- March 8, 2015
विश्व महिला दिवस:महिलाओं के लिए आत्मचिन्तन का दिन – डॉ. दीपक आचार्य
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आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। दुनिया भर की तमाम महिलाओं के बारे में सोचने-समझने, आदर-सम्मान और श्रद्धा देने तथा महिलाओं के बहुआयामी हितार्थ कुछ करने के लिए संकल्पबद्ध होने अथवा कुछ न कुछ शुरूआत करने का दिन है।
महिला दिवस मनाने का अर्थ महिलाओं के बारे में चिंतन और उनके सर्वांगीण विकास में भागीदारी के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होकर आगे आना है।
महिलाओं के समग्र उत्थान का काम पुरुषों और महिलाओं सभी का है। किसी एक पक्ष के भरोसे यह लक्ष्य पाया जाना संभव नहीं है।
पुराने अनुभव और हकीकत तो यही बयाँ करती है कि महिलाओं के कल्याण और बहुआयामी उत्थान में जितनी भूमिका पुरुषों की रही है उसी के बराबर महिलाओं की भी होनी चाहिए तभी महिला दिवस के संकल्पों को अच्छी तरह साकार किया जा सकता है।
यह दिन सिर्फ महिलाओं को एक दिन के लिए भरपूर आदर-सम्मान और श्रद्धा से नहलाने तक सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि महिला दिवस महिलाओं के लिए भी आत्म चिंतन का दिवस है जिसमें महिलाओं के उत्थान के लिए महिलाओं की भूमिकाओं को भी सुनिश्चित करने और इस दिशा में तेजी से डग बढ़ाने भर की जरूरत है।
आम तौर पर देखा यह जाता है कि महिलाएं ही महिलाओं के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करती हैं। सास-बहू के झगड़े, ननद-भोजाई में वैमनस्यता और महिलाओं-महिलाओं के अन्तर्सम्बंधों में जो कुछ वैषम्य देखने को मिलता है उसने महिलाओं के स्वाभिमान, विकास और उत्थान की धाराओं का प्रवाह कमतर जरूर किया है।
आज महिला दिवस पर इस सच को स्वीकार करने से भले ही कोई कतराए मगर सच्चाई से मुँह मोड़ा नहीं जा सकता। इस दृष्टि से सबसे पहले महिला शक्ति को ही गहन आत्मचिन्तन कर इस स्थिति को दूर करना चाहिए।
जमीनी तथ्य तो यह है कि महिलाएं ही महिलाओं के प्रति पूर्ण संवेदनशील, हितकारी और आत्मीय भाव अपनाएं तो दुनिया में कोई कारण नहीं कि महिलाओं की कोई समस्या बनी रहे। ऎसा हो जाने पर न घर-परिवार या परिवेश में कोई समस्या रहे, न और कहीं। फिर तो अपने आप स्वर्ग जैसा माहौल बन जाए।
भारतीय परंपरा और संस्कृति में महिलाओं को जो स्थान दिया गया है वैसा दुनिया में और कोई नहीं। नारी सम्मान केवल वेद-पुराण और इतिहास का विषय ही नहीं है बल्कि सदियों से हमारे लोक जीवन और कौटुम्बिक माहौल में नारी अग्रणी और सम्माननीय रही है।
बीच की गुलामी और दिग्भ्रमित अवस्थाओं की वजह से नारी को सामाजिक सम्मान और स्वाभिमानी परंपराओं से धकियाया गया अन्यथा भारतीय सभ्यता में नारी हमेशा से सर्वोच्च रही है।
सभी युगों में नारी का महत्त्व इतना अधिक रहा है कि देवताओं से लेकर पुरुषों तक के नामों की शुरूआत नारी से ही होती रही है और नारी के बगैर इन सभी को पूर्ण तक नहीं माना गया है।
पाश्चात्य अप-संस्कृति ने नारी को भोग्या के दायरों तक सीमित कर दिया है और उसके परंपरागत वर्चस्व के साथ कुठाराघात किया है।
भारतवर्ष का इतिहास पौराणिक नारी पात्रों से भरा पड़ा है जिन्होंने उन सभी गतिविधियों में विलक्षण कौशल दिखाया और युगीन नेतृत्व करते हुए इतिहास में अमरत्व पा लिया है।
दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा पद्धति को मैकाले ने घोर ग्रहण लगा दिया। हम भी भोग-विलास और विदेशी दासत्व, अपने स्वार्थों और प्रलोभन को सामने रखकर झुकते चले गए और पाश्चात्यों का दासत्व करने में लगे रहे, इतिहास, पुराणों और परंपराओं को भुला दिया।
यही कारण है कि आज की पीढ़ी नारी के ऎतिहासिक और गरिमामय व्यक्तित्व से नावाकिफ है। वर्तमान पीढ़ी को पता ही नहीं है कि भारतभूमि में ऎसी-ऎसी सन्नारियां पैदा हुई हैं जिन्होंने समाज को संस्कारों से सिंचा, ऋषि परंपरा को आगे बढ़ाया, राज-काज और सैन्य संचालन किया और ऎस-ऎसे विलक्षण और अद्वितीय कार्य कर दिखाये, जो कि पुरुषों के बस में भी नहीं थे।
आज पूरी दुनिया विश्व महिला दिवस मनाते हुए महिलाओं का गुणगान कर रही है, महिलाओं के उत्थान के वादों और दावों का परचम लहरा रही है, नारों और स्लोगन्स सेे आसमान गूंजा रही है लेकिन दुनिया को पता नहीं है कि भारत में महिलाओं का वर्चस्व और सामाजिक जीवन में स्थान इतना सर्वोच्च रहा है कि पूरा वर्ष भर महिलाओं के हाथों में ही है।
ये महिलाएं अपने कर्मयोग से घर-परिवार, खेती-बाड़ी, काम-धंधों से लेकर उन सभी कामों के जरिये देश चला रही हैं जो महिला विकास और उत्थान के दायरों में आते हैं।
कुछ अपवाद सभी जगह और वर्ग में हो सकते हैं लेकिन परंपरागत और सनातन प्रवाह से भरे भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिलाओं को हमेशा ही अग्रणी माना जाता रहा है।
पाश्चात्यों की वजह से अनुशासन और मर्यादाओं को तिलांजलि देने वाले स्वच्छन्दजीवी और उन्मुक्त लोगों को छोड़ दिया जाए तो हमारी परंपरा महिलाओं को सदैव सम्मान और आदर के साथ ही देखती रही है।
आज के दिन महिला कल्याण के लिए भारतीय परंपराओं पर जोर देना होगा और नारी सम्मान के शाश्वत मूल्यों के रंगों को और अधिक शौख चटख करना होगा। महिलाओं को भी सोचना होगा कि महिला कल्याण में उनकी क्या भूमिका हो सकती है।
इसके साथ ही महिलाओं को देश में विकास और तरक्की की मुख्य धारा में लाए जाने के लिए भाषणों की बजाय ठोस निर्णयों की जरूरत है। इनमें कन्याओं के जन्म पर कम से कम दस लाख की राशि का प्रावधान करने, सभी अकेली महिलाओं, परित्यक्ताओं और विधवाओं को किसी न किसी नौकरी या आत्मनिर्भरतापरक स्वरोजगार से जोड़ा जाकर उन्हें सुरक्षित भविष्य दिया जा सकता है। शिक्षा और रोजगार से जोड़े जाने पर महिला उत्थान के सारे लक्ष्यों को वर्ष भर के भीतर पाया जा सकता है। सरकारें निरन्तर इस दिशा में प्रयासरत हैं।
हम सभी को चाहिए कि बची-खुची पौरुषी मानसिकता छोड़कर महिला दिवस को सार्थक करने में अपनी भूमिकाएं निभाएं ताकि अगले वर्ष महिला दिवस तक पहुँचते-पहुँचते हम यह कह पाने की स्थिति में हों कि महिला उत्थान में हमारी सशक्त भागीदारी ने उपलब्धियों का ग्राफ दिखाया है।