाये हो बे- “झगड़ा कौन किया है”
– कन्डम माल पकरा दिए गुरू? -” बेकार माल दे दिया”
◆ निराली है वर्तनी
-पूरा होना : हुई गा -पूरा न होना : नाई भा
-क्यों : काहे -यहां आओ : हियां आव
-पिटाई करना : हउंक दीहिस -काम पूरा होना : गुरु काम 35 होइगा..
-सुनो जरा : सुनो बे -क्या हुआ : का हुआ बे
-जबरदस्त : धांसू
◆ कानपुर के शब्द और उनका अर्थ
– लल्लनटॉप- एकदम ज़बरदस्त, बढ़िया – कंटाप : थप्पड़
– भौकाल : जलवा या प्रतिष्ठा – चौकस : बेहतरीन
– बकैत : अधिक बोलने वाला – खलीफा : सर्वश्रेष्ठ
– बकलोली : फिजूल की बातचीत – लभेड़ : अप्रिय परिस्थिति
– पौव्वा : जुगाड़ या पैठ – चिकाई : किसी से मज़ाक करना
– चिरांद : उलझन पैदा करना या करने वाला – लबर-लबर – ज़्यादा बोलने वाला
– बमपिलाट – धांसू – चौधराहट- राजा बनना
– बैल- मूर्ख – चौड़ियाना- ओवर स्मार्ट बनना
– आयं – क्या – लुल्ल- ढीला इंसान
– कंडम माल- बेकार सामान – घाम -धूप
– हियां आब- इधर आओ – पिपरी बजाना- रोना
– मोमिया- पॉलीथिन – अबहुँ- अभी तक
– घोंचू- गधा – पेल दिहिस- थप्पड़ मारना
– नसैनी- सीढ़ी
इसी लफ़्फ़ाज़ी और साफगोई के कारण मायानगरी में कानपुर के प्रमुख कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव, राजीव निगम, राजन श्रीवास्तव, जीतू गुप्ता, अनिरुद्ध मद्धेशिया और अन्नू अवस्थी अब किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। वह सिर्फ इसीलिए कॉमेडियन बन सके क्योंकि विशुद्ध कनपुरिया भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ और अंदाज मज़ाकियापन से लबरेज़ है।

कानपुर की धरती ने अनेक साहित्यकारों, पत्रकारों को भी जन्म दिया जिनमे सबसे प्रमुख गणेश शंकर विद्यार्थी है जिन्होंने पत्रकारिता के प्रतिमान स्थापित किए तथा प्रमुख साहित्यकारों में गिरिराज किशोर, प्रियंवद, कमलेश भट्ट, कमल, राजेन्द्र राव, श्रीनाथ, सुनील कौशिक, ललित मोहन अवस्थी, सुशील शुक्ल, ओरकाश बाथम, हृषिकेश, असग़र वज़ाहत और प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी का नाम प्रथम फेहरिस्त में आता है। यही वो साहित्यकार है जिन्होंने कनपुरिया लफ़्फ़ाज़ी को अपने साहित्य में प्रमुखता से जगह भी दी है। यह नैसर्गिक प्रक्रिया भी है जब कोई लेखक जहां रहता है उसपर उस वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है।

अकरम क़ादरी,
फ्रीलांसर
akramhussainqadri@gmail.com

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