- March 24, 2015
मोबाइल से जानें कौन है अपराधी – डॉ. दीपक आचार्य
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पहले आदमी अपने पाये पर रहता था। जबसे मोबाइल की दुनिया में प्रवेश कर लिया है तब से आदमी जड़ होने लगा है।
उसकी सारी संवेदनाएँ, सत्य और ईमानदारी पलायन करती जा रही है।
पहले फोन पर संपर्क से कम से कम यह तो पता चल ही जाता था कि आदमी वहीं है या कहीं ओर गया है, या आस-पास ही है।
तब भी बाथरूम में होने या पूजा-पाठ करने में व्यस्त होने आदि के बहाने भरपूर हुआ करते थे लेकिन उन बहानों का कोई खास असर नहीं होता था।
आजकल मोबाइल आ गया है और मोबाइल की वजह से इस सुकून की उम्मीद थी कि आदमी की रफ्तार तेज होगी, काम की गति बढ़ेगी और किसी भी वक्त कहीं से भी संपर्क किया जा सकेगा।
लेकिन आदमी की परंपरागत फितरत के आगे मोबाइल का होना न होना बराबर हो गया है। या यों कहें कि आदमी पहले से ज्यादा जड़ता को ओढ़ता जा रहा है।
कुछ ही लोग ऎसे सहिष्णु, संवेदनशील और सहज होंगे जिन पर कोई फर्क नहीं पड़ता होगा लेकिन अधिकांश लोगों के लिए मोबाइल झूठ बोलने , बहाने बनाने और दूसरों को भ्रमित करने का सशक्त बहाना बन चुका है।
इंसान अब अपनी सुविधाओं और सहूलियतों के आधार पर बात करता है।
इससे भी आगे बढ़कर बात यह हो गई है कि अब उसकी इच्छा पर निर्भर हो गया है कि नम्बर देख कर यह तय करे कि किससे बात करनी है और किससे नहीं। फिर यह भी पता नहीं चलता कि कौन कहाँ हैं।
लोग होते कहाँ हैं और पता कहीं और का दे देते हैं। सामने वालों को पता ही नहीं चलता कि सच क्या है। कोई पैमाना भी नहीं है कि जिससे अंदाज लग सके कि सामने वाला जो कुछ कह रहा है वह सच है झूठ।
अधिकतर लोगों को मोबाइल ने झूठा, कपटी, धोखेबाज, धूत्र्त और बहानेबाज बना डाला है।
इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि हमारी मानवीय संवेदनाएं खत्म हो गई हैं और हम अपनी लाभ-हानि को सामने रखकर बात करने के आदी हो गए हैं।
मोबाइल की वजह से आदमी इतना खुदगर्ज हो गया है कि उसे जब किसी की आवश्यकता पड़ती है तभी बात करता है अन्यथा बात करने से उसे परहेज होने लगा है।
खूब सारे लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार मोबाइल को हथियार बना दिया है जिसका इस्तेमाल अपने लाभ या जासूसी अथवा ब्लेकमेलिंग के लिए करने में करने लगे हैं। इस मामले में अब कोई पीछे नहीं है।
इंसान और इंसान के बीच बातचीत में अब आत्मीयता और निजता की बजाय मलीनता और अपने हक में वाणी का इस्तेमाल करने का शगल निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
मोबाइल ने हर आदमी को जासूस और फोटोग्राफर ही बना डाला है। जिसे देखो वह कहीं न कहीं कुछ न कुछ क्लिक करता दिखाई ही देता है। और कुछ नहीं मिले तो सैल्फी की कुल्फी का ही मजा ले रहे हैं।
मोबाइल का प्रयोग करने वाले लोगों की मानसिकता और व्यक्तित्व की थाह पाना कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं है।
जो लोग मोबाइल पर बातचीत करने से कतराते हैं, किसी भय, आशंका या किसी काम में फंस जाने की आशंका के मारे मोबाइल को स्विच ऑफ कर दिया करते हैं, आवाज न आने और नेटवर्क न होने का बहाना बनाते हैं, बार-बार अंगेज टोन लगा देते हैं, कोई सा काम बता देने के बाद उत्तर देने में हिचकते हैं, ऎसे लोग किसी न किसी रूप में मनोरोगी, उन्मादी, सनकी और कामचोर होते हैं।
इसके अलावा जो लोग काम से जी चुराने के लिए मोबाइल उठाते नहीं, स्विच ऑफ कर दिया करते हैं वे किसी न किसी अंश में आत्महीनता और अपराध बोध से भी ग्रस्त होते हैं और यही कारण है कि इनमें पलायनवादी मानसिकता हावी हो जाया करती है।
इस किस्म के लोग अव्वल दर्जे के खुदगर्ज और स्वार्थी होते हैं और इनका कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता क्योंकि इन लोगों के किसी से भी संबंध स्वार्थ से ही बनते हैं और स्वार्थ पूरा होने और गरज निकल जाने के बाद अपने आप समाप्त भी हो जाते हैं।
यही कारण है कि इस किस्म के लोग वल्लरियों की तरह कहीं भी किसी से भी हाथ मिला सकते हैं। परजीवियों या चूषकों की तरह दिन गुजारते हैं।
मोबाइल की मौजूदगी इंसान की स्पीड़ और कार्यक्षमता में अभिवृद्धि का पर्याय होनी चाहिए लेकिन आजकल हो इसका उलटा रहा है।
अपने आस-पास के लोगों, सहकर्मियों और परिचितों को देखें और मोबाईल के उपयोग के आधार पर उनका मूल्यांकन करें।
इस सारे अध्ययन के बाद भी इस मुगालते में न रहें कि लोगों का ही हम से काम पड़ता है और जिसकी गरज होगी वो सौ बार फोन करेगा।
कभी ऎसा वक्त भी आ सकता है कि जब हमारे काम से भी कोई ऎसा कॉल आ सकता है जो हमारे जीवन के लिए निर्णायक हो और जीने-मरने या भविष्य का फैसला करने वाला हो।