• August 10, 2023

मॉनसून और अल-नीनो के रिश्तों में कहीं बढ़ी गर्मी तो कहीं पड़ी ठंड

मॉनसून और अल-नीनो के रिश्तों में कहीं बढ़ी गर्मी तो कहीं पड़ी ठंड
लखनऊ (निशांत सक्सेना)———— मानसून बारिश और अल-नीनो नाम की समुद्री तरंग में वैसे तो गहरा नाता रहा है हमेशा, मगर भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों में पिछली सदी के दौरान इन दोनों के रिश्तों के रंग बादल चुके हैं।
इन बात का पता चलता है पुणे स्थित भारतीय उष्‍णदेशीय मौसम विज्ञान संस्‍थान (आईआईटीएम) के वैज्ञानिक रोक्‍सी मैथ्‍यू कोल की अगुवाई में हुए एक अध्‍ययन में। साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट में उत्‍तरी, मध्‍य और दक्षिणी भारत में अल नीनो और मानसून के आपसी रिश्‍तों में उल्‍लेखनीय बदलाव का जिक्र किया गया है। शोधकर्ताओं ने पाया कि जहां दक्षिण भारत में अल नीनो-मानसून सम्‍बन्‍ध मध्‍यम रूप से मजबूत और स्थिर रहे, वहीं इसी दौरान उत्‍तर भारत में यह अप्रत्‍याशित रूप से ज्‍यादा मजबूत हो गया। इसके अलावा हाल के दशकों में मध्‍य भारत के क्षेत्रों (कोर मानसून जोन) में यह सम्‍बन्‍ध उल्‍लेखनीय रूप से कमजोर और अस्तित्‍वहीन हो गया है।
क्या है अल-नीनो और मॉनसून का रिश्ता
भारतीय मानसून में समय के साथ उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। मानसून के साल-दर-साल उतार-चढ़ाव काफी हद तक प्रशांत क्षेत्र में समुद्र के तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव से नियंत्रित होते हैं। प्रशांत महासागर में इन दोलनों पर मध्य-पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में गर्म और ठंडे पानी के चरणों यानी अल नीनो और ला नीना का दबदबा होता है। इन्हें अल नीनो सदर्न ऑसिलेशन(ईएनएसओ) के रूप में जाना जाता है।
आमतौर पर अल नीनो प्रभाव की वजह से प्रशांत क्षेत्र में बहने वाली ट्रेड विंड्स को कमजोर होती हैं। ये हवाएँ भारत में नमी से भरी मानसूनी हवाओं से जुड़ी होती हैं। इस तरह मानसून यह को भी धीमा कर देती हैं, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा कम हो जाती है। ऐतिहासिक रूप से, अल नीनो के कम से कम आधे वर्ष मानसून के लिहाज से सूखे थे (जहां अखिल भारतीय स्‍तरपर मानसूनी बारिश दीर्घकालिक औसत के 10% से कम है)।
कब-कब बदला इस रिश्ते का रंग
भारतीय उपमहा‍द्वीप के ऊपर ईएनएसओ प्रभाव हर जगह एक समान नहीं रहता। ईएनएसओ और मानसून के बीच सम्‍बन्‍ध वर्ष 1901 से लेकर अब तक एक ही जैसा नहीं रहा है। शोधकर्ताओं ने यह पाया कि ईएनएसओ और मानसून का आपसी सम्‍बन्‍ध वर्ष 1901 से 1940 के बीच मजबूत होता गया। वर्ष 1941 से 1980 तक यह स्थिर रहा और उसके बाद हाल की अवधि (1981 और उसके बाद) में यह कमजोर हुआ है।
ईएनएसओ और मानसून के संबंधों में यह बदलाव क्षेत्रीय स्तर पर एक समान नहीं है। दक्षिण भारत के क्षेत्र में ईएनएसओ-मानसून संबंधों पर कोई भी उल्लेखनीय बदलाव नजर नहीं आता। वहीं, उत्तर भारत में हाल के दशकों में यह संबंध और मजबूत हो रहा है। इसके विपरीत मध्य भारत में ईएनएसओ और वर्षा का संबंध हाल के वर्षों में बहुत कमजोर हुआ है।
मानसूनी बारिश पर मानसून ट्रफ की मजबूती तथा उनकी वजह से मानसूनी डिप्रेशन (दबाव) में होने वाले बदलाव का भी असर पड़ता है। मानसून ट्रफ और दबाव संबंधी विभिन्नता मध्य भारत में वर्षा की तर्ज में भिन्नता के मुख्य कारण के तौर पर उभर कर सामने आई है और यह ईएनएसओ के दबदबे से आगे निकल गयी है। दक्षिण भारत में वर्षा के लिए ईएनएसओ का प्रभाव और मानसून ट्रफ तथा दबाव की तीव्रता संपूर्ण अवधि के दौरान निरंतरता भरी रही। उत्तर भारत पर वर्षा की तर्ज में भिन्नता ईएनएसओ पर पहले से ज्यादा निर्भर हो गई है। वहीं, मानसून ट्रफ और दबाव की भूमिका कम हो रही है। हो सकता है कि मानसून की तीव्रता में यह गिरावट हिंद महासागर के गर्म होने और हाल के दशकों में उत्तर भारत के क्षेत्र में मानसून के डिप्रेशन की कमजोर होती पहुंच के चलते आ रही हो।
बात आगे की
कोल ने कहा, “मानसून का मौसमी पूर्वानुमान काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि पूर्वानुमान मॉडल में अल नीनो को किस तरह स्टिम्युलेट किया जाता है। उत्तर और दक्षिण भारत में एक मजबूत और स्थिर ईएनएसओ-मानसून सहसंबंध का मतलब है कि इस संबंध को इन क्षेत्रों में मानसून के अधिक बेहतर पूर्वानुमान के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी दौरान हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि कोर मानसून जोन में आईएनएसओ का प्रभुत्व कमजोर है, जिसका मतलब है कि इस क्षेत्र में हाल के दशकों में मौसमी पूर्वानुमान पहले से कम पूर्वकथनीय रह गए हैं। अन्य कारक, जैसे कि हिंद महासागर के गर्म होने को भी कोर मानसून जोन के लिए मॉनिटर किया जाना चाहिए क्योंकि यह मानसून ट्रफ और दबाव की तीव्रता पर असर डालता है।”
अध्ययन के सह लेखक विनीत कुमार सिंह ने कहा, “वातावरणीय टेलीकनेक्शन के कमजोर होने के कारण इस साल अभी तक ईएनएसओ का प्रभाव सीमित है लेकिन मानसून सत्र के दूसरे हिस्से में अल नीनो के और भी ज्यादा असरदार होने की संभावना है।”
यह शोध आईआईएसईआर मोहाली में राजू अटाडा के सहयोग से कोल के मार्गदर्शन में आईआईटीएम, पुणे में अतिरा के.एस., पाणिनि दासगुप्ता, सरन्या जे.एस. और विनीत कुमार सिंह द्वारा किया गया है।


 
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