• March 28, 2016

यही है रहस्य सुख-दुःख का – डॉ. दीपक आचार्य

यही है रहस्य  सुख-दुःख का  – डॉ. दीपक आचार्य

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 सब लोग सुख चाहते हैं, दुःखी रहना कोई नहीं चाहता। लेकिन जो पूर्वजन्मार्जित पाप-पुण्य हैं वे दुःख और सुख के रूप में आते-जाते रहते हैं। नियति के इस चक्र से कोई नहीं बच सकता।  असल में न कोई सुख है, न कोई दुःख। यह मन की अवस्थाएं हैं जो किसी के लिए अनुकूल हुआ करती हैं और किसी के लिए प्रतिकूल।

मनुष्य इन्हें अनुभव करने की शैली में बदलाव ले आए तो उसे सुख में भी समत्व भाव के साथ आनंद का अहसास होगा और दुःख में भी कष्ट न होगा। अपने मन की दशा को आत्म नियंत्रित किया जाकर दुःखों के अस्तित्व के बावजूद इनका आनंद पाया जा सकता है।

यह कला जो सीख जाता है वह सुख और दुःख से ऊपर उठकर आनंद भाव को प्राप्त कर लेता है। वस्तुतः भगवान की पूजा-उपासना और साधना, प्रार्थना आदि सब कुछ किसी सुख या दुःख को न्यूनाधिक नहीं करते, वे अपने परिमाण में उपस्थित रहते हैं लेकिन इनका अनुभव सभी लोग अलग-अलग प्रकार से करते हैं। कोई दुःखों को गहन और व्यापकता देता हुआ दुखी होता है, कोई इसे हल्के में लेता है। इसी प्रकार सुख की स्थिति है। अधिकांश लोग सुख की अवस्था में बौरा जाते हैं, जोश में होश खो बैठते हैं और इसे ही जीवन का सत्य मान कर चलने लगते हैं, इन लोगों के लिए छोटा सा दुःख भी पहाड़ जैसा अनुभव होने लगता है। जबकि जो लोग सुख में भी समत्व और धीर-गांभीर्य के साथ रहते हैं, बौराते नहीं, घमण्ड नहीं करते, उनके लिए कोई सा दुःख आ जाए, कोई अधिक विचलित नहीं कर सकता।

बहुधा हम सभी लोग यही सोचते हैं कि हमारे जीवन में सुख ही सुख बने रहें, दुःख आए ही नहीं। मगर ऎसा संभव नहीं है। प्रारब्ध को भोगे बिना कुछ भी नहीं हो सकता। हर कर्म का अपना फल निर्मित होता है जो देर सबेर हमें ही भुगतना पड़ता है, इससे बचने का कोई विकल्प नहीं है। जीवन प्रवाह में पाप-पुण्य के फल के अनुरूप दुःख-सुख का क्रम निरन्तर यों ही चलता रहता है।

इन सभी के बावजूद हममें से अधिकांश लोग अच्छे कामों की सोचते हैं,  शुरूआत भी करते हैं मगर कुछ समय बाद उनका संकल्प खण्डित हो जाता है। उनके सामने समस्या यह आ जाती है कि जैसे ही वह अच्छा काम शुरू करते हैं, सेवा-परोपकार या साधना की शुरूआत करते हैं, आरंभिक दौर में ही कोई न कोई समस्या या अड़चन आ धमकती है।

इससे इनका आत्मविश्वास बिखरने लगता है और यह सोच बन जाती है कि जब भी कोई अच्छा काम या साधना शुरू होती है, कुछ दिन में ही विघ्न आ धमकते हैं। इस अवस्था में कई लोग भगवान, अपनी साधना, साधन और इससे जुड़ें कर्मों में अविश्वास करने लग जाते हैं और महसूस करने लगते हैं कि दुष्ट, पापी, बेईमान और व्यभिचारी लोग फल-फूल रहे हैं, उनका डंका बज रहा है और मालामाल हो रहे हैं। और एक हम हैं कि अच्छे कर्म,सेवा, साधना आदि ईमानदारी से करते हैं तो समस्या सामने आ जाती है। हमसे तो वे खराब लोग अच्छे हैं जो लाभ में ही रहते हैं।

इस गणित को गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। हम पूजा-पाठ, जप-तप और साधना करें या जरूरतमन्दों की सेवा और परोपकार, यह सब भगवान को प्रिय है। भगवान यह चाहता है कि उसके भक्त का कल्याण करता हुआ मोक्ष प्रदान करे। उस पर कृपा बनाए रखते हुए आत्म आनंद में नहलाता रहे। उसके हृदय में प्रतिष्ठित होकर सदैव साथ रहे। मगर इसके लिए जरूरी है कि भक्त के पुराने पापों का क्षय हो, पवित्र हो ताकि भगवान के लायक शुचितापूर्ण शरीर, मन और मस्तिष्क बन सके।

इसके लिए भगवान भक्त के सारे जन्मों के पाप कर्मों का हिसाब लगाकर एक साथ क्रम में आगे लगाकर एक के बाद एक को अपनी साक्षी में न्यून से न्यून घनत्व वाला दर्शा कर भुगतवाता है।  निश्चय ही पाप के कारण दुःख आएगा, भोग लेने के बाद नष्ट हो जाएगा और हिसाब चुकता हो जाएगा। इस अवस्था में भगवान भक्त को सहनशीलता देता है ताकि जीवन पापों का फल समाप्त हो सके। इस दुःख समाप्ति का क्रम शुरू होने पर कच्चा भक्त घबराने लगता है लेकिन पक्के भक्त ईश्वरीय विधान मानकर एक के बाद एक दुःख को झेलते हुए आनंद के साथ भोग लेते हैं।

सारे पापों के भुक्तमान होने के बाद सुखों का नम्बर आता है जिसे भगवान अधिकाधिक आनंद के साथ भुगतवाता है और आयु पूरी होने तक साक्षात्कार भी कराता है, और अंत में मोक्ष कर देता है।  जबकि पापियों के साथ उल्टा होता है। भ्रष्ट, बेईमान, चोर-उचक्कों, पाखण्डियों, धूर्तों और दुष्टों को भगवान पहले सारे सुखों का नम्बर लेकर उन्हें  भोग करा देता है और इसके बाद इन दुष्टों के भाग्य में दुःखों का क्रम शुरू हो जाता है। जिसे वे बड़ी पीड़ा के साथ भोगने को विवश होते हैं।

इसलिए यह तय मान कर चलें कि जीवन में सज्जनों और साधकों को आरंभिक अवस्था में आने वाले दुःख ईश्वरीय कृपा के कारण से प्रारब्ध को क्षय करने आते हैं।  अच्छे काम करते हुए दुःखों की स्थिति सामने आए तब समझ लेना चाहिए कि भगवान हम पर खुश है। यह दुःख किसी भी रूप में हो सकता है।

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