- May 17, 2022
मूलभूत सुविधा भी नहीं है गांव के स्कूलों में — चित्रा जोशी
उत्तरौड़ा, कपकोट (उत्तराखंड)——– आज़ादी के बाद से ही देश में शिक्षा का स्तर बढ़ाने के लिए कई योजनाएं चलाई गई हैं. मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम लागू किया गया, समग्र शिक्षा अभियान चलाया गया, स्कूलों में मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था की गई, बच्चों के लिए मुफ्त ड्रेस और किताबों की व्यवस्था की गई, स्कूल चले हम और बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे नारे लगाए गए. लेकिन हर बार कैग की रिपोर्ट में कहीं न कहीं सरकारी स्कूलों में शिक्षा का गिरता स्तर और बच्चों का स्कूल से दूर होना ही आता रहा है. यह कमियां दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत और खासकर हिंदी भाषी प्रदेशों में अधिक देखने को मिलती है. ऐसे में सवाल उठता है कि सारी योजनाओं की सफलता का दावा करने के बावजूद धरातल पर बदलाव नज़र क्यों नहीं आता है?
देश के अन्य हिंदी भाषी राज्यों की तरह पहाड़ी राज्य उत्तराखंड भी शामिल है, जहां के सरकारी स्कूलों की स्थितियों और उनमें कमियों की ओर कैग की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है. अक्टूबर 2021 में जारी कैग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में दूर दराज़ के कई सरकारी स्कूलों में न तो पीने का साफ़ पानी उपलब्ध है और न ही शौचालय की व्यवस्था है. इसका सीधा प्रभाव बालिकाओं की शिक्षा पर पड़ रहा है, जो धीरे धीरे स्कूल से दूर होती जा रही हैं. राज्य के बागेश्वर जिला स्थित कपकोट ब्लॉक का उत्तरौड़ा गांव इसका एक प्रमुख उदाहरण है. पहाड़ की चोटी पर बसे इस छोटे से गांव में संचालित रा.उ.मा. विद्यालय मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है. वर्ष 2011-12 से संचालित इस स्कूल में कुल 67 विद्यार्थी हैं, जिनमें 25 छात्र और 42 छात्राएं हैं. छात्र की तुलना में छात्राओं की संख्या का अधिक होना शिक्षा के प्रति बालिकाओं के बढ़ते रुझान को दर्शाता है. इसके बावजूद इस स्कूल में छात्राओं के लिए पीने का साफ़ पानी और शौचालय जैसी बुनियादी आवश्यकताओं का अभाव है. जिससे न केवल उनकी कठिनाई बढ़ जाती है बल्कि आगे की शिक्षा में भी रुकावट आती है.
विशेषकर माहवारी के दिनों में शौचालय नहीं होने से छात्राओं को काफी परेशानी होती है. अक्सर इस दौरान छात्राएं स्कूल नहीं आती हैं, जो आगे चलकर ड्रॉपआउट का कारण बनती है. इस संबंध में बबीता, शिवानी और हेमा जैसी कई छात्राओं का कहना है कि शौचालय नहीं होने की वजह से उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है. अक्सर उन्हें खुले में शौच जाना पड़ता है, कई लड़कियां लज्जा के कारण खुले में नहीं जाती हैं, जिससे उनके बीमार होने का खतरा बना रहता है. उन्होंने बताया कि स्कूल में जो शौचालय बना है उसमें न तो पानी की उचित व्यवस्था है और न ही वह साफ़ हैं. यह शौचालय इतने गंदे हैं कि कोई भी उसका प्रयोग करे तो वह गंभीर रूप से बीमार हो जाये. इन छात्राओं का कहना है कि शौचालय न होने की वजह से हम स्कूल नहीं जा पाते है, सबसे अधिक कठिनाई माहवारी के दिनों में होती है जब जल्दी जल्दी पैड बदलने की ज़रूरत होती है, ऐसे में गंदे शौचालय में पैड बदलने का अर्थ है स्वयं बीमारी को आमंत्रण देना. यही कारण है कि इस दौरान छात्राएं स्कूल छोड़ देती हैं, जिससे उनकी शिक्षा प्रभावित होती है.
कुछ छात्राएं तो ऐसी है जो माहवारी के दर्द की वजह से हफ्तों तक स्कूल नही जा पाती हैं जिससे उनका नाम काट दिया जाता है. यह छात्राएं सवाल करती हैं कि आखिर उनके स्कूल नहीं आने का कारण कोई क्यों जानना नहीं चाहता है? क्यों स्कूल प्रशासन और शिक्षा विभाग उनकी समस्या को हल करने के प्रति गंभीर नहीं है? यदि स्कूल में शौचालय की उचित व्यवस्था होगी तो कोई भी लड़की अपनी पढ़ाई छोड़ना नहीं चाहेगी. गांव की अधिकतर लड़कियों को खूब पढ़ने और आगे बढ़ने का शौक है, लेकिन उनकी शिक्षा जिन कारणों से प्रभावित हो रही है, उस समस्या के निवारण के प्रति कोई भी गंभीर नज़र नहीं आता है. जो न केवल लड़कियों के लिए चिंता का विषय है बल्कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे को भी अर्थहीन बनाते है. जब स्कूल में बालिकाओं के लिए स्वच्छ शौचालय, पानी की पूर्ण व्यवस्था होगी, तभी तो छात्राएं माहवारी के दिनों में भी स्कूल आ पाएंगी? इससे न केवल उनका स्वास्थ्य ठीक रहेगा बल्कि स्कूल छोड़ने के कारणों पर भी लगाम लगेगी. जिससे पढ़ने लिखने में उनकी रुचि भी बढ़ेगी.
स्कूल में शौचालय समस्या को दूर करने के लिए ‘स्वच्छ विद्यालय, स्वच्छ भारत मिशन’ लागू किया गया. इसका उद्देश्य है कि विद्यालय स्वच्छ रहे तथा शौचालय की पूर्ण व्यवस्था हो. मासिक धर्म के समय लड़कियों को होने वाली परेशानियों से अभिभावक भी चिंतित हैं. उनका मानना है कि इससे उनकी बेटियों की शिक्षा प्रभावित हो रही है. इस संबंध में एक अभिभावक शोभा जोशी का कहना है कि उन्होने स्कूल में शौचालय की समस्या पर स्कूल की प्रिंसिपल से बात की थी. प्रिंसिपल का कहना था कि जब सरकार पैसे देगी तभी शौचालय बनवाया जा सकता है. वहीं स्कूल की प्रिंसिपल डॉ. ममता पंत भी इस समस्या को स्वीकार करते हुए कहती हैं कि जब स्कूल में शौचालय नहीं होगा तो छात्र छात्राओं की संख्या घटेगी, जिसकी वजह से स्कूल का विकास नहीं हो पाएगा. वहीं इस संबंध में ब्लॉक शिक्षा अधिकारी रमेश चंद्र मौर्य का कहना है कि शौचालय जल्दी बनवाया जाएगा . जैसे ही विभाग में पैसा आएगा स्कूल को अलॉट कर दिया जाएगा ताकि शौचालय बनाने का कार्य शुरु कर दिया जाए.
कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2020-21 में उत्तराखंड में सरकार द्वारा संचालित 761 प्राथमिक विद्यालयों में गर्ल्स टॉयलेट की सुविधा नहीं है जबकि इसी अवधि में 148 माध्यमिक स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय की सुविधा नहीं है. यही कारण है कि शहरों की तरह इस पहाड़ी राज्य में भी धीरे धीरे निजी विद्यालय अपना पांव पसार रहे हैं और अभिभावक अपने बच्चों का सरकारी स्कूलों से नाम कटवा कर निजी स्कूलों में दाखिला करवा रहे हैं. लेकिन प्रश्न यह उठता है कि आर्थिक रूप से कमज़ोर माता-पिता के बच्चों का भविष्य क्या होगा? क्या केवल शौचालय की सुविधा नहीं होने के कारण उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ेगा? यह केवल बच्चों के भविष्य के साथ ही नहीं, बल्कि अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के साथ भी एक भद्दा मज़ाक है.
(चरखा फीचर)