- September 25, 2015
विलक्षण गायत्री साधक – बण्डू महाराज : – डॉ. दीपक आचार्य
शैव, शाक्त और वैष्णव उपासना धाराओं के साथ ही वैदिक परम्पराओं और प्राच्यविद्याओं का गढ़ रहा राजस्थान का दक्षिणांचलीय जिला बाँसवाड़ा धर्म-कर्म के क्षेत्र में पूरे भारतवर्ष में अनूठा स्थान रखता है। पुरातन काल में ऋषि-मुनियों और सिद्ध संतों की तपस्या से अनुप्राणित इस अंचल में प्राचीन काल से संत-महात्माओं और महन्तों की लम्बी श्रृंखला विद्यमान रही है।
हिन्दुस्तान का यह इलाका तंत्र-मंत्र, ज्योतिष और साधनात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यहां विभिन्न पद्धतियों के एक से बढ़कर एक साधक हुए हैं जिनकी तपस्या की बदौलत इस अंचल को धर्म धाम ‘लोढ़ी काशी’ के रूप में मान्यता मिली हुई है।
शाक्त उपासना में अग्रणी रहा है माही प्रदेश
माही मैया की स्नेह धारा से घिरे यहाँ के साधना जगत में कई ऎसी हस्तियां हुई हैं जिन्होंने कठोर तपस्या कर ईश्वरीय कृपा का साक्षात्कार किया है। यही परम्परा आज भी न्यूनाधिक रूप में चली आ रही है। वागड़ प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध बांसवाड़ा क्षेत्र आदिकाल से गायत्री साधना में अग्रणी रहा है। कई-कई बार पुरश्चरण करने वाले गायत्री साधकों की बांसवाड़ा में कोई कमी नहीं रही।
मालवा से निकला रत्न
आस्था और पुण्य संचय परम्परा की इसी कड़ी में एक नाम है – पं. विजय कुमार त्रिवेदी, जो बांसवाड़ा शहर के पूर्वी छोर पर अवस्थित प्राचीन आस्था स्थल वनेश्वर शिवालय परिसर स्थित गायत्री मन्दिर में अनवरत् तपस्या लीन हैं। बालसुलभ स्वभाव से परिपूर्ण पं. विजय त्रिवेदी अब तक करीब दो करोड़ गायत्री जप पूर्ण कर चुके है। फक्कड़ी साधक होने के कारण वे ‘बण्डू महाराज’ के नाम से मशहूर हैं।
गायत्री साधना ही जीवन का ध्येय
पं. विजयकुमार त्रिवेदी का जन्म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिलान्तर्गत रम्भापुर में संस्कारित ब्राह्मण परिवार में श्री मधुसूदन त्रिवेदी के घर माता चन्द्रकान्ता देवी की कोख से ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा परम द्वितीया तदनुसार 21 मई 1939 को हुआ।
शैशव के ब्राह्मण संस्कारों की वजह से संध्या और गायत्री साधना का नियम पाले हुए पं. विजय कुमार त्रिवेदी पर ईष्ट देवी की इतनी कृपा हुई कि उन्होंने ताजिन्दगी गायत्री साधना का अखण्ड व्रत ले लिया। धुन के पक्के पं. त्रिवेदी ने अहर्निश गायत्री उपासना को ही अपने समग्र जीवन का सर्वोपरि ध्येय बना लिया है। सन् 1956 से उन्होेंने रोजाना ग्यारह माला गायत्री जप शुरू किया जो अब तक अखण्ड बना हुआ है।
भूगोल के विशेषज्ञ
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से सन् 1963 में दर्शन शास्त्र, राजनीति एवं भूगोल ग्रेजुएशन करने वाले पं. विजयकुमार त्रिवेदी देश-दुनिया के भूगोल के बारे में विशेषज्ञ हैं। दिल्ली में एलेम्बिक केमिकल तथा जनरल इंश्योरेन्स में नौकरी करने के दौरान् व्यस्तताओं के बावजूद उनकी गायत्री साधना बरकरार रही। कड़ी मेहनत के हामी रहे बण्डू महाराज अस्सी के दशक में बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ व पूरे जनजाति क्षेत्र को साईकिल से नाप चुके हैं जब संजीवनी खाद की पब्लिसिटी उनके पास थी।
साधना के साथ सेवा व्रत
गायत्री साधना के लिए उन्होंने वनेश्वर शिवालय के गायत्री मन्दिर को साधना केन्द्र बनाया। इसके साथ ही उन्होंने लोक सेवा का दामन थामा। इसी लोक सेवी व्यक्तित्व को देखते हुए उन्हें वनेश्वर शिवालय परिसर में संचालित मानस भवन के व्यवस्थापक का दायित्व सौंपा गया। अपनी साधना के साथ ही उन्होंने बरसों तक इस पद का बखूबी निर्वाह किया।
गायत्री माता के अनन्य उपासक
गायत्री मन्दिर के गर्भ गृह में गायत्री मैया की मूर्ति के सान्निध्य में उन्होंने सन् 2002 में 24 लाख गायत्री जप का संकल्प लेकर पुरश्चरण आरंभ किया। इसके बाद सन् 2014 तक उन्होंने निरन्तर गायत्री साधना करते हुए पूर बारह साल तक फलाहारी व दुग्धाहारी रहकर 24-24 लाख गायत्री मंत्र के 7 और सवा-सवा लाख गायत्री मंत्र के 4 पुरश्चरणों को मिलाकर अब तक 11 पुरश्चरण सम्पन्न कर लिए हैं। इनमें 24 लाख गायत्री मंत्र का एक तथा सवा लाख गायत्री मंत्र के 2 पुरश्चरण उन्होंने आठ-नौ घण्टे तक खड़े रहकर पूर्ण किए हैं। गायत्री साधना का उनका यह क्रम पिछले कई दशक से न्यूनाधिक रूप में जारी है।
अलौकिक अनुभवों का दिग्दर्शन
गायत्री साधना की लम्बी यात्रा में उन्हें कई बार दिव्य शक्ति और विभूति दर्शन का अनुभव हुआ। ख़ास बात यह है कि साधना से उनका शरीर आरोग्यवान बना होने के साथ ही तपस्या का ब्रह्म तेज उनके चेहरे से साफ झलकता है। इस सबको वे भगवती गायत्री की कृपा ही मानते हैं।
पं. विजय कुमार त्रिवेदी गायत्री साधना की प्रेरणा देने वाले अपने पिता व माता की तस्वीर भी साधना कक्ष में साथ रखते हैं। उनका मानना है कि इससे उन्हें प्रेरणा और आशीर्वाद का अनुभव होता है। वे कहते हैं कि पृथ्वी के सबसे समीप पितर लोक है और जब तक पितरों की कृपा नहीं होती तब तक ऊपर के लोेकों की निर्बाध यात्रा का सफर पूरा नहीं हो सकता।
स्वप्न ने दृढ़तर की आस्था
अपने जीवन में वैराग्य भाव की दृढ़ता और गायत्री साधना के प्रति अगाध आस्था भाव रखने के पीछे उनके जीवन का एक स्वप्न मददगार साबित हुआ।
वे बताते हैं कि एक बार स्वप्न में उन्हें किसी भयंकर कृत्या के दर्शन हुए जो भयानक स्वरूप के साथ उन्हें खा जाने के लिए सामने आयी लेकिन स्वप्न में उन्होंने पाँच बार गायत्री मंत्र का उच्चारण किया इससे वह कृत्या भस्मीभूत हो गई। सवेरे उठने पर उन्हें यह स्वप्न याद रहा।
उसी दिन से उन्होंने महसूस किया कि स्वप्न में गायत्री जप से ऎसा चमत्कार हो सकता है तब गायत्री साधना को और अधिक बढ़ाया जाए तो भगवती की अपार कृपा पायी जा सकती है। तभी से उनका चित्त साधना में दृढ़ होता चला गया और उन्हें बड़े-बड़े पुरश्चरण करने में कामयाबी मिली। कभी कोई अड़चन सामने नहीं आयी।
तंत्रमर्मज्ञ पं. महादेव शुक्ल उनके साधना-गुरु
पं. विजय त्रिवेदी अपनी साधना की सफलता में वयोवृद्ध प्राच्यविद्यामर्मज्ञ रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मर्षि पं. महादेव शुक्ल को साधना-गुरु मानते हैं। वे कहते हैं कि साधना मार्ग पर सफलता का राज और सामने आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्ति के नुस्खे उन्हें पं. शुक्लजी से मिले और इसी का परिणाम है कि वे साधना पथ पर अडिग रहते हुए निरन्तर रमे हुए हैं।
दक्षिणांचल में गायत्री साधना के लिए दशकों से प्रयासरत संस्था गायत्री मण्डल ने उनकी गायत्री साधना की उपलब्धियों को देखकर ‘‘गायत्री’’ उपनाम व अलंकरण से सम्मानित किया और ‘ब्रह्मर्षि’ की पदवी प्रदान की। अनेक बार विद्वानों और धार्मिक संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। बण्डू महाराज का समग्र जीवन व गायत्री उपासना एक दूसरे के पर्याय ही हो गए हैं।
देशाटन में गहरी रुची
यायावरी उनके व्यक्तित्व की ख़ासियत है। एक पुरश्चरण पूरा होने के बाद तीर्थाटन करने की उनकी आदत 77 वर्ष की आयु में भी कायम है। फक्कड़ी आनंद के धनी बण्डू महाराज अपने गृहस्थ जीवन में भी घुमक्कड़ स्वभाव के रहे हैं। नई दिल्ली, अहमदाबाद, भुज, राणापुर, उज्जैन, थाँदला, झाबुआ, रंभापुर, मेघनगर, सौराष्ट्र सहित देश के विभिन्न हिस्सों में उनकी कारोबारी का क्रम अर्से तक बना हुआ रहा है।
परिवारजनों की यह उदारता ही है कि उनकी बदौलत बण्डू महाराज ने भरा-पूरा गृहस्थ धर्म निभाते हुए भी अपना अधिकांश समय त्याग-तपस्या को दे रखा है।
गायत्री के अनन्य साधक पं. विजयकुमार त्रिवेदी की दिली इच्छा है कि बांसवाड़ा में वेद व पौरोहित्य शिक्षा का महाविद्यालय स्थापित हो। उनकी गायत्री साधना नई पीढ़ी के साधकों के लिए प्रेरणा स्रोत है।