भारतीय महिलाओं की राजनीतिक दशा और दिशा… आज भी हाशिए पर – मुरली मनोहर श्रीवास्तव

भारतीय महिलाओं की राजनीतिक दशा और दिशा… आज भी हाशिए पर –	मुरली मनोहर श्रीवास्तव

भारत गांवों का देश है, भारतीय महिलाएं शुरुआती दौर से सम्मान की पात्र रही हैं। मगर समाज में इनके हाशिए पर होने की बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। भारत की आधी आबादी का एक बहुत बड़ा भाग अभी भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है।

महिलाओं को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की जरुरत है। हलांकि ऐसी बात नहीं है कि इस पर काम नहीं हो रहा है, मगर जिस स्तर पर काम होना चाहिए उस स्तर पर काम नहीं हो रहा है। हां, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि महिलाओं के उत्थान के लिए बतोलेबाजी भी कुछ कम नहीं होती।भारतीय राजनीति में वर्षों से पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है, भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीछे अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढांचे का होना भी है।

90 के दशक में बढ़ी महिला भागीदारी

राजनीतिक दलों के भेदभावपूर्ण रवैये के बावजूद मतदाता के रूप में महिलाओं की भागीदारी 90 के दशक से बड़े पैमाने पर बढ़ी है। स्वंत्रता के छह दशक बाद भी इसमें असमानता आज भी बरकरार किसी न किसी रुप में देखने को जरुर मिल ही जाती है। चुनाव में कितना प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिया जाता है? क्यों महिलाएं समाज की मुख्य धारा से आज भी वंचित है? क्यों महिला आरक्षण बिल अभी पास नहींहुआ है? जैसे कई सवालों को लिए महिलाएं आज भी अपने हक की लड़ाई को घर से लेकर बाहर तक लड़ रही हैं।

महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति चिन्ताजनक!

2011 केजनगणना के अनुसार महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति काफी चिन्ताजनक है। देश में पुरुष साक्षरता दर 82.14 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर मात्र 65.46 प्रतिशत है। शैक्षणिक दृष्टि से महिला अब भी पिछड़ी हुई है और महिला शिक्षा के प्रसार की आज बहुत आवश्यकता है। हलांकि इस मसले पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बड़ा परिवर्तन तो किया है मगर लोकसभा के चुनाव में सीटों को लेकर थोड़ी कोताही जरुर कर दिए हैं यही वजह है कि उनका महिला सशक्तिकरण भी सवाल खड़ा कर देता है।
पाबंदियों का असर शुन्य रहा है!

मनुस्मृति में महिला का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया – ‘बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रखा गया है।’ हालांकि भारतीय संविधान ने नारी को पुरुष के समकक्ष माना है। सरकार की ओर से समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे- दहेज प्रथा का विरोध, भ्रूण हत्या पर प्रतिबन्ध, लिंग परीक्षण पर पाबन्दी के प्रयासों का भारतीय समाज में कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि ये कुरीतियां ज्यादा फैल रही हैं।

पर्दा प्रथा के कारण महिला घर में बंदी रहा करती थीं। दहेज प्रथा ने पुत्री के जन्म को ही अभिशाप बना दिया था। बाल विवाह ने विधवा समस्या व वेश्यावृत्ति को जन्म दिया। समाज में कुप्रथाओं के बढ़ने से महिला की स्थिति अधिक जटिल और संकट में घिर गई। लेकिन वर्तमान परिवेश में इसमें बड़ा परिवर्तन देखने को मिल रहा है।

आजादी के बाद ही पुरुषों की तरह मत देने और चुनाव में खड़े होने का अधिकार प्राप्त हो गया था। मतदाता के रूप में पुरुषों के समान सीमित अधिकार तो उन्हें 1935 में ही हासिल हो गया था। पश्चिमी देशों में मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट द्वारा 1792 में स्त्रियों के लिए मताधिकार की मांग सबसे पहले उठाई गयी थी।

भारतीय राजनीति और महिला भागीदारी

लोकसभा चुनाव में1952 में महिलायें 22 सीटों पर थीं, जो 2014 में 61 तक हो गई। यह वृद्धि 36 प्रतिशत है बावजूद इसके लैंगिक भेदभाव अभी भी बरकरार है। लोकसभा में 10 में से नौ सांसद पुरुष हैं। 1952 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 4.4 प्रतिशत थी जो 2014 में क़रीब 11 प्रतिशत तक पहुंच गई है।

राजनीतिक दलों में उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति कम

चुनावों में महिलाओं को टिकट न देने की नीति न सिर्फ़ राष्ट्रीय पार्टियों की है बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी इसी राह पर चल रही हैं और इसका कारण बताया जाता है उनमें ‘जीतने की क्षमता’ कम होना, जो चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण है।2014 के आम चुनावों में महिलाओं की सफलता 9 प्रतिशत रही है जो पुरुषों की 6 प्रतिशत की तुलना में 03 फीसदी ज़्यादा है।महिलाएं राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन इन राजनीतिक दलों में भी उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति कम ही है।

नब्बे के दशक में भारत में महिलाओं की चुनावों में भागीदारी में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी देखी गई।चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की भागदारी 1962 के 46.6 प्रतिशत से लगातार बढ़ी है और 2014 में यह 65.7 प्रतिशत हो गई है, हालांकि 2004 के आम चुनावों में 1999 की तुलना में थोड़ी गिरावट देखी गई थी। 1962 के चुनावों में पुरुष और महिला मतदाताओं के बीच अंतर 16.7 प्रतिशत से घटकर 2014 में 1.5 प्रतिशत हो गया है।

आरक्षण का कितना हुआ फायदा

देश के प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा व कांग्रेस ने पार्टी के संगठन में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव पास कर रखा है लेकिन इस नियम का ईमानदारी से पालन नहीं हो पाता। भारत में महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की।आधुनिक भारत में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोक सभा अध्यक्ष, प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे शीर्ष पदों पर आसीन होती आयी हैं।

महिलाओं ने भी किया है बेहतर नेतृत्व

इंदिरा गांधी जिन्होंने कुल मिलाकर पंद्रह वर्षों तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में सेवा की, दुनिया की सबसे लंबे समय तक सेवारत महिला प्रधानमंत्री हैं। सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला और भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल थीं। भारत में महिला साक्षरता दर धीरे-धीरे बढ़ रही है लेकिन यह पुरुष साक्षरता दर से कम है।

हालांकि ग्रामीण भारत में लड़कियों को आज भी लड़कों की तुलना में कम शिक्षित किए जाने के प्रवृति है मगर अब इसमें बड़ा बदलाव आया है। अब लोग अपनी बच्चियों को भी तालिम देने में पीछे नहीं हट रहे हैं। भारत में अपर्याप्त स्कूली सुविधाएं भी महिलाओं की शिक्षा में रुकावट है।

हालांकि भारत में महिलाएं अब सभी तरह की गतिविधियों जैसे कि शिक्षा, राजनीति, मीडिया, कला और संस्कृति, सेवा क्षेत्र, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आदि में हिस्सा ले रही हैं। विभिन्न स्तर की राजनीतिक गतिविधियों में भी महिलाओं का प्रतिशत काफी बढ़ गया है। हालांकि महिलाओं को अभी भी निर्णयात्मक पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है।

महिलाओं के मुद्दों के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता महिला आरक्षण बिल को पास करने में असफलता से ही स्पष्ट हो जाती है। पार्टियों को महिला मतदाताओं की याद सिर्फ चुनाव के दौरान ही आती है और उनके घोषणापत्रों में किए गए वादे शायद ही कभी पूरे होते हैं। महिला उम्मीदवारों को टिकट नहीं देने के बारे में राजनीतिक दल कहते हैं कि महिलाओं में जीतने की योग्यता कम होती है। परंतु राज्यसभा में तो विधान सभा सदस्य वोट डालते हैं फिर राजनीतिक दल महिलाओं को राज्यसभा चुनाव में क्यों नहीं खड़ा करते हैं?

संसद में कितनी महिला भागीदारी

फिलहाल भारतीय संसद के दोनों सदनों में 12 प्रतिशत महिलाएं (88) हैं। लोकसभा में 61 और राज्यसभा में 27 है। नेपाल की संसद में कुल 176 सीट हैं और वहां हर तीसरी सीट पर महिला सांसद विराजमान है। अफगानिस्तान के दोनों सदनों में कुल 28 प्रतिशत महिला (97) हैं, जबकि चीन में निचले सदन में कुल 699 सांसदों में से 24 प्रतिशत महिला है। पाकिस्तान में 84 महिलाएं सांसद हैं। इनमें से 21 प्रतिशत निचले और 17 प्रतिशत उच्च सदन में हैं। इंग्लैंड में हाउस ऑफ कॉमन्स और हाउस ऑफ लॉर्डस में यह आंकड़ा क्रमश: 23 और 24 प्रतिशत है। अमेरिका के निचले सदन में 20 प्रतिशत महिलाएं हैं, जबकि उच्च सदन में केवल 20 सांसद हैं।

महिला आरक्षण बिल

आज़ादी के बाद पहली लोकसभा (1952) से लेकर अब तक संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढा तो है लेकिन अत्यंत धीमी गति से और यह आज भी बहुत कम है। 1952 में जहां संसद में 4.50 प्रतिशत महिलाएं थीं वहीं 2014 में यह प्रतिशत 12.15 प्रतिशत ही हो सका।

1993 में 73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के बाद हुए 1996 के लोकसभा चुनाव में सभी प्रमुख पार्टियों ने संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कोअपने चुनावी घोषणापत्रों में रखा।

तत्कालीन यूनाइटेड फ्रंट की प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार ने सबसे पहले महिला आरक्षण बिल को 4 सितम्बर, 1996 को लोकसभा में पेश किया; इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया, जिसने 9 दिसंबर, 1996 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। हालांकि राजनीतिक अस्थिरता के चलते इसे 11वीं लोकसभा में दुबारा पेश नहीं किया जा सका। इसे पुनः पेश किया अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 12वीं लोकसभा में।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसे चार बार लोकसभा में पेश किया और हर बार हंगामे के बाद ‘सर्वसम्मति निर्मित’ करने के नाम पर इसे टाल दिया गया। कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने भी इसे दो बार संसद में पेश किया। मार्च 2010 में राज्यसभा ने इस बिल को पारित भी कर दिया लेकिन उसके बाद चार साल (15वीं लोकसभा के भंग होने तक) तक यह बिल लोकसभा में नहीं लाया जा सका।

लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो गया और बिल रद्द हों गया। जाहिर है इसके पीछे राजनीतिक दलों में राजनीतिक इच्छाशक्ति कमी ज़िम्मेदार है।16 वीं लोकसभा में महिला प्रतिनिधित्व, 15वीं लोकसभा के 10.86 प्रतिशत से बढकर 12.15 प्रतिशत हो गया और पहली बार सरकार में 6 महिलायें महत्वपूर्ण मंत्रालय सम्भाल रहीं हैं, इस बार के हो रहे चुनाव में महिलाओं की कितनी सहभागिता बढ़ती है ये तो 23 मई के बाद ही पता चल पाएगा।

लेकिन इसमें भी एक बड़ी बात ये है कि जो पिछली सरकार में भी महिला बिल की सुध लेने वाला कोई नहीं है?

लोकसभा में महिलाओं की उपस्थिति :-

भारत में लोकसभा के प्रथम चुनाव 1952 में हुए। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार लोकसभा कुल सदस्य संख्या 552 से अधिक नहीं होगी।

वर्तमान में लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 हैं, जिसमें दो आंग्ल भारतीय मनोनीत होते हैं।

लोकसभा में प्रथम निर्वाचन से आज तक के निर्वाचनों में महिला सांसदों के निर्वाचन की स्थिति निम्नानुसार रही हैं–

इन सारे तथ्यों को ध्यान से देखी जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि लोकसभा में 12 प्रतिशत से अधिक उपस्थिति कभी नहीं रही है।

मुख्यधारा आज भी वंचित हैं

इस समय देश भर की विधानसभाओं में महिला विधयाकों की संख्या लगभग 9 प्रतिशत है और लोक सभा में 12 प्रतिशत महिला सांसद हैं। महिला उम्मीदवारों, विधायकों और सांसदों में एक बड़ी संख्या उन बहू-बेटियों की है जो राजनीतिक घरानों से सम्बन्ध रखती हैं, जिनका कोई स्वतंत्र वजूद नहीं है।

महिला जनसंख्या का बड़ा भाग अब भी समाज की मुख्य धारा से वंचित है यहां तक की कुछ महिलाओं को तो महिला सशक्तिकरण का अर्थ ही नहीं ही पता है।

महिला सशक्तिकरण के लिए आवश्यकता है कि पहले महिलाओं को यह एहसास दिलाना होगा की उनका शोषण हो रहा है और वह आज भी मानसिक रूप से गुलाम हैं और उन्हें ही अपने सशक्तिकरण के लिए खुद संघर्ष करना है और समाज की मुख्य धारा में शामिल होना है।

अब ऐसे में देखने वाली बात ये हो जाती है कि आज हम चांद पर जा पहुंचे हैं उसके बाद भी क्या महिला-पुरुष के बीच भेद बना ही रहेगा या फिर महिलाओं के प्रति नौकरियों से हटकर अन्य सेक्टरों में भी भागीदारी को सुनिश्चित बेहतर की जाएगा इसको कह पाना कठिन प्रतीत होता है।

खासकर राजनीतिक गलियारे में तो महिलाएं बिल्कुल ही हाशिए पर नजर आ रही है।

संपर्क —
मो.9430623520

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