- February 13, 2021
सभी गैर रणनीतिक सरकारी कंपनियों को बेचा जाएगा या बंद किया जाएगा
बिजनेस स्टैंडर्ड ——— आर्थिक विषयों को लेकर नरेंद्र मोदी का रुख बदल गया है। यह अंतर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद दिखा है जब उनकी जीत और बहुमत में इजाफा हुआ था। राज्य सभा पर भी नियंत्रण होने के बाद वह लंबित आर्थिक सुधारों को लेकर महत्त्वाकांक्षी लग रहे हैं। उनमें पर्याप्त आत्मविश्वास नजर आ रहा है और जरूरत पडऩे पर वह पारंपरिक समझ को चुनौती देने के लिए भी तैयार हैं। निजीकरण को लेकर उनकी सरकार की साहसी घोषणा (कहा गया है कि सभी गैर रणनीतिक सरकारी कंपनियों को बेचा जाएगा या बंद किया जाएगा) से पहले प्रतिबंधात्मक श्रम कानूनों को बदलने और कृषि बाजार को खोलने जैसे कदम उठाए जा चुके हैं। ये सभी संवेदनशील विषय हैं।
इस प्रक्रिया में वह उन इलाकों से भी गुजरे जिन्हें राज्य सरकारें अपना मानती रही हैं। एक बार वह राहुल गांधी के ‘सूट-बूट की सरकार’ के ताने के सामने हिचक गए थे, वहीं अब उन्होंने निजी उद्यमों की भूमिका को अंगीकार कर लिया है। उन्होंने स्थायी अफसरशाही को सीधे तौर पर निशाने पर लिया और सरकारी क्षेत्र को चार रणनीतिक क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया है।
आश्चर्य की बात है कि उन्होंने यह सब किसान आंदोलन के दौरान किया है। यह आंदोलन इस भय से उपजा है कि कारोबारियों के हित कृषि बाजारों पर नियंत्रण कर लेंगे। मोदी अपनी स्थिति को दांव पर लगाने के इच्छुक हैं क्योंकि उनके प्रस्तावों में से कई अत्यंत विवादित हो सकते हैं। नए कृषि विपणन कानून इसकी बानगी हैं और उनका क्रियान्वयन अत्यंत मुश्किल है। परंतु इन बाजियों को लेकर कोई बचाव नहीं है। मोदी ने राजकोषीय रूढि़वादिता का भी त्याग कर दिया है और घाटों और सार्वजनिक ऋण को लेकर अधिक विस्तारवादी रुख अपनाया है।
उनके पहले कार्यकाल में जहां मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर भरोसे में कमी दिख रही थी। उसके बाद शुल्क दरों में इजाफा करने का सिलसिला आरंभ हुआ। गत वर्ष आत्मनिर्भर अभियान की शुरुआत के बाद ‘मेक इन इंडिया’ नीति पर पुनर्विचार में अर्थशास्त्र की पारंपरिक समझ के खिलाफ इच्छाशक्ति बढ़ती दिखी। जम्मू कश्मीर के दर्जे में बदलाव तथा नए नागरिकता कानून को लेकर आक्रामक कदम बताते हैं कि उनमें अब हिचक नहीं है। आर्थिक रुख में बदलाव इस बात में भी नजर आता है कि पूंजीगत निवेश में सरकारी व्यय को लेकर सरकार नए सिरे से ध्यान दे रही है।
दलील है कि इससे वृद्धि को बल मिलेगा। इस प्रक्रिया में कीमत उन क्षेत्रों ने चुकाई है जो पहले उनके लिए प्रमुख थे: वस्तु एवं सेवा के दायरे का सार्वभौमीकरण और सुरक्षा दायरे का विस्तार करना। ठीक उस समय जब महामारी के चलते लाखों लोग बेरोजगार हुए और गरीबी में धीमी गति से आ रही कमी का रुख बदल गया, उस समय व्यय रुझान में यह बदलाव ध्यान देने लायक है।
बढ़ती असमानता को लेकर नकार का भाव स्पष्ट रूप से उल्लेखनीय है। मोदी हर कदम के साथ नई दिशा में बढ़ रहे हैं। रुझान में बदलाव के कारणों का अनुमान लगाया जा सकता है। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राज्य सभा पर सत्ताधारी दल का नियंत्रण है जो 2015 में तब नहीं था जब मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून बदलने का विफल प्रयास किया था।
महामारी के पहले ही वृद्धि के आंकड़ों में गिरावट आने लगी थी और इस बात ने आर्थिक नीति पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित किया। इससे समझा जा सकता है कि हिमालय के पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा विकसित करने पर जोर दिया जा रहा है और पर्यावरण संबंधी चिंताओं को किनारे कर दिया गया है। सरकारी बैंकों को लेकर उपजी हताशा और उनके लिए निरंतर पूंजी की आवश्यकता ने भी निजीकरण पर बल देने को प्रेरित किया होगा। राजस्व की चिंता भी इसकी वजह होगी क्योंकि कर और गैर कर राजस्व में कमी आई है। मोदी यह भी सोच सकते हैं कि वह राजनीतिक रूप से जोखिम लेने की स्थिति में हैं।
जोखिम मौजूद हैं। सन 1991 के सुधारों से हासिल उपलब्धियों के बावजूद देश के बड़े हिस्से को आज भी सॉफ्ट स्टेट (ऐसा राज्य जो वक्त की मांग होने पर भी कड़े निर्णय नहीं लेता) की सर्वव्यापकता से राहत मिलती है। निजी क्षेत्र में अधिकांश उपक्रम छोटे हैं। केवल चंद बड़े उपक्रम हैं जिनके पास इतना पैसा है कि वे सरकारी परिसंपत्तियों को खरीद सकें। यह बात निजीकरण को लेकर चिंता पैदा करती है। नए राजकोषीय रुख में मुद्रास्फीति का भी जोखिम है जो पारंपरिक तौर पर जनता को सरकार के खिलाफ करता रहा है। इन सब में यदि दांव पर वृद्धि हो और वही हासिल न हो तब? मोदी को इस स्थिति से सावधानीपूर्वक अपना रास्ता निकालना होगा।