शून्य लागत प्राकृतिक कृषि से कृषि आर्थिकी में क्रांतिकारी बदलाव

शून्य लागत प्राकृतिक कृषि से कृषि आर्थिकी में क्रांतिकारी बदलाव

शिमला———–राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वे शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देकर कृषि आर्थिकी में क्रांतिकारी बदलाव लाएं। इस पद्धति को अपनाने से उत्पादन बढ़ेगा, किसानों की आय मेें वृद्धि होगी और भूमि की उर्वरता शक्ति भी बनी रहेगी।

राज्यपाल आज केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला में ‘‘आलू अनुसंधान में फसल सुधार, उत्पादन एवं फसलोत्तर तकनीकी क्षेत्र के नए आयाम’’ विषय पर आयोजित 21 दिवसीय ग्रीष्मकालीन पाठशाला के उद्घाटन अवसर पर बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि आलू उत्पादन के क्षेत्र में संस्थान का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और संस्थान के वैज्ञानिकों ने इसकी विभिन्न किस्में विकसित कर क्रांतिकारी बदलाव लाया है, जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। उन्होंने कहा कि आलू की फसल स्वास्थ्य का आधार बनीं हैं और किसानों की आय का प्रमुख स्रोत भी है।

किसानों की आय दोगुनी करने की प्रमुख जिम्मेदारी आज वैज्ञानिकों की है, जिस पर देश भर में कार्य चल रहा है। वैज्ञानिकों के समक्ष यह एक बड़ी चुनौती है कि उत्पादन भी बढ़े, किसानों की आय मेें वृद्धि हो और भूमि की उर्वरा शक्ति भी बनी रहे। यह यूरिया, डीएपी और कीटनाशकों से संभव नहीं है। उन्होंने शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को एकमात्र विकल्प बताया और वैज्ञानिकों के समक्ष इसकी सफलता के अनेक उद्हारण प्रस्तुत किए।

राज्यपाल ने वैज्ञानिक तथ्यों के साथ शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को अपनाने के फायदे गिनाये। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक कृषि का आधार भारतीय नस्ल की गाय है। जुनागढ़ विश्वविद्यालय के शोध का उद्हारण देते हुए उन्होंने कहा कि अब गाय के गौमूत्र से सोना निकालने पर शोध चल रहे हैं।

उन्होंने जानकारी दी कि गाय के एक ग्राम गोबर में करीब 300 से 500 करोड़ जीवाणु पाये जाते हैं, जो भूमि की उपजाऊ शक्ति को कई गुणा बढ़ाते हैं। उन्होंने प्राकृतिक कृषि विधि को अपनाने पर बल दिया।

आचार्य देवव्रत ने कहा कि हरित क्रांति से देश के कृषि क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव आया और हम आत्मनिर्भर हुए। यह गौरव की बात है, लेकिन हरित क्रांति का यह क्रम निरंतर जारी रहने से नुकसान भी हुआ है। हरित क्रांति के नाम पर अत्यधिक मात्रा में यूरिया, डीएपी और कीटनाशक दवाइयों का उपयोग होने से जमीन बंजर हो गई और उत्पाद स्वास्थ्य की दृष्टि से नुकसानदायक। इस क्रम को रोका जाना चाहिए।

उन्होंने वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वे आलू की ऐसी किस्में तैयार करें, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक हों और उनका उत्पादन जमीन, पर्यावरण व जल संरक्षण के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो। हम अपनी पारम्परिक कृषि को अपनाएंगे तो उत्पादन भी बढ़ेगा और आमदनी भी।

इस अवसर पर राज्यपाल ने संस्थान का ट्रेनिंग मैनुअल व वार्षिक राजभाषा पत्रिका-आलू मंजरी को जारी किया।

इससे पूर्व, संस्थान के निदेशक श्री एस.के चक्रवर्ती ने राज्यपाल का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि संस्थान ने उपयुक्त किस्में एवं तकनीकी को विकसित किया है, जिसने शीतोष्ण कटिबंधी आलू फसल को लगभग उपोष्ण कटिबंधी फसल में परिवर्तित कर इसका विस्तार करते हुए ठंडे पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर मैदानी क्षेत्रों में उत्पादन एवं उत्पादकता को बढ़ाया है।

आलू का उत्पादन वर्ष 1949-50 में 1.54 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर वर्ष 2014-15 तक 48.01 मिलियन मीट्रिक टन तक पहुंच गया है। परिणामस्वरूप, भारत आलू उत्पादन के क्षेत्र में विश्व में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गया है।

पाठ्यक्रम निदेशक श्री एन.के पाण्डेय ने कार्यक्रम की विस्तृत जानकारी दी। पाठ्यक्रम समन्वयक श्री ब्रजेश सिंह ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत किया।

देश भर से आए विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए कृषि वैज्ञानिक भी इस अवसर पर उपस्थित थे।

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