- April 7, 2023
राजस्थानी को कब हासिल होगा निज भाषा का गौरव ? : देवेन्द्रराज सुथार
संविधान की मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं में राजस्थानी 17 भाषाओं से बड़ी है. सिंधी केवल 10 लाख लोगों द्वारा बोली जाती है जबकि राजस्थानी बोलने वाले 14 करोड़ लोग हैं. राजस्थानी भाषा को नेपाल, पाकिस्तान आदि देशों में मान्यता है. शिकागो, मॉस्को, कैम्ब्रिज जैसे नामी विश्वविद्यालयों समेत दुनिया के कई और विश्वविद्यालयों में राजस्थानी पढ़ाई जाती है. राजस्थानी में एक-एक शब्द के 500-500 पर्यायवाची शब्द मिलते हैं. उदाहरण के लिए पति-पत्नी के 500-500, ऊंट के 150, बादल के 200, लाठी के 60, भैंस के 50 पर्यायवाची शब्द हैं. कृष्ण भक्त मीराबाई राजस्थानी में ही लिखती थीं. विचित्र बात है कि राजस्थान को मीरा की धरती तो कहते हैं, लेकिन उस मीरा का यश बढ़ाने का काम जो भाषा करती है उसे ख़ारिज कर दिया जाता है. इस कारण नई पीढ़ी राजस्थानी को भूलती जा रही है.
30 मार्च, 1949 को राजस्थान एक राज्य के रूप में अस्तित्व में आ तो गया, लेकिन इतने सालों के बाद भी राजस्थानी भाषा को मान्यता नहीं मिली है. ‘एक और अंतरीप पत्रिका’ के संपादक एवं साहित्यकार अजय अनुरागी कहते हैं कि, ‘राजस्थानी भाषा पांच उप-भाषाओं का समन्वित रूप है. मेवाड़ी, मारवाड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाती और हाड़ौती. इसके अलावा राजस्थान के कुछ हिस्से में ब्रज, पंजाबी आदि भी बोली जाती है. इसका मानक व्याकरण न होना भी इसका न्यून पक्ष रहा है.’ कवि एवं ग़ज़लकार सोमप्रसाद साहिल लंबे समय से राजस्थानी भाषा में लेखन कर रहे हैं और कई पुस्तकें भी लिख चुके हैं, वे बताते हैं कि, ‘राजस्थानी को मान्यता न मिलने के कारणों में सबसे बड़ा कारण राजस्थानी लिपि का अभाव है. साथ ही प्रत्येक क्षेत्र की अपनी बोली हैं, जैसे हाड़ौती, मेवाड़ी, मारवाड़ी, ढूंढाड़ी इत्यादि. इसीलिए संपूर्ण राजस्थान राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर संगठित नहीं है. जिस दिन राजस्थान एक स्वर में राजस्थानी की मान्यता को लेकर आवाज़ उठाएगा, उस दिन मान्यता का स्वप्न साकार हो जाएगा.’ अजमेर की साहित्यकार डाॅ. पूनम पांडे कहती हैं कि, ‘राजस्थानी विविधता से भरी है मगर एक ही कमी है कि इसकी लिपि नहीं है. लिपि का न होना एक संवैधानिक बाधा बना हुआ है, लेकिन आज तो कहने-सुनने का समय फिर से आ गया है. आज सोशल मीडिया के कितने माध्यम बस बोलकर और सुनकर अपना उद्देश्य न केवल निभा देते हैं वरन सार्थक भी कर देते हैं. लेकिन संविधान की सजी हुई महफ़िल में भी उसे एक भाषा के रूप में आना ही चाहिए.’
जयपुर के साहित्यकार मोहन मंगलम बताते हैं कि, ‘यह हर भाषा प्रेमी के लिए अत्यंत कष्ट का विषय है कि राजस्थानी भाषा वर्षों से मान्यता के लिए तरस रही है. सरकार का अपना रुख़ है, अपनी सीमाएं हैं, मगर हम नागरिकों का भी कुछ कर्त्तव्य बनता है. क्या हम सभी राजस्थानी भाषा का प्रयोग अपने दैनंदिन के कार्यों में करते हैं? क्या हम अपनी संतानों को राजस्थानी भाषा बोलने के लिए प्रेरित करते हैं? जब तक हम खुद राजस्थानी भाषा को अपने दैनंदिन जीवन में अनिवार्यतः उपयोग करने के बजाय वैकल्पिक भाषा की तरह बरतेंगे, सरकार भी इसकी मान्यता के प्रति गंभीर नहीं होगी.’