- July 24, 2019
13 किलोग्राम का उल्का (Meteorite) पिण्ड- -दाम 1820000000 रुप्ये
पटना—-मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने संकल्प,1 अणे मार्ग में मधुबनी के लौकही अंचल के ग्राम महादेवा में 22 जुलाई 2019 को मिले संभावित उल्का पिण्ड का अवलोकन किया। अवलोकन के क्रम में देखा गया कि संभावित उल्का पिण्ड में चुम्बकीय शक्ति है। इसका वजन लगभग 13 किलोग्राम है।
मुख्यमंत्री ने संभावित उल्का पिण्ड का अध्ययन कराने का निर्देष दिया। लोगों के
अवलोकन के लिए संभावित उल्का पिण्ड को फिलहाल बिहार म्यूजियम में रखा जायेगा तथा बाद में इसे सांइस म्यूजियम में हस्तांतरित कर दिया जायेगा।
इस अवसर पर मुख्यमंत्री के परामर्षी श्री अंजनी कुमार सिंह, मुख्यमंत्री के प्रधान
सचिव श्री चंचल कुमार, प्रधान सचिव विज्ञान एवं प्रावैधिकी श्रीमती हरजोत कौर, मुख्यमंत्री के सचिव श्री अनुपम कुमार, मुख्यमंत्री के विषेष कार्य पदाधिकारी श्री गोपाल सिंह, अपर सचिव मुख्यमंत्री सचिवालय श्री चंद्रशेखर सिंह भी उपस्थित थे।
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***** विशेष ********* उल्का पिण्ड (Meteorite):
उल्का पिण्ड तीव्र गति से अन्तरिक्ष में घूमते रहते हैं। उल्का पिण्ड जब पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं तो घर्षण के कारण वह जलकर चमकने लगते हैं। जलने के पश्चात यह राख में बदल कर धरती पर बिखर जाते हैं। सामान्यतः इनको शुटिंग स्टार (Shooting Stars) कहते हैं ।
अन्तरिक्ष से कोई भी वस्तु पृथ्वी के धरातल पर गिरती है तो उल्का पिण्ड (Meteorite) कहलाती है। ये उल्का पिण्ड चट्टानों के टुकड़े, राख, निकिल-लोहे आदि के बने होते हैं।
विश्व में उल्का पिण्ड के गिरने से अरिजोना राज्य में एक बहुत बड़ा क्रेटर बन गया था। कहा जाता है कि, 1300 मीटर गहरा यह क्रेटर लगभग दस हजार वर्ष पूर्व बना था।
उल्का वर्षा (meteor shower) एक खगोलीय घटना है जिसमें किसी ग्रह पर अकाश के एक ही स्थान से बार-बार कई उल्का बरसते हुए प्रतीत होते हैं। यह उल्का वास्तव में खगोलीय मलबे की धाराओं के ग्रह के वायुमंडल पर अति-तीव्रता से गिरने से प्रस्तुत होते हैं।
अधिकतर का आकार बहुत ही छोटा (रेत के कण से भी छोटा) होता है इसलिए वह सतह तक पहुँचने से बहुत पहले ही ध्वस्त हो जाते हैं। अधिक घनी उल्का वर्षा को उल्का बौछार (meteor outburst) या उल्का तूफ़ान (meteor storm) कहते हैं और इनमें एक घंटे में 1000 से अधिक उल्का गिर सकते हैं।
पृथ्वी पर समीप से गुज़रने वाले धूमकेतु अक्सर उसपर उल्का वर्षा कर सकते हैं। मसलन स्विफ़्ट-टटल घूमकेतु से सम्बन्धित उल्का वर्षा हर वर्ष मध्य-जुलाई से मध्य-अगस्त के बीच दिखती है – यह आकाश में ययाति तारामंडल क्षेत्र में दिखती है, जिसे अंग्रेज़ी में “पर्सियस कॉस्टेलेशन” कहते हैं जिस कारणवश इस वर्षा को पर्साइड्ज़ (Perseids) कहा जाता है।
उल्कापिंडों का एक बृहत् संग्रह कलकत्ते के भारतीय संग्रहालय (अजायबघर) के भूवैज्ञानिक विभाग में प्रदर्शित है। इसकी देखरेख भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्था के निरीक्षण में होती है।
इस संग्रह में विदेशों से भी प्राप्त नमूने रखे गए हैं। एशिया भर में यह संग्रह सबसे बड़ा है और विश्व के अन्य संग्रहों में भी इसका स्थान अत्यंत ऊँचा है, क्योंकि एक तो इसमें अनेक भाँति के नमूने हैं और दूसरे अनेक नमूने अति दुर्लभ जातियों के हैं।
सब मिलाकर इसमें 468 विभिन्न उल्कापात निरूपित हैं, जिनमें से 149 धात्विक और 319 आश्मिक वर्ग के हैं।
इस संग्रहालय की सबसे बड़ी भारतीय आश्मिक उल्का इलाहाबाद जिले के मेडुआ स्थान से प्राप्त हुई थी।
30 अगस्त 1920 को प्रात: 11 बजकर 15 मिनट पर गिरी था। उसका भार प्राय: 56,657 ग्राम (4,818तोले) है और दीर्घतम लंबाई 12 इंच है।
दूसरा स्थान — मलाबार में कुट्टीपुरम ग्राम में 6 अप्रैल 1914 को प्रात: काल 7 बजे गिरा था। इसका भार 38,437 ग्राम (3,295 तोले) है।
इस संग्रह में रखे हुए उल्कापिंडों का विवरण भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के मेमॉयर संख्या 75 में विस्तारपूर्वक दिया हुआ है।
धात्विक और आश्मिक अंगों की प्रधानता के आधार पर उल्कापिंड वर्गीकृत किए जाते हैं। किंतु इन पिंडों में रासायनिक तत्वों और खनिजों के वितरण के संबंध में कोई सुनिश्चित आधार प्रतीत नहीं होता।
उल्कापिंडों के तीन मुख्य वर्गों के अतिरिक्त अनेकानेक उपवर्ग हैं जिनमें से प्रत्येक का अपना पृथक् विशेष खनिज समुदाय है।
अभी तक प्राय: 25 नए वर्गों का पता लगा है और प्राय: प्रति दो वर्ष एक नए उपवर्ग का पता लगता रहा है। कठिनाई इस बात की है कि अध्ययन के लिए उपलब्ध पदार्थ अत्यंत अल्प मात्रा में होते हैं।
अभी तक उल्कापिंडों में केवल 52 रासायनिक तत्वों की उपस्थिति प्रमाणित हुई है जिनके नाम निम्नलिखित हैं:
ऑक्सीजन। गंधक। प्लैटिनम। लोहा।आर्गन गैलियम। फ़ास्फ़ोरस वंग (राँगा), आर्सेनिक जरमेनियम बेरियम वैनेडियम इंडियम ज़िरकोनियम बेरीलियम। सिलिकन। इरीडियम। टाइटेनियम। मैंगनीज़ सीज़ियम। ऐंटिमनी टेलूरियम मैगनीशियम सीरियम। ऐल्युमिनियम। ताम्र मौलिबडेनम सीस (सीसा)। कार्बन थूलियम यशद (जस्ता)। सोडियम कैडमियम। नाइट्रोजन रजत (चाँदी) स्कैंडियम। कैल्सियम। निकल। रुथेनियम स्वर्ण (सोना)। कोबल्ट पारद रुबीडियम स्ट्रौंशियम। क्रोमियम। पैलेडियम। रेडियम। हाइड्रोजन। क्लोरीन। पोटैसियम लीथियम। हीलियम
इन 52 तत्वों में से केवल आठ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जिनमें हालों सबसे प्रमुख है। अन्य सात में क्रमानुसार ऑक्सिजन, सिलिकन, मैंगनीशियम, गंधक, ऐल्युमिनियम, निकल और कैल्सियम हैं।
20 अन्य तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं तथा उनकी उपस्थिति का पता साधारण रासायनिक विश्लेषण द्वारा 1926 से पूर्व ही लग चुका था।
शेष 24 तत्व अत्यंत अल्प मात्रा में विद्यमान हैं एवं उनकी उपस्थिति वर्णक्रमदर्शकी (स्पेक्ट्रोग्रैफिक) विश्लेषण से सिद्ध की गई है।
उल्कापिंड़ों में धातुएँ शुद्ध रूप में बहुत प्रचुरता से तथा प्राय: अनिवार्यत: पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कई ऐसे खनिज हैं जो भूमडलीय शैलों में नहीं पाए जाते, पर उल्कापिंडों में मिलते हैं। इनमें से प्रमुख ओल्डेमाइट (कैल्सियम का सल्फाइड) और श्राइबेरसाइट (लोहे और निकल का फ़ॉसफ़ाइड) हैं।
उल्कापिंडों का वर्गीकरण————–
कुछ पिंड अधिकांशत: लोहे, निकल या मिश्रधातुओं से बने होते हैं और कुछ सिलिकेट खनिजों से बने पत्थर सदृश होते हैं। पहले वर्गवालों को धात्विक और दूसरे वर्गवालों को आश्मिक उल्कापिंड कहते हैं।
कुछ पिंडों में धात्विक और आश्मिक पदार्थ प्राय: समान मात्रा में पाए जाते हैं, उन्हें धात्वाश्मिक उल्कापिंड कहते हैं।
वस्तुत: पूर्णतया धात्विक और पूर्णतया आश्मिक उल्कपिंडों के बीच सभी प्रकार की अंत:स्थ जातियों के उल्कापिंड पाए जाते हैं जिससे पिंडों के वर्ग का निर्णय करना बहुधा कठिन हो जाता है।
संरचना के आधार पर तीनों वर्गो में उपभेद किए जाते हैं।
आश्मिक पिंडों में दो मुख्य उपभेद हैं जिनमें से एक को कौंड्राइट और दूसरे को अकौंड्राइट कहते हैं। पहले उपवर्ग के पिंड़ों का मुख्य लक्षण यह है कि उनमें कुछ विशिष्ट वृत्ताकार दाने, जिन्हें कौंड्रयूल कहते हैं, उपस्थित रहते हैं। जिन पिंड़ों में कौंड्रयूल उपस्थित नहीं रहते उन्हें अकौंड्राइट कहते हैं।
धात्विक उल्कापिंड़ों में भी दो मुख्य उपभेद हैं जिन्हें क्रमश: अष्टानीक (आक्टाहीड्राइट) और षष्ठानीक (हेक्साहीड्राइट) कहते हैं।
ये नाम पिंडों की अंतररचना व्यक्त करते हैं और जैसा इन नामों से व्यक्त होता है, पहले विभेद के पिंडों में धात्विक पदार्थ के बंध (प्लेट) अष्टानीक आकार में और दूसरे में षष्ठीनीक आकार में विन्यस्त होते हैं। इस प्रकार की रचना को विडामनस्टेटर कहते हैं एवं यह पिंड़ों के मार्जित पृष्ठ पर बड़ी सुगमता से पहचानी जा सकती है।
धात्वाश्मिक उल्कापिंडों में भी दो मुख्य उपवर्ग हैं जिन्हें क्रमानुसार पैलेसाइट और अर्धधात्विक(मीज़ोसिडराइट) कहते हैं।
इनमें से पहले उपवर्ग के पिंडों का आश्मिक अंग मुख्यत: औलीवीन खनिज से बना होता है जिसके स्फट प्राय: वृत्ताकार होते हैं और जो लौह-निकल धातुओं के एक तंत्र में समावृत्त रहते हैं।
अर्धधात्विक उल्कापिंडों में मुख्यत: पाइरौक्सीन और अल्प मात्रा में एनौर्थाइट फ़ेल्सपार विद्यमान होते हैं।
बिहार में सोने के वर्षे————अगर यह बहुमूल्य धातु है तो इसका कीमत —–
2 डालर प्रति ग्राम से 20 डालर प्रति ग्राम है .
13 किलोग्राम उल्का (Meteorite) का दाम
2 डालर प्रति ग्राम —— (1= 70 रुप्ये)
2*70 = 140 रुप्ये
1000 ग्राम * 140 रुप्ये -140000 रुप्ये
13000 ग्राम * 140000 रुप्ये = 1820000000 रुप्ये
बिहार सरकार को हाथ पर हाथ धडे बैठे नही रहना चाहिये और इस धातु से धन निकालने के लिये तुरंत कदम उठाना चाहिये.
(गुगल से सभार)