मानव जाति के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों पर चिंता–राजकुमार झांझरी

मानव जाति के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों पर चिंता–राजकुमार झांझरी

असम ———————दी गार्डियन’ में शीर्षक से प्रकाशित लेख में आपने मानव जाति के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों पर वाजिब चिंता व्यक्त की है। आपके विचारों से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आपने यह निश्चित रूप से मान लिया है कि अब धरती को विध्वंस से बचाना लगभग असंभव होता जा रहा है तथा मानव को धरती के विकल्प की तलाश शुरू कर देनी चाहिए।
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विश्व के महान वैज्ञानिक होने के नाते आपकी यह निराशा समस्त विश्ववासियों के लिए नितांत ही चिंता का विषय है। क्या वाकई दुनिया ध्वंस होने जा रही है? क्या यह दुनिया मनुष्य के निवास योग्य नहीं रहने वाली है? क्या वाकई इस दुनिया में रहने वाले मनुष्यों के भाग्य में सिर्फ अभाव, दुख, दर्द, कष्ट ही बदा है? शायद नहीं।

आपने पृथ्वी तथा मानव जाति के भविष्य को लेकर जो दर्दनाक व चिंताजनक स्थिति बयां की है, इसके लिए कोई और नहीं, सिर्फ मानव जाति ही पूरी तरह जिम्मेदार है। सृष्टि की रचना करने वाले ने दुनिया के समस्त प्राणियों में मनुष्य को ही सबसे अधिक नियामतें बख्शी हैं। कोई भी मां अपनी औलाद को किसी भी प्रकार का कष्ट देना नहीं चाहती। इस पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणी धरती माता की संतान है।

सृष्टिकर्ता ने इस प्रकार हमारी धरती की रचना की है कि धरती पर रहने वाली उसकी हर संतान सुखी, शांतिपूर्ण तथा निरोगी जीवन यापन कर सके। सृष्टि की रचना इतनी सटीक व सुंदर है कि अगर मनुष्य उसके नियमानुसार चलता तो इस धरती पर उसे न दुख होता, न तकलीफें और कोई आपदा-विपदा ही होतीं। लेकिन लोभी व अहंकारी मनुष्य खुद प्रकृृति के नियमानुसार चलने के बजाय प्रकृृति को ही अपनी इच्छानुसार चलाने की कोशिशें करता आया है।

अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए इस सृष्टि को ही ध्वंस करने की कवायद में जुटा हुआ है। उसकी हालत उस मुर्ख सरीखी है, जो उसी टहनी को काट रहा है, जिस पर वह खुद बैठा हुआ है। हमारी धरती हमें जीने के लिए न सिर्फ अन्न, पानी तथा ऑक्सीजन मुहैय्या करवाती है बल्कि वह मनुष्य जीवन को सुंदरतम बनाने के सारे साधन भी प्रदान करती है, जो उसके मन की प्रबल शक्ति तथा सृष्टि के नियमानुसार गृहनिर्माण में निहित हैं।

अहंकारी मनुष्य इस धरती पर रहकर भी धरती के नियमों के अनुसार चलने को राजी नहीं, चाहे इसके लिए उसे कितनी ही तकलीफें क्यों न उठानी पड़ रही हो?

मनुष्य जब तक प्रकृृति से सामंजस्य कर चलता था, वह काफी हद तक सुखी व निरोगी जीवन यापन करता था। लेकिन जब से मनुष्य ने जूते-चप्पलें पहनने प्रारंभ किये, तभी से उसका प्रकृृति से संबंध क्रमश: कटता चला गया। नंगे पांव जमीन पर चलने से पृथ्वी की चुम्बक शक्ति पांव के तलुओं के जरिये उसके शरीर के हर अंग को मिलती थी, फलस्वरूप उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी लगभग अजेय होती थी।

इसका प्रमाण आपको जैन संतों के रूप में आज भी देखने को मिलता है। आपको शायद पता हो कि जैन संत हमेशा नंगे पांव पैदल ही चलते हैं। वे 24 घंटों में सिर्फ एक बार आहार तथा एक बार ही जल ग्रहण करते हैं। इसके अलावा वे अगले 24 घंटों में कुछ भी खाते-पीते नहीं। लेकिन वे चूंकि नंगे पांव जमीन पर चलते हैं, इसलिए उनके तन को पांवों के तलुओं के जरिये पृथ्वी की पर्याप्त चुंबक शक्ति प्राप्त होती है, जिसकी वजह से वे काफी हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।

मानव जाति की यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जो सृष्टि मनुष्य को जीवन प्रदान करती है, स्वस्थ रहने के लिए पर्याप्त ऊर्जा प्रदान करती है, मनुष्य अनवरत उसी का अंधाधुंध दोहन कर तथा उसके नियमों के विपरीत चलकर अपने पांवों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहा है, जिसकी वजह से आज समूचा प्राणी जगत अपने अस्तित्व के खतरे से जूझने के लिए अभिशप्त है।

सृष्टि का निर्माण कितना अचूक है, इस बात को हम वृक्ष और मनुष्य के संपर्क से ही समझ सकते हैं। सृष्टि के नियम के अनुसार वृक्ष जहां कार्बन डाई ऑक्साईड ग्रहण कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं, वहीं मनुष्य ऑक्सीजन ग्रहण कर कॉर्बन डाई ऑक्साईड छोड़ता है। आप ही सोचिये कि अगर वृक्ष और मनुष्य की सांसों के बीच संपर्क न होता तो क्या लोभी मनुष्य अब तक इस दुनिया में एक
भी वृक्ष को जिंदा रहने देता? कतई नहीं।

मनुष्य के अहंकार के सबसे प्रमुख प्रमाण हैं मनुष्य द्वारा सृजित हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि पृथ्वी के हजारों धर्म तथा ज्योतिष शास्त्र। सृष्टि के अवदानों को तुच्छ तथा खुद को सर्वोत्कृृष्ट साबित करने के लिए उसने सृष्टि की अवहेलना तक ही खुद को सीमित न रखकर अपने-अपने धर्म और ईश्वर / अल्ला / गॉड आदि रच लिये और उन्हें ही धरती के सृजन तथा अस्तित्व में आने से लेकर अब तक की सारी नियामतों का कर्ता-धर्ता बताने लगा।

मनुष्य जिस पृथ्वी पर वास करता है और जिससे अन्न, जल, वायु सरीखेजीवन धारण के सारे साधन प्राप्त करता है, उसकी न सिर्फ अवहेलना करता है बल्कि शनि, मंगल, बुध, वृहस्पति आदि ग्रहों में ही अपना भविष्य व सुख, शांति, समृद्धि खोजता है। मनुष्य यह बात भूल गया कि मानव सृजित धर्मोंतथा ज्योतिष शास्त्र ने समूची मानव जाति को पंगु बना रखा है।

सृष्टि ने मनुष्य के मन में कितनी असीम शक्ति प्रदान की है, उसे भला आपसे बेहतर कौन समझ सकता है क्योंकि आपने कभी न ठीक होने वाले असाध्य रोग से ग्रस्त होने के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में जो चमत्कारी शोध व आविष्कार किये हैं, वे शारीरिक रूप से सक्षम लोगों के लिए भी संभव नहीं हो पाए। प्रकृृति ने आपके मन में जितनी प्रबल शक्ति प्रदान की है, पृथ्वी के हर मनुष्य के मन में भी उतनी ही शक्ति विद्यमान है, लेकिन मनुष्य उस शक्ति को पहचान पाने में असमर्थ है क्योंकि धर्म और ज्योतिष ने उनके मन-मस्तिष्क पर बेडिय़ां डाल रखी हैं।

कार्ल माक्र्स ने कहा था कि धर्म अफीम के नशे की तरह है। अफीम के नशे में धुत्त इंसान को कुछ नहीं दिखता। मनुष्य द्वारा सृजित धर्म कहते हैं कि तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी घटित हो चुका है, हो रहा है तथा होने वाला है, वह सब कुछ अल्ला, ईश्वर, गॉड की इच्छा से ही हुआ है, हो रहा है तथा होने वाला है। ज्योतिष शास्त्र भी कहता है कि मनुष्य का जीवन ग्रह-नक्षत्रों की चाल से ही बदलता है। इस प्रकार इन मानव सृजित धर्मों तथा ज्योतिष शास्त्र ने युगों-युगों से समूची मानव जाति को उसकी असीम शक्ति से वंचित कर रखा है।

दरअसल मनुष्य के मन पर ही उसका जीवन निर्भर करता है। मनुष्य का मन फोटोस्टेट मशीन की तरह होता है, जिस प्रकार फोटोस्टेट मशीन में जो भी तस्वीर डाली जाती है, वही तस्वीर निकलकर आती है, ठीक उसी तरह मनुष्य मन में जैसे विचार रखता है, उसका जीवन भी वैसा ही हो जाता है। आम तौर पर मनुष्य के मन में अपने भविष्य के प्रति अनिश्चयता से उत्पन्न डर, दूसरों के प्रति हिंसा-ईर्ष्या की भावना, दूसरों का हक मारकर अपना पेट भरने की लालसा आदि नकारात्मक भावनाओं की ही बहुलता रहती है और इसी वजह से मनुष्य का जीवन अशांति, अनिश्चयता, डर, बैचेनी आदि से पीडि़त रहता है।

अगर मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारों में जाकर पूजा-पाठ, प्रार्थना करने, पशु-पक्षियों की बलि-कुर्बानी देने से ही मनुष्य का जीवन संवर जाता तो आज भारत दुनिया के सबसे सबल, उन्नत, समृद्ध व शांतिपूर्ण राष्ट्रों में गिना जाता क्योंकि दुनिया में सबसे ज्यादा मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे तथा लगभग 98 लाख 80 हजार संत-बाबा इस देश के चप्पे-चप्पे पर मौजूद हैं। लेकिन फिर भी भारतवर्ष दुनिया के सबसे पिछड़े व गरीब देशों में गिना जाता है।

आज भी 19.40 करोड़ भारतीय भूखे पेट सोने को अभिशप्त हैं। विश्व के अति गरीब लोगों में से सर्वाधिक 33 प्रतिशत भारत में रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारों और शनि, मंगल, बुध सरीखे ग्रह-नक्षत्रों के प्रति अत्यधिक आसक्ति ने भारतीयों के पांवों में बेडिय़ां डाल रखी हैं।

गत 7 दिसंबर को इंडोनेशिया में आये भीषण भूकंप में जान-माल की भारी क्षति के साथ ही 14 मस्जिदें भी ढह गईं। गत 10 दिसंबर को नाईजीरिया में एक चर्च की छत गिर जाने से उसमें प्रार्थना करने के लिए एकत्रित हुए 160 लोगों की अकाल मृत्यु हो गई। भारत का प्रसिद्ध तीर्थस्थान केदारनाथ चार धामों में से एक धाम माना जाता है, जिसकी यात्रा करके हर धर्मपरायण हिन्दू न सिर्फ खुद को धन्य समझता है, बल्कि उसे ऐसा महसूस होता है मानो उसने ईश्वर का दर्शन पा लिया हो और उसके सारे कष्ट दूर हो गए हों।

11 जून 2013 को बादल फटने व ग्लेशियर टूटने के कारण आये जलजले से इस तीर्थस्थान पर प्रकृृति का जो कहर बरपा, उसकी कल्पना करने मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। चारों ओर लाशें ही लाशें और मकानों, दुकानों, मंदिरों के भग्नावशेष बिखरे पड़े थे। मानो वह कोई तीर्थस्थान नहीं, विशाल कब्रिस्तान हो। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में भी महा-विनाश हुआ।

पशुपतिनाथ मंदिर से जुड़े 264 हेक्टेयर क्षेत्र में मौजूद छोटे-बड़े 518 मंदिर लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो गए। उपरोक्त घटनाएं क्या यह सवाल पूछने के लिए काफी नहीं है कि दुनिया में कहीं कोई ईश्वर, अल्ला या गॉड होता तो प्रकृृति की क्या मजाल थी कि वह इन मंदिरों-मस्जिदों, गिर्जाघरों-तीर्थस्थानों को इस तरह नेस्तनाबुत कर पाती ? इन घटनाओं से प्रमाणित होता है कि प्रकृृति से ऊपर और प्रकृृति से ज्यादा ताकतवर और कोई नहीं है। आपको जानकर अचरज होगा कि मैंने प्रकृृति के नियमों के विपरीत बने कई मंदिरों के ढांचे में प्रकृृति के नियमों के अनुकूल परिवर्तन करवाया है।

भारतवर्ष में ऐसे हजारों मंदिर हैं, जिनका निर्माण प्रकृृति के नियमों के अनुसार किया गया है। अगर भगवान होता और प्रकृृति से ज्यादा बड़ा व ताकतवर होता तो भला इन मंदिरों की प्रकृृति के नियमानुसार निर्माण की जरूरत क्यों पड़ती ? ऐसे में आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य द्वारा सृजित भगवान बड़ा है अथवा हमारी प्रकृृति बड़ी है। आगे आपने लिखा है कि आज हमने ऐसी तकनीक विकसित कर ली है, जिसके सहारे धरती को ही नष्ट कर रहे हैं, लेकिन इस विनाश से बचने के लिए हमने कोई तकनीक विकसित नहीं की है। मनुष्य को यह भ्रम है कि वह इस धरती को नष्ट
करने की क्षमता रखता है, जबकि सच्चाई यह है कि धरती खुद समूची मानवता को चंद पलों में धुलिसात करने की क्षमता रखती है।

मनुष्य को धरती को बचाने के लिए किसी तकनीक को विकसित करने की चिंता छोड़कर मानव जाति को बचाने के लिए सृष्टि की तकनीक की मदद लेनी चाहिए। सृष्टि की रचना इतनी सुंदर है कि अगर मनुष्य उसके नियमानुसार गृहनिर्माण कर उसमें निवास करे तो फिर उसका जीवन सुंदर से सुंदरतम बन सकता है। हमारी धरती का निर्माण जिन तत्वों से हुआ है, अगर मनुष्य उन तत्वों को यथास्थान पर रखकर गृहनिर्माण करें तो उसे न तो किसी प्रकार का तनाव झेलना पड़ेगा, न बीमारियों से जार-जार होना पड़ेगा, न आॢथक तंगी का शिकार होना पड़ेगा और न ही किसी अवांछित समस्या से जूझना पड़ेगा।

उदाहरण स्वरूप अगर मनुष्य अपने घर में गलत जगह पर कुंआ, बोरवेल स्थापित करता है तो उसका जीवन अशांति, अभावों, तनावों से ही जर्जर नहीं होता बल्कि दुर्घटना व अकाल मृत्यु का भी शिकार होना पड़ता है। हर वर्ष विश्व में करोड़ों लोग गलत स्थान पर बोरेवेल, कुंए आदि के निर्माण की वजह से दुर्घटना व अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं। इसके विपरीत अगर सृष्टि के नियमानुसार ठीक जगह पर कुंआ, बोरवेल स्थापित किया जाता है तो उस घर में वास करने वालों को सुख, शांति, समृद्धि व निरोगी जीवन प्राप्त होता है।

सृष्टि के नियमानुसार अगर यथास्थान पर रसोईघर का निर्माण किया जाता है तो जीवन में आर्थिक उन्नति, निरोगी काया व पारिवारिक सुकुन प्राप्त होता है। लेकिन अगर गलत स्थान पर किचन का निर्माण किया जाता है तो न सिर्फ परिवार में रोगों की बहुतायत होती है, बल्कि परिवार का दिवाला भी पिट जाता है।

यथा स्थान पर बेडरुम होने से जहां मनुष्य को अच्छी नींद आती है, वहींगलत स्थान पर बेडरुम होने, बीम के नीचे व गलत दिशा में सिर रखकर सोने से मनुष्य न सिर्फ अनिद्रा, तनाव व रक्तचाप झेलने पर मजबूर होता है, बल्कि अधिक दिनों तक उस स्थान पर सोने पर पागल भी हो जाता है। आज विश्व के करोड़ों लोग गलत दिशा में सिर रखकर सोने, बीम के नीचे अथवा गलत स्थान पर सोने की वजह से न सिर्फ स्थाई रुप से प्रेशर की बीमारी के शिकार हो रहे हैं, बल्कि पागल भी हो रहे हैं। WHO के मुताबिक, दुनियाभर में मानसिक रोग से पीडि़त लोगों की अनुमानित संख्या करीब 45 करोड़ है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2020 तक अवसाद विश्व में दूसरा सबसे बड़ा रोग होगा। आँकड़ों के अनुसार विश्व की 12 प्रतिशत आबादी मानसिक बीमारियों की शिकार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर 5 में से 1 महिला और हर 12 में से 1 पुरुष मानसिक व्याधि का शिकार हैं। नेशनल कमीशन ऑन माइक्रोइकॉनामिक्स और हेल्थ के आंकड़े बताते हुए भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने लोकसभा में मई 2016 में जानकारी दी थी कि भारत में करीब 6 करोड़ लोग मानसिक तौर पर बीमार हैं।

राजकुमार झांझरी
वास्तु वैज्ञानिक व अध्यक्ष,
रि-बिल्ड नॉर्थ ईस्ट, गुवाहाटी, असम (भारत)
094350 10055

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