• December 6, 2021

राष्ट्रीय राजनीति में अब भी मायने रखती है कांग्रेस

राष्ट्रीय राजनीति में अब भी मायने रखती है कांग्रेस

बिजनेस स्टैंडर्ड —- ममता बनर्जी ने जब अपनी मुंबई यात्रा के दौरान कहा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) का अस्तित्व समाप्त हो चुका है तो उन्होंने एक ऐसी बात को रेखांकित किया जो पहले से ही सबको पता है। तथ्य यह है कि सन 2014 के आम चुनाव के बाद ही एक प्रभावी गठबंधन के रूप में संप्रग का अस्तित्व समाप्त हो चुका था।

ममता बनर्जी और प्रशांत किशोर जिन्हें हम उनका एनएसए (राष्ट्रीय रणनीतिक सलाहकार) कह सकते हैं, ने कांग्रेस के बारे में जो कुछ कहा है वह अहमियत रखता है। मुंबई में नागरिक समाज के कुछ प्रमुख लोगों के साथ बातचीत में ममता ने बिना राहुल गांधी का नाम लिए उन पर तंज भी कसे। इनमें कई ऐसे लोग शामिल थे जो सोशल मीडिया पर कांग्रेस का समर्थन करते हैं।

उन्होंने कहा कि राजनीति में मुकाबला करने के लिए आपको जमीन पर रहना पड़ता है, हमेशा विदेश में समय बिताकर राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। ममता ने कहा कि कांग्रेस अब यह यकीन नहीं दिला पा रही है कि उसमें नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने का माद्दा है। प्रशांत ने अगले दिन ट्वीट किया कि कांग्रेस भले ही एक ताकत हो लेकिन किसी एक व्यक्ति को यह दैवीय अधिकार नहीं है कि वह उसके नेतृत्व पर दावा ठोके। इसके बाद तमाम बातें शुरू हो गईं।

पहला अनुमान यह लगाया गया कि शायद ममता अपने पुराने दल से कह रही थीं कि उसे एक अधिक काबिल नेता की जरूरत है, ऐसा नेता जिसने मोदी-शाह की भाजपा को एक से अधिक बार पराजित किया हो।

यह भी कहा गया कि प्रशांत ने ममता की बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया। पहले कांग्रेस को यह आश्वस्ति दी गई कि उसकी राजनीतिक जमीन हड़पने की कोई योजना नहीं है बल्कि अन्य विपक्षी दलों की तरह वे भी यही मानते हैं कि कांग्रेस के उत्थान में उनका भी हित है। यह भी कि ऐसा मौजूदा नेता राहुल के नेतृत्व में नहीं हो सकता इसलिए पार्टी को बदलाव करना चाहिए। यह वैसा ही था जैसे अंशधारक जबरन अधिग्रहण के बजाय प्रबंधन में तब्दीली का आह्वान कर रहे हों।

देश के सभी गैर भाजपा दल, वे भी जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में हैं लेकिन समुचित तवज्जो न मिलने से नाराज हैं, उन सभी को भाजपा से समस्या है। उनमें से किसी में इतनी क्षमता नहीं है कि अपने दम पर भाजपा का मुकाबला करे या ऐसा शक्ति संतुलन कायम कर सकें कि केंद्र के साथ मोलतोल की जा सके। या फिर वे ऐसा कुछ कर सकें जिससे भाजपा द्वारा ‘एजेंसियों’ के इस्तेमाल में ही कुछ सुधार हो।

वे अपने-अपने राज्य में भाजपा को रोक सकते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें पता है कि अगर एक दर्जन दल मिलकर भी आगे आएं तो भी उन्हें छिन्नभिन्न कर दिया जाएगा। असली चुनौती है विभिन्न राज्यों में बुनियादी पहुंच की और ऐसा केवल कांग्रेस कर सकती है। इसलिए उन्हें कांग्रेस की जरूरत है।

कोई राजनीतिक शक्ति नहीं चाहती कि उससे कड़े सवाल किए जाएं। आज के दौर में आत्मावलोकन, आंतरिक बहस या चिंतन-मनन तो और भी कठिन है क्योंकि अधिकांश दल किसी व्यक्ति या परिवार द्वारा संचालित हैं। यही वजह है कि पहली प्रतिक्रिया में अपने नेता का बचाव और प्रश्न करने वाले पर हमले शुरू हो जाते हैं। ताजा उदाहरण यह है कि संसद का सत्र शुरू है और मोदी पर हमला करने के बजाय कांग्रेस के निशाने पर प्रशांत आ गए हैं।

ऐसी बहसों में कभी किसी की जीत हार नहीं होती। परंतु इसी तरह कोई आंकड़ों की हकीकत को भी नहीं बदल सकता। कांग्रेस के पक्ष में भी आंकड़े हैं। भाजपा के हाथों लगातार दूसरे आम चुनाव में शिकस्त मिलने के बाद भी पार्टी के पास 20 फीसदी वोट बचे हुए हैं। भाजपा को छोड़ दिया जाए तो यह राजग और संप्रग के सदस्य किन्हीं चार दलों से अधिक है। यही वजह है कि भाजपा से पीडि़त दल कांग्रेस का पुनरुत्थान चाहते हैं।

ममता और प्रशांत अगर यह सोच रहे हैं कि वे देश भर में तृणमूल कांग्रेस की ऐसी लहर पैदा कर सकते हैं जिससे कांग्रेस के 13 करोड़ प्रतिबद्ध मतदाता उनके पास आ जाएंगे तो वे भ्रम में हैं। इसी प्रकार उन्हें यह भ्रम भी नहीं होगा कि गांधी परिवार कांग्रेस में नई जान फूंक सकता है और भाजपा के लिए खतरा बन सकता है। यही कारण है कि वे कांग्रेस के लिए एक नया नेतृत्व चाहते हैं। या फिर वह खुद को 13 करोड़ वोट की शुरुआती पूंजी वाले स्टार्टअप के रूप में देखे जिसका नेतृत्व नए प्रबंधन के हाथ में हो।

कांग्रेस के आंकड़ों पर नए तरह से भी नजर डाली जा सकती है। याद रखें कि संसद में उसके केवल 53 सांसद हैं जो सदन की कुल क्षमता का 10 फीसदी भी नहीं है, हालांकि 2019 में उसने 2014 से नौ सीटें ज्यादा जीतीं।

पार्टी की सीट कहां से आईं? उसे केरल में 15 और पंजाब में आठ सीट मिलीं और दोनों जगह पार्टी को ये सीट अपने बलबूते मिलीं। तमिलनाडु में उसे आठ सीट मिलीं लेकिन इसका श्रेय द्रविड़ मुन्नेेत्र कषगम को जाता है। इसके बाद उसे असम और तेलंगाना में तीन-तीन सीट, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में दो-दो सीट तथा 12 राज्यों में एक-एक सीट मिली।

पार्टी के पास 20 फीसदी मत हैं लेकिन कड़वी हकीकत यह भी है कि पार्टी को केरल के अलावा किसी राज्य में दो अंकों में सीट नहीं मिलीं। क्या आज चुनाव हों तो पार्टी इससे बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी? केरल में भी उसे अपना प्रदर्शन दोहराने में दिक्कत होगी। तमिलनाडु में वह द्रमुक की दया पर निर्भर होगी। पंजाब में पार्टी बंटी हुई है और तेलंगाना, पश्चिम बंगाल तथा असम में पहले से कमजोर हुई है।

कांग्रेस किसी राज्य में अपनी दमदार पकड़ का दावा नहीं कर सकती। पंजाब में ऐसा था लेकिन वहां भी अपनी गलतियों से वह हालात बिगाड़ चुकी है। इसकी तुलना में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु में स्टालिन ऐसा दावा कर सकते हैं। ये दोनों देश के तीन बड़े राज्यों में शामिल हैं और लोकसभा में 40 से अधिक सांसद भेजते हैं। केरल में कांग्रेस और वाम के बीच सीटें बंटती रहती हैं। महाराष्ट्र में अब पार्टी सत्ताधारी गठबंधन के तीन दलों में सबसे कमजोर है।

वाई एस जगन मोहन रेड्डी और केसीआर अपने अपने राज्य में दबदबा रखते हैं। महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार का दबदबा बढ़ा है। कांग्रेस शासन वाले छत्तीसगढ़ में पार्टी के दो लोकसभा सदस्य हैं और राजस्थान में एक भी नहीं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल की कुल 286 सीट में कांग्रेस के पास मात्र 10 सीट हैं। पार्टी अतीत में इन सभी राज्यों में सत्ता संभाल चुकी है। इनमें से कुछ में तो वह 1989 में भाजपा के उभार के बाद भी सत्तासीन रही है।

यह कहना गलत होगा कि कांग्रेस मायने नहीं रखती। कम से कम भाजपा ऐसा बिल्कुल नहीं मानती यही कारण है कि संसद में संविधान दिवस के दिन अपने भाषण में भी मोदी ने वंशवादी राजनीति को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया।

यह कहना भी गलत होगा कि कांग्रेस के पास कोई वैचारिक पकड़ नहीं बची। बिना वैचारिक मजबूती के अनेक अन्य नेता भी भाजपा या अन्य दलों में चले जाते।

कांग्रेस के लिए यह सोचना आत्मघाती होगा कि मतदाता मोदी को वोट देने और दोबारा सत्ता में वापस लाने के लिए सामूहिक क्षमायाचना करेंगे। आंकड़ों पर गौर कीजिए: 2014 और 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस जिन सीटों पर भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थी वहां उसे 8 फीसदी और भाजपा को 92 फीसदी पर जीत मिली। यह बात उन लोगों को भयभीत करती है जो मोदी के खेमे के नहीं हैं।

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