• March 8, 2016

हृदय से स्वीकारें आधे आसमाँ का वजूद – डॉ. दीपक आचार्य

हृदय से स्वीकारें  आधे आसमाँ का वजूद  – डॉ. दीपक आचार्य

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 बरसों से महिला दिवस मनाने की औपचारिकताओं में हम जी रहे हैं। इसके बावजूद आज भी हमें महिलाओं के वजूद को पर्याप्त आदर-सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाने के लिए महिला दिवस मनाने की आवश्यकता पड़ती है। यह अपने आप में आश्चर्य है।

जिस शक्ति के बूते सारे के सारे शिव प्राणवान बने हुए हैं, जिस शक्ति के बल पर पूरी दुनिया संचालित हो रही है, जिसे देवी कहकर स्वीकारा गया है। जिसकी पूजा जहां होती है वहां देवता भी उस भूमि पर अवतार लेने को तरसते हैं। उस भारतभूमि पर महिला दिवस मनाने की जरूरत क्यों है, इस बारे में सभी को गंभीरता से सोचना होगा।

दुनिया के दूसरे मुल्कों में स्थिति अलग है। वहां स्त्री को भोग्या के रूप में स्वीकारा गया है। अपने भारत में उसे अद्र्धांगिनी, जननी, भगिनी और पूज्य स्वरूपों में माना गया है।  भारतभूमि धर्म, अध्यात्म और कर्म की भूमि है जहाँ शक्ति तत्व के बिना न किसी सृजन की कल्पना की जा सकती है, न क्रिया या प्रतिक्रिया की।

शक्तिहीनता का सीधा अर्थ है नीमबेहोशी अथवा प्राणहीनता। जहाँ न कोई स्पन्दन है, न किसी प्रकार की हलचल।  कोई कितना ही चाह ले, कुछ नहीं हो सकता। इसी शक्ति का पार्थिव स्वरूप स्त्री है। स्त्री के अस्तित्व को हृदय से जो स्वीकार लेता है, उसे पूर्णता और मोक्ष प्राप्ति का सहयोगी बना लेता है, उसका हृदय जीत लेता है, वस्तुतः वही पूर्ण पुरुष है जिसे शिवत्व प्राप्त कहा जा सकता है।

शेष सारे पुरुष या तो आधे-अधूरे या आंशिक पुरुष हैं अथवा केवल कहलाने मात्र के लिए पुरुष। स्त्री आज चौतरफा संकटों से घिरी हुई है, अपनी अस्मिता, स्वाभिमान और उन्नति के लिए उसे संघर्ष करना पड़ रहा है। इसका मूल कारण स्त्री के प्रति हमारी समझ न होना है, और यही नासमझी है जो हमारे मौलिक विकास और ऊध्र्वगामी प्रयास को बाधित करती है और हमारी जिन्दगी सब कुछ होते हुए भी बोझिल, असफल और हताश हो जाती है।

स्त्री को केवल पौरुषी मानसिकता से ही खतरा नहीं है बल्कि उन स्ति्रयों से भी है जो उसे हीन मानती हैं और अपनी उच्चाकांक्षा तथा साम्राज्यवादी दंभ का झण्डा हमेशा ऊँचा रखने के लिए मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के तमाम हथियारों का इस्तेमाल करती रहती हैं।

पुरुषों के मामले में कहा जा सकता है कि जिन पुरुषों को अपने ऊपर भरोसा नहीं होता, आत्मविश्वासहीन और नाकाबिल हैं, वे ही स्ति्रयों को हीन मानते हैं। असली पुरुष स्ति्रयों को पूरा आदर-सम्मान देते हैं, उनकी जरूरतों और भावनाओं का ख्याल रखते हैं, उनकी आबरू और स्वाभिमान की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

लेकिन पुरुषों की ही एक विचित्र किस्म है जो स्त्री को केवल भोग्या और अनुचरी के रूप में देखती है। इन्हें नकली पुरुष कहा जाना चाहिए। सच तो यह है कि जो पुरुष हर तरह से मानसिक और शारीरिक रूप से नपुंसक हैं वे ही स्ति्रयों के वजूद को स्वीकार नहीं कर पाते।  इन नासमझ और काले मन-मस्तिष्क वाले नकारात्मक पुरुषों के ही कारण पुरुष वर्ग बदनाम है।

आदिकाल में स्ति्रयों को पुरुषों से भी अधिक माना जाता रहा है लेकिन मध्यकाल में आक्रान्ताओं और विधर्मियों के प्रभाव में आकर स्ति्रयों को दूसरे दर्जे का मानने की भूल शुरू हुई, वास्तव में वहीं से हमारी सामाजिक व्यवस्था पर आघात लगने शुरू हो गए।

इस भूल को सुधारने की आवश्यकता थी लेकिन पौरुषी नपुंसकता में निरन्तर बढ़ोतरी के चलते यह सब हो नहीं पाया। अब भी समय है कि हम असली और नकली पुरुषोंं में भेद करने में कंजूसी नहीं करें और नासमझों को समझाएं, न मानें तो सामाजिक स्तर पर ठिकाने लगाएं, यह काम असली पुरुषों और स्ति्रयों को मिलकर करना चाहिए।

स्ति्रयों के लिए दूसरी सबसे बड़ी दुश्मन स्ति्रयां भी हुआ करती हैं। इस बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसे स्ति्रयां अच्छी तरह अनुभव करती हैं। स्ति्रयों-स्ति्रयों में सास-बहू, जेठानी-देराणी, ननद-भाभी और छोटी-बड़ी का भेद समाप्त करने के लिए स्ति्रयों को ही आगे आने की जरूरत है। समझाईश जरूरी है।

स्ति्रयां ही यदि स्ति्रयों के पक्ष में खड़ी हो जाएं तो हमें महिला दिवस मनाने की आवश्यकता ही न पड़े। निर्वीर्य, नपुंसकताजन्य अतृप्त वासनाओं से भरा, लफ्फाज और लंपट पुरुषों का एक वर्ग ऎसा भी है जो किसी भी स्त्री के प्रति आदर-सम्मान का कोई भाव नहीं रखता।

ये लोग केवल शरीर से पुरुष हैं, इनसे वृहन्नलाएं ठीक होती हैं। ये तथाकथित लोग पुरुषाधम हो जाया करते हैं। फिर इनके जैसे नुगरे, निठल्ले और उन्मुक्त भोगवादी मनोरंजन की पैदावार से जुड़े लोग हर कहीं मिल जाते हैं जिनका गिरोह बनाकर ये स्ति्रयों के प्रति अनादर करते हैं, षड़यंत्र रचते हैं और स्ति्रयों को प्रताड़ित करने का कोई सा मौका नहीं चूकते।

असल में ये ही लोग शुंभ-निशुंभ, महिषासुर, चण्ड-मुण्ड , भण्डासुर और दूसरे असुर रहे हैं जिनके संहार के लिए कोई देवता आगे नहीं आया, देवियों को हर अवतार लेना पड़ा था। यह बात स्ति्रयों को अच्छी तरह समझ में आ जानी चाहिए।

दुर्भाग्य से वर्तमान समाज इतनी भीषण दुरावस्था और मलीन मानसिकता में जी रहा है कि चरित्रवान उसे समझा जा रहा है जो स्ति्रयों को दूसरे दर्जे का बनाकर रखता है, स्ति्रयों के अधिकारों का हनन करता है, स्ति्रयों की कमाई से खाता-पीता और मौज उड़ाता है, स्ति्रयों को मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना देता है और लज्जित करने का कोई सा मौका छोड़ना नहीं चाहता।

जबकि ऎसा जीव पुरुष कहने या होने के काबिल भी नहीं है। इस किस्म के बहुत सारे कापुरुष हर क्षेत्र में हैं, हमारे अपने इलाकों में भी कोई कमी नहीं है जिनके बारे में कहा जाता है कि ये स्त्री विरोधी हैं और इनके जीवन का लक्ष्य स्ति्रयों का नीचा दिखाना ही है।

दूसरी ओर जो लोग स्ति्रयों का दिल से आदर करते हैं, उनके लिए सहयोगी, मार्गदर्शक, प्रोत्साहनकर्ता और सुविधादाता का दायित्व निभाते हैं उन लोगों को चरित्रहीन कहकर मजाक उड़ाया जाता है, बुराई की जाती है  और इन लोगों की लोक में निन्दा के लिए सभी प्रकार के षड़यंत्रों का ताना-बाना बुना जाता है। और इन निन्दकों व नपुंसकों को अपनी तरह के पौरुषहीन नपुसंक पुतले मिल भी जाते हैं जो इनकी हाँ में हाँ मिलाते  रहते हैं। हालांकि ये लोग ऎसे कर्मों से अपनी माँ, बहन, पत्नी और दूसरे सारे स्त्री संबंधों को भी लज्जित करते हैं।

शक्ति तत्व को जानें, उसका आदर-सम्मान करें, श्रद्धा अभिव्यक्त रखें और देवी भाव से इन्हें स्वीकार करें, फिर देखें इनके भीतर की महान परमाण्वीय ऊर्जाओं का अखूट स्रोत कैसे हमारे जीवन और जगत के आनंद से लेकर मोक्ष प्राप्त कराने तक की यात्रा में सहयोगी बनता है। पर इसके लिए दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों, मलीनताओं और आसुरी भावों को छोड़ने की आवश्यकता है।

इस बार महिला दिवस पर हम अपने आपको सुधारें, आत्मचिन्तन करें और स्त्री मात्र के प्रति प्रेम भाव, मातृत्व भाव और श्रद्धा भाव रखने और उन्हें हरसंभव सहयोग देने का संकल्प लें।

आधे आसमाँ भर को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ …।

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