रचनात्मक राजनीति समय की जरुरत

रचनात्मक राजनीति समय की जरुरत
सुरेश हिंदुस्थानी———-भारत एक लोकतांत्रिक है। इसका तात्पर्य यही है कि देश की जनता ही भारत की असली सरकार है। लोकसभा चुनावों के बाद अब देश में सरकार और विपक्ष की भूमिका भी तय हो गई है। जनता ने जहां नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए राजग को बहुमत दिया है, वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष को एक बार फिर से सत्ता से दूर कर दिया है। अब चुनाव हो चुके हैं, इसलिए लोकतांत्रिक देश होने के नाते आवश्यक है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष को जनता की भावनाओं को ध्यान में रखकर ही काम करना चाहिए। क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान जिस प्रकार के बयान दिए गए, उससे यही लगता है कि इसकी प्रतिध्वनि आगे भी सुनाई देगी। आज के राजनीतिक हालातों का अध्ययन किया जाए तो यह कहना सर्वथा उचित ही होगा कि दलीय आधार की राजनीति करना केवल चुनाव तक ही सीमित रहना चाहिए। उसका असर अगर संसद की कार्यवाही में दिखाई देगा तो यह देश के साथ अन्याय ही होगा। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को ही चाहिए कि वह अब देश हित की राजनीति करने वाले ही कदम उठाए। जहां तक राजनीतिक विश्लेषण की बात है तो यही कहा जाएगा कि भारत की जनता ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को सत्ता सौंपी है और कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन को विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया है। दोनों पक्ष की अलग भूमिका होती है।
संसद के माध्यम से देश का संचालन किया जाता है। यह राजनीतिक जोर आजमाईश का मैदान नहीं है, इसलिए संसद की गरिमा का भी सभी राजनीतिक दल ध्यान रखें, ऐसी भूमिका सभी मिलकर तय करें। सरकार और विपक्ष दोनों को चाहिए कि वह रचनात्मक राजनीति करके देश हित पर ध्यान दें, क्योंकि लोकतंत्र में लड़ाई सिर्फ चुनाव तक ही सीमित रहना चाहिए। भारत की राजनीति का उद्देश्य भी यही है कि इसके माध्यम से जनसेवा की जाए। अगर दलीय आधार पर संसद में राजनीति की जाए तो फिर देश बनाने की आशा किससे की जाए। उल्लेखनीय है कि जनता की पसंद और नापसन्द जानने के लिए ही देश में लोकतंत्र है। चुनाव के बाद निर्वाचित हुए प्रतिनिधि वास्तव में जनता के ही प्रतिनिधि हैं, इसलिए अब सभी को जनता के लिए ही जिम्मेदार होना चाहिए। चुनाव तक ही भाजपा और कांग्रेस की राजनीति रहती है, अब विपक्ष को भी चाहिए कि वह अच्छे कार्यों में सरकार का साथ दे, क्योंकि अब सरकार राजनीतिक दल की नहीं, बल्कि भारत की सरकार है। भारत की सरकार का आशय हम सबकी सरकार ही है।
कहने को देश में लोकतंत्र है, लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों के जो नेता जनप्रतिनिधि बनकर दिल्ली या प्रदेश की राजधानियों में बैठते हैं, उनको केवल अपने दल के अनुसार ही काम करना होता है। जिसमें लोक की भावनाओं का समावेश बिलकुल भी नहीं रहता। हमेशा यही देखा जाता है कि लोकतंत्र को कमजोर करने वाले हमारे राजनेता केवल विरोध करने के लिए ही विरोध करने की शैली को अपनाने के लिए ही बाध्य होते हैं। पिछली बार हम सबने देखा कि संसद की कार्यवाही को कई बार बाधित किया गया। लोकतंत्र की व्यवस्था के अनुसार विपक्ष का होना भी अत्यंत जरूरी है, लेकिन जो विपक्ष रचनात्मक भूमिका का पालन नहीं करता ऐसे विपक्ष से तो विपक्ष का न होना ही सही है। सत्ता पक्ष की निरंकुशता पर लगाम स्थापित करने के लिए ही विपक्ष का काम होता है, लेकिन भारत में प्राय: देखा जाता है कि सत्ता पक्ष के हर कार्य के लिए विपक्ष अपना विरोधी रुख अपनाता है। सरकार के हर कार्य का विरोध करना भी ठीक नहीं है।
यह बात सही है कि इस बार लोकसभा में मजबूत विपक्ष है। इसलिए विपक्ष अपने आपको मजबूत ही दिखाएगा, यह स्वाभाविक ही है। पिछले समय जब विपक्ष बिखरा हुआ था, तब भी विपक्ष ने अपनी ताकत दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन इस बार राजनीतिक स्थितियाँ बदली हुई हैं। सरकार की ताकत भी कम हुई है, गठबंधन के सहयोगी दल भी अपनी उपस्थिति का अहसास हमेशा कराते रहेंगे। ऐसे में सरकार जनता के किए गए कितने वादों पर अमल कर पाएगी, यह देखने वाली बात होगी। वहीं विपक्षी दलों की परेशानी यह है कि उसने जनता से जो वादे किए हैं, उसका क्या होगा, क्योंकि विपक्ष ने यह प्रचारित करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही काम किया है कि उसने भाजपा की जीत के रथ को रोक दिया है, जबकि यथार्थ में ऐसा नहीं है। जनता के बीच विपक्ष ने अपनी जीत का ही सन्देश दिया है, इससे जनता एक बार फिर से भ्रमित होती दिखाई दे रही है और इसीलिए ही कांग्रेस के कार्यालयों पर जनता की भीड़ उमड़ रही है। यह जनता कांग्रेस से अपने वादे पूरे करने की मांग कर रही है। क्योंकि उनके सामने यही सन्देश दिया है कि कांग्रेस सहित विपक्ष की बड़ी जीत हुई है। वर्तमान स्थिति का राजनीतिक विश्लेषण किया जाए तो यही कहना उचित होगा कि भाजपा आज भी जनता की पहली पसंद है। भाजपा को जितनी सीट मिली हैं, उसके आधे भी विपक्ष के किसी दल को नहीं मिली। प्रचार में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी कांग्रेस सौ के आंकड़े को नहीं छू सकी, यह गहन चिंता का विषय है, लेकिन कांग्रेस इस सत्य को स्वीकार करने की मानसिकता नहीं बना पाई। राजनीति में सीटों की संख्या का महत्व होता है और सीटों के मामले में भाजपा बहुत आगे है। यह अलग बात है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई, लेकिन इस बार भाजपा ने दक्षिण के कुछ राज्यों में अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है। यह भाजपा के लिए आनंद की ही बात है। जिस दक्षिण के लिए भाजपा अछूत मानी जाती थी, वहां भाजपा स्वीकार होने लगी है।
एक ख़ास बात यह भी है कि इस बार के चुनावों में जनता ने क्षेत्रीय दलों को भी बहुत अच्छा महत्व दिया है। क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व में आने के बाद देश में गठबंधन की राजनीति का युग फिर से आ गया है। राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा और कांग्रेस की उपस्थिति देश के अधिकतर राज्यों में है। बाकी सभी दल राष्ट्रीय फलक पर प्रभाव दिखाने वाले नहीं हैं। इसके अलावा विपक्ष में अभी से बिखराव प्रारम्भ हो गया है। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से पूरी तरह से किनारा कर लिया है। ऐसे में विपक्षी गठबंधन पर फिर से सवाल उठने लगे हैं। खैर.. यह राजनीति है, राजनीति में कब क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। लेकिन जहां देश हित की बात आती है तो वहां राजनीति नहीं होना चाहिए। राजनीति रचनात्मक होगी तो ही देश चलेगा, विरोध की राजनीति तो अवरोध पैदा करने वाली होती है।
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सुरेश हिंदुस्तानी, वरिष्ठ पत्रकार
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