- March 28, 2016
भारतीय रिजर्व बैंक मूक दर्शक नियामक :- संसदीय समिति :: अंगूठे पर दिशा निर्देश-बीमा क्षेत्र -दिल्ली उच्च न्यायालय
(एम जे एंटनी) ———–देश के विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों में करीब 30 नियामक हैं। इन्हें उन दिग्गज कंपनियों से निपटना पड़ता है, जिन्हें वश में करना आसान नहीं होता है। पिछले महीने उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा कि खदानों के नियमन में अवैधता और खामियों के गंभीर आरोप हैं। वहीं, एक संसदीय समिति ने हाल में कहा था कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) मूक दर्शक नियामक बना हुआ है और वह कर्ज न लौटाने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाने में नाकामयाब रहा है।
हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय ने बीमा क्षेत्र को लेकर टिप्पणी की थी। न्यायालय ने कहा था कि इस क्षेत्र की कंपनियां उच्चतम न्यायालय और भारतीय बीमा विनियामक प्राधिकरण (आईआरडीएआई) के दिशानिर्देशों का उल्लंघन कर रही हैं। अदालत ने यह बात वर्ल्डफा एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस के मामले में कही। आग लगने की वजह से नुकसान झेलने वाली इस कंपनी ने बीमा कंपनी में दावा किया था। नुकसान का आकलन करने वाले अधिकारी ने नुकसान का आकलन किया। लेकिन बीमा कंपनी ने कम राशि की पेशकश की और कंपनी से कहा कि वह कम राशि के लिए ‘पूर्ण एवं अंतिम’ डिस्चार्ज वाउचर दे।
उच्च न्यायालय ने पाया कि बीमा कंपनी का यह रवैया कारोबारी नियमों के खिलाफ है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के कई फैसलों का हवाला दिया, जिनमें शीर्ष अदालत ने बीमा कंपनियों को फटकार लगाई थी। इन मामलों में बीमा कंपनियों ने सौदेबाजी की हैसियत नहीं रखने वाले बीमित व्यक्तियों का मुश्किल घड़ी में शोषण करते हुए बिना तारीख के ‘डिस्चार्ज वाउचर’ देने को कहा था।
ऐसा करना भारतीय अनुबंध अधिनियम के तहत दबाव और अनुचित प्रभाव के दायरे में आता है और यह कानूनी रूप से उचित नहीं है। इसे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत सेवा में कमी माना गया है। इनके अलावा पिछले साल सितंबर में खुद बीमा नियामक ने एक परिपत्र जारी कर बीमा कंपनियों को ऐसी अनुचित मांग नहीं करने का निर्देश दिया था। लगातार आ रही ऐसी शिकायतों के मद्देनजर उच्च न्यायालय ने एक सकारात्मक कदम उठाते हुए बीमा नियामक को निर्देश दिया कि वह सभी बीमा कंपनियों की बैठक बुलाए और उनसे यह हलफनामा ले कि वे परिपत्र के दिशानिर्देशों का पालन करेंगी।
इस मामले के लिए न्यायालय ने खुद का पर्यवेक्षक नियुक्त किया था। पर्यवेक्षक ने 29 बीमा कंपनियों की बैठक बुलाई और उनसे यह लिखकर देने को कहा कि वे बीमा नियामक के नियमनों का पालन करेंगी। हालांकि पर्यवेक्षक ने न्यायालय को बताया कि कोई भी सीधे-सीधे यह लिखकर नहीं देना चाहती थी। ‘पूर्ण एवं अंतिम’ का जाल केवल बीमा क्षेत्र तक ही नहीं फैला है और न ही यह उपभोक्ता के खिलाफ इस्तेमाल होने वाला एकमात्र तरीका है। उपभोक्ता को बड़ी कंपनियों से लडऩा पड़ता है। जब उपभोक्ता इन बड़ी कंपनियों को न्यायालय में घसीटते हैं और मुकदमा जीत जाते हैं तो उन्हें ये कंपनियां दंडित करती हैं। ऐसे ही एक मामले- विमान बोस बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया था। बीमा कंपनी ने बोस की पॉलिसी का उनके ‘पिछले बरताव’ के आधार पर नवीनीकरण करने से इनकार कर दिया। उनका पिछला बरताव क्या था? यह कि उन्होंने कंपनी के खिलाफ उपभोक्ता फोरम में मुकदमा किया था और हर्जाना हासिल किया था। अगर वह मुकदमा न करते तो कंपनी उन्हें भुगतान भी नहीं करती। इस याचिका की सुनवाई के लिए मंजूरी देते हुए उच्चतम न्यायालय ने बीमा कंपनी के रुख को ‘अनुचित और स्वैच्छिक’ बताया, लेकिन बोस को यह राहत नियामकीय संस्था से नहीं बल्कि न्यायालय मिली।
उपभोक्ताओं को डराना-धमकाना भी वित्तीय संस्थानों की एक युक्ति होती है। अज्ञानता और आने वाले खर्च की वजह से हर किसी के लिए प्रमुख शहरों में स्थित संबंधित नियामकीय संस्थाओं से संपर्क करना आसान नहीं होता है। इससे कंपनियां अनुचित कारोबार पद्धतियां अपनाकर भी बच निकलती हैं। ऊपर बोस का जो उदाहरण दिया गया है, उसी तरह कुछ हाउसिंग फाइनैंस कंपनियां भी अपनी हैसियत का दुरुपयोग करती हैं और ऋण राशि चुकाने के बाद भी गिरवी रखे मालिकाना हक के कागजात लौटाने से इनकार कर देती हैं।
डोसोन केमिकल्स बनाम यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया जैसे मामलों में राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने ऋणदाताओं पर जुर्माने लगाए हैं। हाल में एचडीएफसी ने एक महिला पर शर्त लगाई। उस महिला ने एचडीएफसी लिमिटेड के खिलाफ उपभोक्ता मामला जीतने के बाद पूरा ऋण लौटाने की पेशकश की थी। एचडीएफसी लिमिटेड ने महिला को लिखा कि गिरवी रखे मालिकाना हक के कागजात इस शर्त पर लौटाए जाएंगे कि ‘आप न्यायालयों या उपभोक्ता फोरम में एचडीएफसी लिमिटेड के खिलाफ दायर सभी शिकायतों को वापस लेंगी।’ आरबीआई द्वारा नियुक्त नियामक नैशनल हाउसिंग बैंक ने उनके मामले की सुनवाई नहीं की।
वहीं वित्तीय संस्थानों के मनमर्जी से कर्ज लेने वालों पर ‘आकस्मिक शुल्क’ और ‘अतिरिक्त ब्याज’ लगाने के अनेक मामले हैं। ऐसी उलझे शब्द शाइलॉक के वंशज ही गढ़ सकते हैं, जो ऋण देने वाली कंपनियों में भारी मुकदमेबाजी फंड पर कुंडली मारकर बैठे हैं और उन्हें कोई कानूनी समर्थन प्राप्त नहीं है, लेकिन वे सामान्य लोगों को हतोत्साहित करते हैं। यह तो महज एक बानगी है, ऐसे बहुत से मामले हैं।