- March 28, 2016
विदेशी निवेशकों (एफआईआई) के सामने देशी निवेशक भकलोल
देशी निवेशकों को विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। भारतीय बाजार में कब निवेश करना है और कब निकालना है, इसमें तो एफआईआई माहिर हैं ही, उतार-चढ़ाव में पैसा कमाने में भी उनका सानी नहीं है। उनके उलट देशी निवेशक आम तौर पर उस वक्त लिवाली करते हैं, जब एफआईआई ऊंचे भाव पर शेयर बेच रहे होते हैं। नतीजतन देशी निवेशकों के पास कमाई की बहुत गुंजाइश नहीं रहती।
उदाहरण के तौर पर मौजूदा तेजी उन शेयरों में आई है, जिसे 2012 और 2013 की पहली छमाही में एफआईआई ने खरीदा था और उस समय बीएसई 500 कंपनियों का पीई (प्रासइ टु अर्निंग) गुणक कई साल के निचले स्तर पर था। इसके उलट, म्युचुअल फंडों और बीमा कंपनियों के मार्फत घरेलू निवेशकों ने ज्यादातर खरीद 2015 में उस समय की गई थी, जब बीएसई 500 कंपनियों के शेयर कई वर्षों के उच्च पीई पर कारोबार कर रहे थे। संक्षेप में कहें तो एफआईआई ने भारत की शीर्ष सूचीबद्ध कंपनियों के शेयर औसतन 16 गुना पीई पर खरीदे थे और देसी निवेशकों को वही शेयर 24 गुने पर बेचे थे।
कुल मिलाकर देखें तो बीएसई 500 कंपनियों में एफआईआई की हिस्सेदारी मार्च 2012 से मार्च 2015 के बीच 550 आधार अंक बढ़ी, जिसकी औसत खरीद कीमत पिछले 12 महीनों में कंपनियों की समेकित शुद्घ मुनाफे के 16 गुना पीई पर की गई थी।
मार्च 2015 तिमाही में एफआईआई की हिस्सेदारी सर्वाधिक थी और उसी समय बीएसई 500 कंपनियों का मूल्यांकन भी उच्चतम स्तर पर था। यह विश्लेषण बीएसई 500 कंपनियों की मार्च 2006 तिमाही की शुरुआत से माार्च 2015 में खत्म तिमाही में शेयरधारिता प्रारूप, बाजार पूंजीकरण और तिमाही शुद्ध मुनाफा पर आधारित है। यह नमूना 358 कंपनियों के आंकड़ों पर आधारित हैं और पूरी अवधि के दौरान आंकड़ों की तुलना की गई है।
एमके ग्लोबल फाइनैंशियल सर्विसेज के संस्थागत इक्विटी प्रमुख धनंजय सिन्हा ने कहा, ‘2012-13 में जब एफआईआई खरीदारी कर रहे थे, तब बीमा कंपनियों और म्युचुअल फंडों की योजनाओं को भुनाया जा रहा था। इसकी वजह से कोष प्रबंधकों को अपने शेयर कम भाव पर ही बेचने पड़े।
नरेंद्र मोदी के प्रभाव के कारण 2014 के अंत में और 2015 में घरेलू खुदरा निवेशकों से धन का प्रवाह वापस शुरू होने के बाद खरीदारी शुरू की गई।’ तुलनात्मक रूप से देखें तो एफआईआई को अपनी रकम का बड़ा हिस्सा यूरोप और अमेरिका के बड़े संस्थागत निवेशकों से मिलता है, जो लंबी अवधि को ध्यान में रखकर निवेश करते हैं।
कुछ विश्लेषक एफआईआई और घरेलू निवेशकों के निवेश चक्र में अंतर को भी इसकी वजह बताते हैं। इक्विनॉमिक्स रिसर्च ऐंड एडवाइजरी के संस्थापक एवं मुख्य कार्याधिकारी जी चोकालिंगम ने कहा, ‘एफआईआई का निवेश ज्यादातर फंडामेंटल और शोध आधारित होते हैं, वहीं घरेलू निवेशक बाजार की धारणा और लोगों के मनोभाव के आधार पर निवेश करते हैं।’ उन्होंने कहा कि इसी वजह से घरेलू निवेशक बाजार से पैसा बनाने में आम तौर पर विफल रहते हैं।
इसी तरह का चलन वित्तीय संकट से पहले की तेजी के दौरान दिखा था, जब सितंबर 2008 तक करीब दो साल के लिए एफआईआई शुद्घ बिकवाल थे और देसी निवेशक लिवाली कर रहे थे। हालांकि इडलवाइस कैपिटल के अध्यक्ष और मुख्य कार्याधिकारी (ग्लोबल ऐसेट एवं वेल्थ मैनेजमेंट) नितिन जैन ने कहा कि इसका कोई प्रमाण नहीं है कि घरेलू निवेशक विदेशी समकक्षों की तुलना में कहीं से भी कम चतुर हैं।
उन्होंने कहा, ‘हमें सभी एफआईआई को एक ही नजरिये से नहीं देखना चाहिए। एक्सचेंज ट्रेेडेड फंड में आमतौर पर खुदरा पैसा लगता है और यह उतार-चढ़ाव और धारणा आधारित होता है, जिसमें घरेलू निवेशक और म्युचुअल फंडों द्वारा निवेश किया जाता है। दूसरी ओर एफआईआई के पास सॉवरिन वेल्थ फंड और पेंशन से पैसा आता है, जो दीर्घावधि में निवेश के अनुकूल होते हैं।’
(कृष्ण कांत)