- August 26, 2016
मन की बात-2 : सरस्वती धुल में लेटी :- शैलेश कुमार
इस सप्ताह काफी चिठठीयाॅं मिली है। इस चिठठी में पढ़ाई पर ज्यादा सवाल कियें गयें है।
अगर गरीब छात्र / छात्राऐं मेधावी हो तो उसे क्या करना चाहिए ?
मैं आपको निराश नही करना चाहॅूगा। आज कल की बात है हरियाणा के पटियाला क्षेत्र की एक हैंड वाॅल खिलाड़ी और स्नातक की छात्रा ने गरीब होने का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत की है। बेचारी चली गई। कहावत है कि जाने वाले को न कोई रोक सकता है और न आने वाले को कोई रोेक सकता है। इस दिवंगत आत्मा को पुष्पांजलि अर्पित।
बेचारी इस अपवित्र भूमि पर खुद आई थी और खुद चली गई। यह भूमि अपवित्र इसलिए है कि बेचारी के पिता सब्जी बेच रहा है। इसके कारण अपने लाडली को छात्रावास में रखने की औकात नहीं था। संघर्ष तो खूब की लेकिन संघर्ष से अगर कोई आगे बढ़ सकता तो चीटीं हाथी बन जाती। गधा बुद्धिमान हो जाता।
गरीब छात्र / छात्राऐं किताब के पन्ने तक याद कर सकते हैं। लेकिन स्कूल – कालेजों में टाॅप नही कर सकते हैं क्योंकि यहाॅ डिग्रीयाॅ रंडियों की तरह बिकती है। बोर्ड और यूनिविर्सिटी टाॅप के लिए लडकियाॅ है तो अंग बेचों , अंक पाओ। लडका है तोे पैसा दो अंक लो।
आजकल लक्ष्मी यहाॅं घर -घर की बेटी। सरस्वती धूल में लेेटी। इसलिए इस अपवित्र भूमि पर गरिबों का कोई चारा नहीं है। वैसे भी गरीब पढ़ कर क्या करेगा। उसें तो रहट की जिंदगी ही व्यतीत करना है। सरकारी नौकरी में आरक्षण और पैरवी है। प्राईवेट में तो सिर्फ दलाल और मूर्ख लोगों की जरूरत है। पैसे हैै नहीं की वह रोजगार कर लें। बैंक के ऋण लेने में भी सौ लफड़े है। इस तरह अनिर्णीत जिंदगी जीने से तोे बेहतर है की शान से उस लोक चलें जायेे जिस लोक से इस अपवित्र भूमि पर आये है।
एक स्वाभिमानी लड़की कालेजों और विश्वविद्यालयों में रहकर अमीरों का रखैल बनना स्वीकार नही कर सकती है। हिम्मत -ए- मर्द – मर्द -ए- खुदा। सभी मर्द नहीं बन सकते हैं।
एक प्राईवेट कालेज में मालिक के रखैल प्राचार्या का काम उस कालेज में पढ़ने वाले लड़कियों का हम बिस्तर बनाना शेष मात्र रह गया है। विशेष कर इसका शिकार प्रायोगिक विषय केे लड़के – लड़कियाॅ होतें है।पढ़ाई पर सपने संयोगने वाले को पढ़ाई के क्रम में ही हतोत्साह कर दिया जाता है तो ऐसे पढ़़ाई से क्या फायदा।
आज एक ओलंपिक विजेता के साथ फोटो खिचवानें के लिए होड़ मची हुई है लेेकिन उसी मैदान में एक खिलाड़ी पानी के कारण दो घंटें बेहोश रही । कहाॅं था उसका कोच और सहयोगी ?
आज एक माॅं अपनें बेटे का तगमा लेकर भीख मांग रही है। कभी उसके बेटे के साथ भी तस्वीर लेने के लिए होड़ मची हुई होगी लेकिन उस होड़ में सम्मिलित आज एक भी जिंदा नही है की उसके माॅं के साथ तस्वीर खींचवा सके ??
कभी स्वर्ण पदक विजेता आज रिक्शा खीच कर बच्चें का पेट पाल रहा है ! पदक प्राप्ति के बाद उसने क्या – क्या संयोग रखा होगा लेकिन आज कोई उसे पूछने वाला नही है। वह माॅ (दंगल विजेता) आज भी अपने और अपनेे बच्चों के लिए दर- दर की ठोकरें खा रही है।
हमारे राज्य मंत्री और केंन्द्रीय खेल मंत्री क्या कर रहें है ?
क्या उनके पास यह दस्तावेज है कि आज तक के खिलाड़ियों की आर्थिक स्थिति क्या है ? क्यों नही उन पदक विजेताओं की आर्थिक सर्वेक्षण किया गया । किस आधार पर यह अनुचित है! कभी उनलोगों ने यह बातें सोची है ! नहीं ! सिर्फ विज्ञापन चाहिए।
>जहाॅं सिर्फ फल खानें वाले ही पैदा हो रहे होें वहाॅं वृक्ष कैसे लगेगा जहाॅ पौधे को उगते ही काट दिया जाता है वहाॅं हरियाली कैसे पनप सकती है।
एक अर्थ से जूझते विद्वान साहित्यकार और वैज्ञानिकों की दर्द कोई सुनने वाला नही लेकिन एक चमचखोर साहित्यकार सम्मान को कैसे ठुकराते हैं। इसलिए गरिबों की पढ़ाई वहीं पान के दाम के बराबर है।
लेकिन वहीें डिग्री खरीदनेवाले लफंडरों की सम्मान देेखिए।
पढ़ाई की तकनीकी सागिर्दी देेखिए। एक विद्वान छात्र आवारगर्द व्याख्याताओं से सीख ले रहा होता है वह लड़का क्या करेगा !
बात हमारें घर की है। मेरे चाचा जी होमियोपैथिक डाॅक्टर थे। उस (1960) समय में वैद्य ही मशहूर होता था। जब पटना में मेडिकल कालेज खुली तो उनके साथी नाममात्र की परीक्षा देकर डिग्रीयाॅं ली। उनके साथी ने भी ऐसा करने के लिए उन्हें सलाह दिया। लेकिन जब उस मेडिकल कालेज में पढ़ाने वाले प्रोफेसर सामनें आयेे और बातचीत हुई तो चाचा जी ने कहा- क्या मेरे योग्यता की जांच आप करेगें !!
मन की बात समाप्त करते हुए एकबार फिर कहता हॅू –
“लक्ष्मी यहाॅ घर -घर की बेटी , सरस्वती धूल में लेटी।”संपादक नवसंचारसमाचार. काॅम