• December 7, 2014

रेस्तराओं और होटलों की सुविधाओं पर सेवा कर असंवैधानिक – केरल उच्च न्यायालय

रेस्तराओं और होटलों की सुविधाओं पर सेवा कर  असंवैधानिक – केरल उच्च न्यायालय

केरल क्लासीफाइड होटल्स एण्ड रिसॉट्र्स एसोसिएशन व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य (2013- टीआईओएल-533-एचसी-केरल-एसटी) मामले में दिए गए आदेश में केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि रेस्तराओं द्वारा भोजन व पेय पदार्थों की आपूर्ति और होटलों द्वारा दी जा रही रहने की सुविधा पर सेवा कर लगाना असंवैधानिक हैं।
उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई याचिकाओं में रेस्तराओं और होटलों से जुड़े दो खास सौदे शामिल थे और उच्च न्यायालय से इन सेवाओं पर केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए सेवा कर की संवैधानिक वैधता पर फैसला मांगा गया था।

याचिका में पूछा गया पहला सवाल था कि क्या केंद्र सरकार को रेस्तराओं द्वारा बेचे जाने वाले खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों में शामिल सेवा हिस्से पर सेवा कर वसूलने का संवैधानिक अधिकार है। भारतीय संविधान के अनुसार 46वें संशोधन की मदद से ‘उत्पादों की खरीद एवं बिक्री पर करÓ की परिभाषा को विस्तार दिया गया था। इस संशोधन के तहत अनुच्छेद 366 में प्रावधान 29ए जोड़ा गया था। इस प्रावधान के अनुसार, ‘(एफ) किसी सेवा के जरिये या उसके हिस्से या अन्य किसी तरीके से मनुष्य के उपयोग के लिए की गई उत्पादों की आपूर्ति मसलन खाद्य पदार्थ या पेय पदार्थ (नशीला हो या नहीं) पर कर ….”

उच्चतम न्यायालय के फैसले बने आधार
रेस्तराओं में होने वाली खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों की बिक्री पर लगने वाले सेवा कर को असंवैधानिक बताने का फैसला उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के एक संवैधानिक पीठ द्वारा सुनाए गए एक फैसले के आधार पर किया। उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला के दामोदरसामी नायडू एवं ब्रदर्स बनाम तमिलनाडु (2002-टीआईओएल-884-एससी-सीटी-सीबी) मामले पर दिया था। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अनुच्छेद 366(29ए)(एफ) राज्य सरकार को यह अधिकार देता है कि वह सेवा के जरिये या सेवा के हिस्से के तौर पर की जा रही खाद्य और पेय पदार्थों की आपूर्ति पर सेवा कर लगा सकती है। उत्पादों की इस तरह आपूर्ति या स्थानांतरित डिलिवरी को उन उत्पादों की बिक्री मान लिया जाता है और ऐसी बिक्री में सेवा का प्रावधान जुडऩा लाजिमी है। इसी के अनुसार यह माना गया कि किसी रेस्तरां में ग्राहक द्वारा भोजन करने के एवज में किए गए भुगतान को बांटा नहीं जा सकता है।

 याचिका में पूछा गया दूसरा सवाल था कि क्या वित्त अधिनियम 1994 की धारा 65(105) (जेडजेडजेडजेडडब्ल्यू) के तहत केंद्र सरकार के पास होटल में दी गई रहने की सुविधा पर सेवा कर लगाने का संवैधानिक अधिकार है? यह धारा वित्त अधिनियम 2011 के जरिये पेश की गई और 1 मई 2011 से लागू की गई है।
इस मामले में संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी गई कि भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की 62वीं प्रविष्टिï (सूची 2)में राज्य सरकार को ही यह विशिष्टï अधिकार है कि वह ‘लक्जरीÓ सेवाओं पर कर लगा सकती है। इस मामले में केरल उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक पीठ के एक अन्य ऐतिहासिक फैसले को अपने फैसले का आधार बनाया। गोडफ्रे फिलिप्स इंडिया लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2005-टीआईओएल-10-एससी-एलटी-सीबी) में उच्चतम न्यायालय ने ‘लक्जरी’ शब्द को परिभाषित किया।

हुआ ‘लक्जरी’ की परिभाषा का विस्तार

उच्चतम न्यायालय के अनुसार लक्जरी को मनोरंजन या विलासिता की वे गतिविधियां, जिन पर काफी खर्च होता है या वे गतिविधियां, जो समाज के औसत आदमी की अनिवार्य जरूरतों के इतर हो, उन्हें लक्जरी कहा जाता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई लक्जरी की विस्तृत परिभाषा को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि होटल वगैरह पर सेवा कर लगाकर केंद्र सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकार क्षेत्र के बाहर कदम रखा है और इसके अनुसार ही उसका यह कदम असंवैधानिक कहा जाएगा।

 यहां इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि संविधान का 46वां संशोधन, जिसके जरिये अनुच्छेद 366 में प्रावधान 29ए जोड़ा गया, उसमें 6 सौदे शामिल थे, जिन्हें उत्पादों की खरीद और बिक्री का सौदा करार दिया गया।

आदेश से फिर खुलेंगे पुराने मामले!

केरल उच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद शायद पुराना विवाद फिर सतह पर लौट आए। क्या इसी आधार पर उस कार्य समझौतों के लेनदेन पर भी सेवा कर लगाया जा सकता है, जहां खरीदार की मंशा सिर्फ खरीदारी करने की थी। मसलन निर्मित इमारत और निर्मित इमारत के प्रति वर्ग फुट के आधार पर होने वाले भुगतान को चुनौती दी जा सकती है? इमारत के खरीदार को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि डेवलपर ने इमारत के निर्माण में किन सेवाओं का इस्तेमाल किया है बल्कि उसकी दिलचस्पी महज पूरी हो चुकी इमारत में है।

ऐसे में क्या केंद्र सरकार उन सेवाओं पर कर लगा सकती है, जो कार्य समझौते में दी गई हैं जबकि इस लेनदेन को संविधान में दी गई परिभाषा के अनुसार बिक्री माना गया है? अनुच्छेद 366 में प्रावधान 29ए इसलिए जोड़ा गया था क्योंकि विशेषज्ञों को इस बात की जरूरत महसूस हुई कि उन लेनदेन को स्पष्टï तरीके से घोषित किया जाए, जिन्हें बिक्री माना गया है नहीं तो उत्पादों की बिक्री और सेवाओं की बिक्री के वर्गीकरण में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस परिस्थिति से एक और सवाल सामने आता है, वह यह कि क्या संविधान में ऐसा ही एक प्रावधान नहीं होना चाहिए, जिसमें ऐसे सौदों के अन्य हिस्से को केंद्र सरकार के कर के जाल में लाने से पहले ही सेवा माना जाए या घोषित कर दिया जाए?

लेखक पीडब्ल्यूसी इंडिया के लीडर (अप्रत्यक्ष कर व्यवहार) हैं। साथ में तजिंदर सिंह।

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