भारत में भी तंग श्याओ फिंग जैसा कोई नेता की आवश्यकता – अशोक लाहिड़ी

भारत में भी तंग श्याओ फिंग जैसा कोई नेता की आवश्यकता – अशोक लाहिड़ी

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विद्वान एजरा वोगल ने अपनी किताब ‘तंग श्याओ फिंग ऐंड ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ चाइना’ में निष्कर्ष दिया है कि 20वीं सदी के किसी भी नेता ने इतनी बड़ी संख्या में लोगों के जीवन में सुधार नहीं किया जितना तंग ने किया। या फिर विश्व इतिहास में किसी और नेता का इतना जबरदस्त प्रभाव नहीं रहा। सन 1976 में माओ त्से तुंग की मौत के बाद चीन अभी भी सांस्कृतिक क्रांति के झटके से उबर नहीं पाया था। 

उस वक्त तंग श्याओ फिंग ने सन 1978 में देश का नेतृत्व संभाला। वह अगले 17 सालों तक चीन के निर्विवाद नेता बने रहे। सन 1997 में उनके निधन के वक्त चीन का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सन 1978 के 216.8 अरब रेनमिनबी से करीब चार गुना बढ़कर 860.8 अरब रेनमिनबी हो चुका था। एक अरब से अधिक आबादी वाले चीन में एक बड़ा बदलाव आ चुका था।

तंग की मशहूर उक्ति है, ‘बिल्ली काली हो या सफेद, जब तक वह चूहे पकड़ रही है तब तक वह अच्छी है बिल्ली है।’ वह एक ऐसे नेता थे जिनकी वैचारिक सिद्घांतों में बहुत अधिक आस्था नहीं थी। वह चीन को न तो सोवियत शैली के वामपंथ की ओर ले गए और न ही लोकतंत्र की ओर बल्कि उन्होंने एक अलग ही समाजवादी अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति विकसित की जिसमें चीन के विशिष्टï गुणधर्म थे। उन्होंने सामूहिक खेती को खत्म किया और किसानों को जमीन दे दी। विदेशी उद्यमों समेत निजी उद्यमों को बढ़ावा दिया और अर्थव्यवस्था को विदेशी व्यापार के लिए खोला।

तंग के सुधारों के बाद कई लोगों ने चीन में वामपंथ की संभावनाओं पर शंका जताई। लेकिन भारत में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने तंग के चीनी गुणों वाले वामपंथ का समर्थन किया और उसे आगे बढ़ाया। कोझिकोड में वर्ष 2012 में आयोजित पार्टी की 20वीं कांग्रेस में वैचारिक मसलों पर बनी सहमति में कहा गया कि चीन समाजवाद की प्रारंभिक अवस्था में है और सुधारों का लक्ष्य उत्पादक शक्तियों के स्तर और समाजवादी उत्पादन के बीच संतुलन हासिल करना है।

तंग के प्रशंसक पूरी दुनिया में हैं। भारत में केवल माकपा ही नहीं बल्कि अन्य तमाम नेता उनके चाहने वाले थे। पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहराव जो सन 1991 के सुधारों के प्रणेता थे, वह भी उनमें से एक थे। कहा तो यह भी जाता है कि दिसंबर 1988 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पेइचिंग गए लेकिन अपने साथ उस वक्त के विदेश मंत्री राव को नहीं ले गए तो राव इस बात पर नाराज भी हुए थे।

जयराम रमेश ने अपनी किताब ‘टु द ब्रिंक ऐंड बैक’ में नरसिंह राव को भारत का तंग श्याओ फिंग कहा है। प्रधानमंत्री राव तथा उनके वित्त मंत्री रहे मनमोहन सिंह को सन 1991 के सुधारों के लिए याद किया जाता है। लेकिन चीन में तंग के योगदान की तुलना में भारत में राव का प्रदर्शन सीमित ही रहा। वह तकरीबन 70 वर्ष की उम्र में देश के प्रधानमंत्री बने और पांच साल बाद पदमुक्त होने के बाद अप्रासंंगिक हो गए।

पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने मनमोहन सिंह की तुलना तंग श्याओ फिंग से की। तंग ने चीन पर लगातार 17 साल तक शासन किया। उन्होंने सन 1992 में पद छोड़ा लेकिन सन 1997 में अपने निधन तक वह निर्विवाद नेता बने रहे। मनमोहन सिंह सन 1996 से 2004 के आरंभ तक सत्ता से बाहर रहे। वर्ष 2004 से 2014 तक वह देश के प्रधानमंत्री रहे। इस अवधि में न केवल सुधारों की मात्रा को लेकर संदेह जताए गए बल्कि उनकी वास्तविक शक्तियों को लेकर भी। शायद भारत को अब तक अपना तंग श्याओ फिंग नहीं मिल सका है।

प्रधानमंत्री मोदी के बारे में अभी कोई राय प्रकट करना बहुत जल्दबाजी होगी लेकिन कुछ समानताएं तो देखी ही जा सकती हैं। तंग की प्रमुख उक्ति थी कि विकास ही मूल सिद्घांत है। यह बात मोदी के विकास पर जोर से मेल खाती है। दिल्ली मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर पर उनका जोर तंग के सन 1980 के दशक में आर्थिक क्षेत्र संबंधी पहलों पर दिए गए जोर से मेल खाता है। तंग का जोर दक्षिणी चीन और तटवर्ती ग्वांगतोंग और फुचियान प्रांतों को लेकर था। सन 1979 से 1997 के बीच तंग की तरह मोदी भी फिलवक्त देश के निर्विवाद नेता हैं।

सन 1989 में जब तंग सत्ता में थे तभी थ्येन आनमन चौक नरसंहार हुआ था। उनकी स्मृतियों के साथ ही यह हादसा भी याद आता है। मोदी की तरह ही तंग का नाम भी शुरू से ही विवादों में रहा। उदाहरण के लिए सन 1957 में दक्षिणपंथ विरोधी अभियान ने पांच लाख से अधिक बौद्घिकों को शिकार बनाया और चीन के बेहतरीन वैज्ञानिक और तकनीकी मस्तिष्क वाले लोगों को नष्टï किया। वर्ष 2002 में गोधरा में ट्रेन को जलाये जाने के बाद हुए दंगों में अदालत से राहत पाने के बाद भी मोदी पर अंगुली उठाई जाती है।

लेकिन क्या कोई प्रधानमंत्री खुद को देश के तंग श्याओ फिंग में बदल सकता है? इसके लिए कुछ चीजों की आवश्यकता होगी। पहली बात तो उसे तंग की तरह लंबे और अबाध शासनकाल की आवश्यकता होगी। गौरतलब है कि तंग ने डेढ़ दशक से अधिक समय तक शासन किया। तंग को अपनी कम्युनिस्ट पार्टी का भी प्रबंधन करना था लेकिन चीन की शासन व्यवस्था में वह आसान रहा होगा बजाय कि तीन लोकसभा चुनाव जीतने के।

पंडित नेहरू के बाद किसी प्रधानमंत्री को लगातार तीन चुनाव जीतने में कामयाबी नहीं मिली है। यह काम असंभव नहीं तो भी मुश्किल जरूर है। इसके अलावा संबंधित नेता को देश के संविधान और कानूनों के अधीन भी काम करना होता है। यहां तक कि विशिष्टï पहचान संख्या या आधार को भी हाल के दिनों में कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। चीन में उपलब्ध खाद्यान्न, आवास, स्वास्थ्य एवं शिक्षा सुविधाओं के घरेलू पंजीकरण के लिए हुकोऊ व्यवस्था का प्रभावी पालन हुआ है और उसने ग्रामीण-शहरी विस्थापन की प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने काम किया है। उसकी वजह से अनियोजित शहरीकरण नहीं हुआ। भारत में वैसी व्यवस्था लागू करना टेढ़ी खीर है।

तीसरा एक भारतीय प्रधानमंत्री को कई सुधारों को लागू करने के लिए राज्यों के सहयोग की आवश्यकता होगी। खासतौर पर जमीनी सुधारों के मामले में। देश के सभी राज्यों में किसी एक दल की सरकार होने की संभावना निकट भविष्य में तो नहीं नजर आ रही है। चीन जैसे एकदलीय देश के उलट हमारे यहां केंद्र राज्य समन्वय अधिक कठिन प्रतीत होता है। क्या इन सारी बातों का अर्थ यह है कि भारतीय लोकतंत्र देश के लिए तंग श्याओ फिंग पैदा करने के मार्ग की बाधा है? नहीं ऐसा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि भारत के तंग के समक्ष ऐसी अनूठी चुनौतियां होंगी जो चीन के तंग के समक्ष नहीं थीं। उनके पास अपनी चुनौतियां थीं और वह उनसे सफलतापूर्वक निपटे। भारत के ऐसे किसी भी संभावनाशील नेता को यही करना होगा।

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