रेबड़ियों पर केंद्रित होता दिल्ली चुनाव : सुरेश हिंदुस्तानी

रेबड़ियों पर केंद्रित होता दिल्ली चुनाव :  सुरेश हिंदुस्तानी

सुरेश हिंदुस्तानी—————- देश की राजधानी दिल्ली में चुनावी घमासान के बीच रेबड़ी बांटने की प्रतिस्पर्धा सी चलती दिखाई दे रही है। इससे ऐसा लगता है कि अब दिल्ली राज्य की सत्ता तक पहुँचने का मार्ग केवल रेबड़ी ही है। दिल्ली राज्य के लिए होने वाले चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दल मतदाताओं के लिए लोक लुभावन तरीके से अपने पिटारे से रेबड़ी बांटने की योजना जनता के बीच बता रहे हैं। इसके लिए आम आदमी पार्टी तो पहले से ही अपने पिटारे को खोलकर बैठी है। अब इसमें कांग्रेस और भाजपा भी अपने कदमों को उसी ओर बढ़ाने की ओर प्रवृत हुई है, जिस ओर आदमी पार्टी जाती रही है। लेकिन एक तथ्य ध्यान देने योग्य माना जा सकता है कि आम आदमी पार्टी के पास कुछ भी नया नहीं है, क्योंकि वह पिछले चार विधानसभा चुनावों से इस राह पर चल रही है। मुफ्त में देने के वादे करना एक प्रकार से आम आदमी पार्टी की फितरत ही बन गई है। इससे अलग अपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि यह मार्ग उसके लिए लाभकारी साबित रहा है। इसलिए आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल इस बार यह पूरा विश्वास है कि इस बार भी बाजी उन्हीं के हाथ लगेगी।

वर्तमान में दिल्ली राज्य के लिए हो रहे चुनाव प्रचार में राजनीतिक दलों के नेताओं की ओर से जो स्वर मुख़रित हो रहे हैं, उन स्वरों में केवल रेबड़ी की ध्वनि ही गुंजायमान हो रही है। ऐसा लगता है कि अब दिल्ली की जनता रेबड़ी लूटने की आदी हो चुकी है। इसका राजनीतिक आशय यह भी निकाला जा सकता है कि अपना नायक चुनने के लिए किसकी रेबड़ी स्वार्थ की पूर्ति करने वाली है, यह ही देखा जाएगा। इस कवायद को लालच देकर वोट प्राप्त करने का एक माध्यम भी माना जा सकता है, क्योंकि जनता को मुफ्त में खजाना लुटाना किसी भी प्रकार से न्याय संगत नहीं माना जा सकता। क्योंकि इसका बोझ उस समाज पर आता है, जो योजना का लाभ लेने के पात्र नहीं होते। हालांकि सरकार द्वारा आम जनता का ध्यान रखना चाहिए, लेकिन इसके लिए मुफ्त की योजना के अलावा अन्य तरीके अपनाए जाएं तो बेहतर होगा। नहीं तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि यही योजनाएं विकास की योजनाएं न होकर विनाशकारी मार्ग तैयार कर सकती हैं।

दिल्ली में एक दशक पहले भाजपा और कांग्रेस के बीच ही चुनावी लड़ाई होती रही थी, लेकिन कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के विरोध में एक धूमकेतु की तरह अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन कर दिया और लोक लुभावने वादे करके आम जनता का छप्पर फाड़ समर्थन प्राप्त करके दिल्ली के सिंहासन को अपने कब्जे में ले लिया। इस चुनाव में बहुकोणीय मुकाबला होने की झलक दिखाई दे रही है। आम आदमी पार्टी ने गठबंधन को धता बताकर अपने आपको फिर से मैदान में उतारा है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी परेशानी यह है कि उसके नेता अरविन्द केजरीवाल पर भ्रष्टाचार करने का आरोप है। साथ ही ऐसा कहना भी समुचित ही होगा कि केजरीवाल की कथनी और करनी में ज़मीन आसमान का अंतर है। एक समय सुविधाओं को त्याग कर राजनीति करने की कसम खाने वाले केजरीवाल की जीवनशैली सुविधामय होती दिखाई दे रही है। शीशमहल के नाम से भाजपा द्वारा प्रचारित किए गए उनके आवास में लकजरी सुविधाएं हैं। जो उनके कथन से कतई सरोकार नहीं रखती। ऐसे में यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि इस बार केजरीवाल की राह उतनी आसान नहीं कही जा सकती, जो पहले थी। दूसरी बड़ी बात यह भी है कि इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी के समक्ष गंभीर चुनौतियाँ भी हैं। केजरीवाल जमानत पर बाहर हैं। वे दोष मुक्त नहीं हुए। उनका मुख्यमंत्री कार्यालय जाने पर प्रतिबन्ध उसी समय लगा दिया है, ज़ब वे मुख्यमंत्री थे, ऐसी स्थिति में केजरीवाल फिर से दिल्ली के मुख्यमंत्री बनेंगे, इसकी गुंजाइस भी नहीं है।

आम आदमी पार्टी के समक्ष एक बड़ी चुनौती यह भी है कि इस बार के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के अलावा बहुजन समाज पार्टी और औवेसी की पार्टी भी मैदान में है। यह दोनों राजनीतिक दल जितने प्रभावी होंगे, उसका खामियाजा आप आदमी पार्टी को ही होगा। एक गणित यह भी है कि पिछले चुनाव में अंदरूनी तौर पर कांग्रेस पार्टी का समर्थन आम आदमी पार्टी को मिला था, लेकिन इस बार पूरी गंभीरता के साथ कांग्रेस चुनावी मैदान में है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने केजरीवाल के समक्ष वजनदार प्रत्याशी उतार कर यह संदेश तो दिया ही है कि इस बार केजरीवाल की पार्टी आसानी से विजय प्राप्त नहीं करेगी। क्योंकि बसपा और औवेसी के आने से केजरीवाल की पार्टी को मुस्लिम और दलित मतों की प्राप्ति में कमी हो सकती है और कांग्रेस का मूल वोटर इस बार कांग्रेस को ही वोट देगा।

आम आदमी पार्टी के साथ यह विसंगति जुड़ती जा रही है कि वह गठबंधन का हिस्सा केवल उन राज्यों में है, जहाँ आम आदमी पार्टी का अस्तित्व नहीं है। जहाँ केजरीवाल की पार्टी का अस्तित्व है, वहां गठबंधन के मायने बदल जाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि केजरीवाल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही गठबंधन करते हैं। यह बात सही है कि केजरीवाल को अब राजनीति की समझ आ गई है। वे एक चतुर राजनीतिक नेता की तरह चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन विपक्ष की एकता के सपने को चकनाचूर कर रहे हैं। हालांकि राजनीतिक विश्लेषक गठबंधन में दरार आने का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ रहे हैं। कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि गठबंधन अब बिखरने की ओर है। खैर… मूल विषय रेबड़ी का है। मुफ्त की रेबड़ी बांटना निश्चित ही इस बात की ओर संकेत करता है कि आज राजनीतिक दलों ने आम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता खोई है, इसीलिए चुनाव जीतने के जनता को प्रलोभन देकर वोट कबाड़ने की राजनीति की जा रही है। अब देखना यह है दिल्ली का सिंहासन किसका इंतजार कर रहा है। फिलहाल यही समझा जा रहा है कि मुख्य मुकाबला भाजपा और आदमी पार्टी के बीच है। प्रचार के लिए भाजपा के पास नेताओं की भारी भरकम फ़ौज है तो आम आदमी पार्टी के पास केवल केजरीवाल ही हैं। चुनावी प्रचार के माध्यम से भाजपा अपनी बात को नीचे तक पहुंचाने का प्रयास करेगी और इसका प्रभाव भी हो सकता है। लेकिन फिर वही बात… क्या रेबड़ी के सहारे ही इस बार भी दिल्ली की सरकार बनेगी।

  • सुरेश हिंदुस्तानी, वरिष्ठ पत्रकार
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