- May 4, 2019
रेहाना बेगम की जीत, बंधुआ मजदूरों को साहस
ड्यू.काम —————– 1976 में बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अभियान शुरू करने वाले भारत में आज भी गुलाम मजदूरों को जिला प्रशासन के सामने साबित करना पड़ता है कि वे बंधुआ मजदूर हैं.
क्या रेहाना बेगम की जीत, बंधुआ मजदूरों को साहस दे सकेगी ?
रेहाना बेगम काम की तलाश में दिल्ली आईं. इसके बाद क्या हुआ यह बताते हुए वह कहती हैं, “मालिक ने मुझे नौकरी और डेरा देने का वादा किया. उसने सार्वजनिक शौचालय के बगल में एक झोपड़ी बना दी और मुझसे कहा कि किराया देने के बदले मुझे टॉयलेट साफ करना होगा. मैं हर रोज 16 घंटे काम करने लगी लेकिन तीन साल तक मुझे कोई पैसा नहीं दिया गया.”
रेहाना के मुताबिक, “मालिक ने कहा कि अगर मैं टॉयलेट साफ नहीं करुंगी तो वह मुझे कभी कोई पैसा नहीं देगा. मुझे डर लगा कि अगर मैंने ये काम छोड़ा तो कहीं मैं अपनी सारी कमाई न खो दूं. मुझे पता नहीं था कि बंधुआ मजदूरी क्या होती है.”
2016 में भारत सरकार ने बंधुआ मजदूरी झेलने वाले लोगों के लिए मुआवजे और पुनर्वास की योजना लागू की. बंधुआ मजदूर पुनर्वास योजना 2016 आने के बाद कई संस्थाओं ने जागरुकता अभियान भी शुरू किए.
रेहाना की मुलाकात कार्यकर्ताओं से हुई. रेहाना के मुताबिक उसे अगर बंधुआ मजदूरी के खिलाफ जागरुकता फैलाने वाले कार्यकर्ता नहीं मिले होते, तो आज भी वह बिना पैसे के टॉयलेट साफ कर रही होती.
बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय अभियान छेड़ने वाले समिति के संयोजक निर्मल गोराणा कहते हैं, “जब हम उससे पहली बार मिले तो वह इस बात से दुखी थी कि लोग टॉयलेट को कितना गंदा करके छोड़ते हैं. उसने बताया कि कई सालों से उसे इस काम के बदले पैसा भी नहीं मिला है.”
इसके बाद ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के वकीलों ने रेहाना की मदद की. उसने वह काम छोड़ दिया. काम छोड़ा तो वह झोपड़ी भी चली गई जिसमें रेहाना अपने पति के साथ रहती थी. बकाया पाने के लिए रेहाना ने अदालत का रुख किया. इससे नाराज मालिक ने रेहाना के पति की चाय की रेहड़ी तोड़ दी. पति बेरोजगार हो गया. गोराणा कहते हैं, “यह शर्मनाक है कि बचाए गए कामगारों को मुआवजे के लिए अदालत जाना पड़ता है.”
दो साल की कानूनी लड़ाई के बाद रेहाना बेगम को मुआवजे के तौर पर 1.80 लाख रुपये मिले हैं. इसकी जानकारी निचली अदालत ने दिल्ली हाई कोर्ट को दी है. रेहाना के मुताबिक, मुआवजा बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन फिर भी इससे मदद मिलेगी, “अब मैं आजाद हूं लेकिन मुझे नौकरी चाहिए. मुझे एक घर चाहिए.”
2016 की योजना के बाद भारत में बंधुआ मजदूरी के मामले में यह सबसे ज्यादा मुआवजा पाने वाला मामला है. बंधुआ मजदूर पुनर्वास योजना 2016 के मुताबिक, बंधुआ मजदूरी कर चुके लोग मुआवजे के हकदार हैं, लेकिन पूरा भुगतान तभी होगा जब अदालत का फैसला आएगा.
भारत में अदालत का फैसला आने में कई साल गुजर सकते हैं.
योजना के तहत मुक्त कराए गए वयस्क बंधुआ मजदूरों को एक लाख रुपये से तीन लाख रुपये तक की राशि उपलब्ध कराई जानी है. यह राशि नगद और सीधे उनके बैंक खाते में जारी करने का प्रावधान है.
मुक्त कराए गए बंधुआ मजदूरों के लिए घर का निर्माण, खेती के लिए जमीन का आवंटन या आजीविका चलाने के लिए अन्य लाभ दिए जाने के प्रावधान पहले से हैं. कौन बंधुआ मजदूर की श्रेणी में आता है और कौन नहीं, यह तय करना जिला दंडाधिकारी के दायरे में आता है.
भारत में बंधुआ मजदूरी के खात्मे के लिए पहली बार कानून 1976 में बना था. कानून में बंधुआ मजदूरी को अपराध की श्रेणी में रखा गया था. साथ ही बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराए गए लोगों के आवास व पुर्नवास के लिए दिशा निर्देश भी इस कानून का हिस्सा हैं. लेकिन चार दशक बाद भी बंधुआ मजदूरी से जुड़े मामले आते रहते हैं. कई शोध रिपोर्टों के मुताबिक भारत में ईंट भट्ठों, मिलों, घरेलू काम काज, देह व्यापार और कृषि क्षेत्र में बंधुआ मजदूरों की संख्या अच्छी खासी है.
(बाल मजदूरी के सहारे चलने वाले उद्योग)
कॉफी
विश्व श्रम संगठन के मुताबिक कृषि क्षेत्र में बाल मजदूरी सबसे ज्यादा है. कोलंबिया, तंजानिया, केन्या, यूगांडा, मेक्सिको, निकारागुआ, डोमिनिक रिपब्लिक, होंडुरास, पनामा, अल सल्वाडोर, गिनी और आइवरी कोस्ट में लाखों बच्चे कॉफी की खेती में झोंके जाते हैं.
कपास
दुनिया के कई देशों में कपास तोड़ने के लिए बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है. एक गैरसरकारी संगठन कॉटन कैंपेन के मुताबिक उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान में हजारों बच्चे जबरन इस काम में धकेले गए हैं.
ईंट
अमेरिकी श्रम विभाग के मुताबिक 15 देशों में बच्चे ईंट उद्योग में काम कर रहे हैं. इन देशों में अर्जेंटीना, चीन, ब्राजील, इक्वाडोर, उत्तर कोरिया, भारत और पेरु का नाम शामिल है.
कपड़ा उद्योग
कोलंबिया और बांग्लादेश इस मामले में बदनाम हैं. हाल के समय में तुर्की में भी सीरिया के शरणार्थी बच्चों को जूते के कारोबार में झोंका गया.
गन्ना उद्योग
फिलीपींस, ग्वाटेमाला और कंबोडिया में हजारों बच्चों की जिंदगी गन्ने के खेतों में गुजरती है. विश्व श्रम संगठन के मुताबिक फिलीपींस में तो सात साल के बच्चे भी गन्ने के खेतों में पसीना बहाते दिखाई पड़ते हैं.
तंबाकू
बहुत ही गर्म माहौल में कई घंटों तक काम, खतरनाक रसायनों के बीच बैठे रहना और भारी वजन ढोना और जानवरों के हमले झेलना, तंबाकू सेक्टर में काम करने वाले बच्चे ऐसी ही जिंदगी जीते हैं. तंबाकू उद्योग में काम करने वाले बाल मजदूर औसतन 10 घंटा प्रतिदिन काम करते हैं.
सोना
सोने की खदान में बच्चे, अफ्रीका के कुछ देशों में ऐसा नजारा आम है. टीबी, मेनिनजाइटिस और मलेरिया के खतरे के बावजूद बच्चों को खदान में उतारा जाता है. छोटे बच्चे खदान में काफी भीतर तक जा सकते हैं, इसीलिए उन्हें ही खदानों में उतारा जाता है. हर साल सैकड़ों बच्चे खदानों में मारे जाते हैं.