भारत की राजनीति में 2019 का लोकसभा चुनाव —- सज्जाद हैदर

भारत की राजनीति में 2019 का लोकसभा चुनाव —-  सज्जाद हैदर

भारत की राजनीति में 2019 का लोकसभा चुनाव बहुत ही अहम स्थिति में है। क्योंकि, देश की बदलती हुई राजनीति के साथ उभरती हुई राजनीति के बीच एक बड़ी लड़ाई होने वाली है जो कि, वास्तव में शून्य स्तर पर अपने पैर मजबूती के साथ गड़ाए हुए है। इसलिए के देश के बदलते हुए राजनीतिक समीकरण में 2019 का लोकसभा चुनाव महत्वपूर्ण चुनावी वर्ष बन गया है। क्योंकि, मौजूदा राजनीतिक वर्चस्व को बचाने एवं सत्ता पर बने रहने की कवायद बड़े ही योजना बद्ध तरीके से शुरू हो गयी है साथ-साथ परिवर्तन की भी राजनीति ने अपनी पूरी क्षमता के साथ जनता के बीच जनता से जुड़े हुए मुद्दों को लेकर पहुँचने का प्रयास कर रही है। जिसे आसानी के साथ धरातल पर देखा जा सकता है। इसके बाद दूसरा अहम बिन्दु है गठबंधन का।

आज देश की राजनीति में छोटी पार्टियां जहाँ अपने अस्तिव को बचाने की कवायद में जोड़-तोड़ की राजनीति में लगी हुई हैं। वहीं कुछ प्रदेशिक स्तर की बड़ी राजनीति पार्टियां चुनावी गठबंधन में छोटी पार्टियों को अपने साथ लेकर अपनी जमीन को मजबूत एवं प्रबल करने का भरसक प्रयास करती हुई दिखाई दे रही हैं। क्योंकि, पूर्ववर्ती चुनाव 2014 का चुनाव इससे इतर था। उस समय प्रदेश स्तर की पार्टियों ने लोकसभा का चुनाव अलग ही लड़ा था। उस समच देश की सियासी स्थिति लगभग एक जैसी ही थी। क्योंकि, देश के बड़े सियासी प्रदेशों की सूची में उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे राज्यों का नाम आता है। जोकि, देश की राजनीति में किसी भी राजनीतिक पार्टी को देश की सत्ता की कमान सौपने में अपनी अहम भूमिका रखता है।

ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुख्य रूप से सपा एवं बसपा अपना मजबूत जनाधार रखती हैं। जोकि, 2014 के लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था जिससे जनता का मत दोनों पार्टियों में विभाजित हुआ था। परन्तु, 2019 के चुनाव में ऐसा कदापि नहीं है सपा एवं बसपा एक ही मंच पर एक साथ खड़े होकर चुनावी बिगुल बजा रही हैं जिससे कि इस बार भारी संख्या में मत प्रतिशत के विभाजन होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह अलग विषय है कि कुछ मत अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इधर-उधर चला जाए।

अब आपको लेकर चलते हैं उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य बिहार में, बिहार की राजनीति भी उत्तर प्रदेश से पूरी तरह से मेल खाती है। दोनों प्रदेश की राजनीतिक रेखाएं लगभग एक समान हैं। क्योंकि, आज के युग में जातीय समीकरणों पर आधारित राजनीति का वर्चस्व है। यदि इस वर्चस्व के केंद्र में उत्तर प्रदेश की राजनीति आती है तो बिहार भी इससे अछूता नहीं है। बिहार भी जातीय समीकरण की राजनीति पर ही अधारित है।

यादव-मुस्लिम के जातीय समीकरण को जहाँ लालू की पार्टी राजद अपने साथ साधती है तो वहीं गैर यादव मतदाताओं को नीतीश की पार्टी जदयू अपने साथ साधने का भरसक प्रयास करती है। परन्तु इस बार के चुनाव में उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति बिहार के गठबंधन में नहीं है। बिहार की धरती पर दोनों क्षत्रप अलग-अलग दिशा में चुनाव लड़ रहे हैं। नीतीश ने जहाँ अपना ठिकाना भाजपा में ढ़ूँढ़ निकाला वहीं राजद ने कांग्रेस का हाथ पकड़कर इस चुनाव में जाने का फैसला किया है।

परन्तु, जातीय स्तर की राजनीति में रस्सा कसी का दौर अपने चरम सीमा पर है। इसी रस्साकसी में कुशवाहा ने भी अपना नया ठिकाना खोज निकाला। और अपने राजनीतिक भविष्य की तालाश में जुट गए। उपेन्द्र कुशवाहा मौर्य बिरादरी से आते हैं, उन्होंने अपने बिरादरी को अपने साथ समेटने का प्रयास आरंभ कर दिया।

इसके बाद बात आती है दलित मतदाताओं की जिसके बलबूते रामविलास पासवान अपनी राजनीति को चमकाते हैं। तो अब दलित वोट बैंक में दो फाट हो गए हैं अब रामविलास पासवान से दलित जनाधार को छीनने के लिए जीतनराम अध्यक्ष “हम” इस बार जीतनराम माँझी भी दलितों के मसीहा बनकर उभर रहे हैं जोकि गठबंधन के सहारे अपनी नैया पार करने की जुगत में लगे हुए हैं।

अब बात आती है अगड़ी जातियों की तो अगड़ी जातियों में भाजपा एवं कांग्रेस सीधे-सीधे अपनी रस्सा कसी करती रहती है। जिसे दूसरे दलों के साथ गठबंधन करके जनता के बीच अपनी पहचान बनाने का भरसक प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। इन दोनों राज्यों की राजनीति देश के चुनाव में अपना मजबूत जनाधार रखती है।

अब बात करते हैं संघर्ष एवं सियासी विरासत की लड़ाई की जिससे कि देश को नए प्रयोग का आभास हो रहा है। इसीलिए 2019 का चुनाव और आकर्षण का केंद्र बन गया है। कि इस लोकसभा के चुनाव में संघर्ष एवं विरासत के बीच बड़ी राजनीति जंग है। जिसकी प्रयोग प्रयोगशाला यह चुनाव बन चुका है।

यदि शब्दों को बदलकर कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि 2019 का लोकसभा चुनाव राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में पूर्ण रूप से परिवर्तित हो चुका है। इस चुनाव में उत्तर प्रदेश की सियासी प्रयोगशाला में मुलायम के सियासी वारिस अखिलेश यादव इस बार अपने सियासी चेहरे के साथ मैदान में उतरे हुए हैं, अखिलेश ने इस बारी लोकसभा के चुनाव में बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष समाजवादी पार्टी का चेहरा हैं। जोकि, पहले सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह हुआ करते थे। परन्तु, इस बार ऐसा नहीं है। इस पद पर अखिलेश स्वयं विराजमान हैं।

सपा के सभी राजनीतिक फैसले अखिलेश स्वयं ही ले रहे हैं। इसीलिए 2019 का चुनाव और ही दिलचस्प है कि अखिलेश यादव अपनी राजनीतिक विरासत के साथ चुनावी मैदान में उतरे हुए हैं। जिससे कि पार्टी में प्रत्यासियों का चयन एवं गठबंधन जैसे बड़े फैसलों को अखिलेश की छवि के साथ ही जोड़कर देखा जा रहा है। क्योंकि, इस चुनाव में जिस प्रकार के परिणाम आएंगें उन परिणामों के साथ अखिलेश के राजनीतिक भविष्य की रूप रेखा भी तय होनी है।

क्योंकि, अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव राजनीति की दुनिया में अखिलेश के धुर बनकर उभरे हैं। कभी समाजवादी पार्टी के खेवनहार रहे शिवपाल यादव अब सियासत में सपा के ही विरोधी की भूमिका में जनता के बीच नजर आ रहे हैं। जिसे अधिक राजनीतिक गहराई में न जाकर सीधे-सीधे जो भी सियासी छवि बनी अथवा बनाई गई है उस आधार पर आंकलन किया जा रहा है। पर्दे के पीछे की सियासत के समीकरण क्या हैं उस क्षेत्र में जाने की आवश्यकता नहीं। अतः इसबार सपा के प्रदर्शन से मुलायम के असली राजनीतिक वारिस का भविष्य भी तय होना है।

यही स्थिति बिहार की है राजद प्रमुख का इस समय लोकसभा के चुनाव में जेल के अंदर होना तेजस्वी के लिए किसी अग्निपथ से कम नहीं है। इस बार तेजस्वी यादव राजद की कमान संभाल रहे हैं। राजद के सभी फैसले तेजस्वी स्वंय ही ले रहे हैं। इसलिए कि लालू के राजनीति में प्रवेश के बाद सदैव ही बिहार की राजनीति में एक बड़ा नाम राजद प्रमुख लालू प्रसाद का आता रहा है। अतः लालू के इस बार जेल के अंदर होने से लालू के सियासी वारिस का भी भविष्य तय होना है। कि क्या तेजस्वी लालू के जैसा करिश्मा कर पाएंगे जैसी सियासी कला लालू प्रसाद के अंदर है।

भीड़ जुटाने, भाषण की शैली, विरोधियों पर मजबूती के साथ सियासी प्रहार, व्यक्तिगत अपने नए-नए रूप से मीडिया एवं जनता के बीच चर्चा में बने रहना। यह सब गुण लालू के अंदर कूट-कूटकर भरा हुआ है। लालू को पता है कि कब कहां क्या बोलना है, कब कहां कौन सा रूप दिखाना है। क्या लालू जैसी कला तेजस्वी कर पाएंगे? यह मुख्य प्रश्न हैं। इसलिए इस चुनाव में लालू के असली वारिस का भी भविष्य तय होना है।

जो कि, भविष्य में सियासत की दुनिया में लालू का असली सियासी वारिस कौन होगा। क्योंकि, तेजस्वी से इतर मीसा भारती एवं तेजप्रताप भी सियासत की दुनिया में लालू के असली वारिस होने का सपना देख रहे हैं। तेजप्रताप ने तो अभी से ही तेजस्वी पर राजनीतिक दबाव बनाना आरंभ कर दिय़ा है। जिसकी रूप रेखा राजद से बाहर निकलकर बिहार की धरती पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है।

अब बात करते हैं कांग्रेस पार्टी की सियासी विरासत की जिसे पं जवाहरलाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने संभाला, इदिरा गांधी के बाद उस विरासत को राजीव गाँधी ने संभाला, अब काफी अंतराल के बाद राजीव के विरासत को संभालने की जिम्मेदारी राहुल के कंधो पर आ टिकी है, तो क्या 2019 के चुनाव में कांग्रेस के असली सियासी वारिस का भी भविष्य तय होगा। कि कांग्रेस का असली सियासी वारिस कौन है। क्योंकि, तेजी से अपना जनाधार खोती हुई कांग्रेस को कैडर स्तर पर मजबूती के साथ खड़ा करने की बड़ी चुनौती है जोकि, राहुल के सामने है।

क्या राहुल इस चुनौती को स्वीकार्य कर इसे भेद पाने में सफल हो पाते हैं, अथवा नहीं? क्योंकि, कांग्रेस पार्टी में प्रियंका की इंट्री हो गई है। प्रियंका को उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूती के साथ फिर से खड़ा करने की बड़ी जिम्मेदारी दी गई है। जिसको प्रियंका ने स्वीकार्य किया और पार्टी के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया जिसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। जहाँ उत्तर प्रदेश की धरती पर कांग्रेस को एक थकी हुई पार्टी मानकर महागठबंधन ने अपने साथ लेने से इन्कार कर दिया था उसी प्रदेश में प्रियंका के लिए कांग्रेस को जमीनी स्तर पर खड़ा करने की बड़ी चुनौती है। जो कि, प्रियंका के लिए किसी अग्नि पथ से कदापि कम नहीं है।

परन्तु, एक बात जनता के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। वह है प्रियंका की कांग्रेस में इंट्री जिसका जमीनी स्तर पर परिवर्तन दिखने लगा है। अतः एक बात स्पष्ट है कि यदि राहुल इंदिरा एवं कांग्रेस पार्टी के असली उत्तराधिकारी की भूमिका में कुछ खास नहीं कर पाए तो प्रियंका को कांग्रेस के उत्तराधिकारी के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग किया जा सकता है। जिससे की इस बार का चुनाव राहुल के लिए किसी अग्निपथ से कम नहीं है। राहुल को सभी सियासी चुनौतियों को स्वीकार्य करते हुए उसे भेदना ही पड़ेगा अन्यथा राहुल का राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस में सियासी भविष्य भी सुरक्षित नहीं रहेगा।

अतः इस बार का लोकसभा चुनाव सियासत के धुरंधरों के लिए अस्तित्व की लड़ाई बन गया है। जिसमें राजनीतिक विरासत से लेकर राजनीतिक अस्तित्व के बीच ही पूरी सियासी जंग देश के अंदर छिड़ी हुई है। इस बार का चुनाव सभी सियासी योद्धाओं के भविष्य का बड़ा एवं महत्वपूर्ण फैसला करने वाला है।

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