- August 30, 2021
सच बोलने की हिम्मत किसमें है ? — डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ ने सत्यनिष्ठता की जबर्दस्त वकालत की है। वे छागला स्मारक भाषण दे रहे थे। उनका कहना है कि यदि राज्य या शासन के आगे सत्य को झुकना पड़े तो सच्चे लोकतंत्र का चलना असंभव है। राज्य और शासन प्रायः झूठ फैलाकर ही अपना दबदबा बनाए रखते हैं। बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे उस झूठ, उस पाखंड, उस नौटंकी का भांडाफोड़ करें। मेरी राय में यह जिम्मेदारी सिर्फ बुद्धिजीवियों की ही नहीं है। उनके पहले विधानपालिका याने संसद और न्यायपालिका याने अदालतों की है। जिन देशों में तानाशाही या राजतंत्र होता है, वहां संसद और अदालतें सिर्फ रबर का ठप्पा बनकर रह जाती हैं। लेकिन लोकतांत्रिक देशों की अदालतों और संसद में सरकारों के झूठ के विरुद्ध सदा खांडा खड़कता रहता है। लेकिन हमने देखा है कि विधानपालिका और न्यायपालिका भी कार्यपालिका की कैसी गुलामी करती हैं।
आपात्काल के दौरान हमारी संसद में कितने सांसद अपनी आत्मा की आवाज को बुलंद करते थे ? इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में क्या एक भी मंत्री ने कभी आपात्काल के विरुद्ध आवाज उठाई ? आपात्काल की बात जान दें, यों भी मंत्रिमंडल की बैठकों में होनेवाले बड़े-बड़े फैसले जब होते हैं तो क्या उन पर दो-टूक बहस होती है ? क्या कोई मंत्री खड़े होकर सच बोलने की हिम्मत करता है ? क्यों करे, वह ऐसी हिम्मत ? तभी प्रश्न उठता है कि सच बड़ा है कि स्वार्थ ? सच वही बोलेगा, जो निस्वार्थ होगा। कोई जज ऐसा फैसला क्यों देगा कि उससे सरकार नाराज़ हो जाए ? उसकी पदोन्नति खटाई में पड़ सकती है। उसका कहीं भी तबादला हो सकता है और सेवा-निवृत्ति के बाद वह किसी भी पद के लिए लार भी नहीं टपका सकता है।
हमारे जजों को नौकरी पूरी होने के बाद राज्यसभा चाहिए, राज्यपाल बनना है, राजदूत बनना है और किसी न किसी तरह कोई न कोई कुर्सी हथियाना है। अगर वे सत्य पर डटे रहेंगे तो कौनसी सरकार उन पर कृपालु होगी ? ऐसी स्थिति में आशा की आखिरी किरण खबरपालिका में दिखाई पड़ती है। खबरपालिका याने अखबार और टीवी। इंटरनेट भी! इंटरनेट का कुछ भरोसा नहीं। उस पर लोग मनचाही डींग हांकते रहते हैं लेकिन हमारे टीवी चैनल भी नेताओं के अखाड़े बन चुके हैं। उन पर गंभीर विचार-विमर्श होने की बजाय कहा-सुनी का दंगल ज्यादा चलता रहता है। वे सत्य को उदघाटित करने में कम, अपनी दर्शक-संख्या बढ़ाने में ज्यादा निरत दिखाई पड़ते हैं।
अखबारों की स्थिति कहीं बेहतर है लेकिन वे भी अपनी वित्तीय सीमाओं से लाचार हैं। वे यदि बिल्कुल खरी-खरी लिखने लगें तो उनका छपना ही बंद हो सकता है। फिर भी कई अखबार और पत्रकार तथा कुछ टीवी एंकर भारत के लोकतंत्र की शान हैं। उनकी निष्पक्षता और सत्यनिष्ठता हमारी सरकारों पर अंकुश का काम तो करती ही हैं, उनका मार्गदर्शन भी करती है। सत्य बोलने की हिम्मत जिनमें है, वे नेता, वे जज और वे पत्रकार हमारे लोकतंत्र के सच्चे रक्षक हैं।