- January 3, 2016
भाजपा: अब न सुधरे तो सिधार जायेंगे – संजय श्रीवास्तव
(पीपुल्स सिंंडिकेट मेल) —————– भाजपा के लिये 2016-17 के आगामी विधानसभा चुनावों से पहले अपने चाल चरित्र और चेहरे को चुनावी रणनीति के आधार पर सुधारने बदलने का आखिरी अवसर है। यदि अहमान्यता और आत्म मुग्धता का दौर ऐसे ही चलता रहा तो पार्टी पुनर्मूषकोभव वाले स्थिति में आ सकती।
भाजपा की चाल उसके चरित्र और चेहरे में कोई सुधार होता नहीं दीखता। छत्तीसगढ नगर निकायों के चुनावों में भाजपा को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी पर फिलहाल उसे कोई झेंप नहीं। बिहार की पराजय पर बुजुर्गों के ज्ञान पर पार्टी ने कोई कान नहीं दिया न ही लोकसभा से निगम और पंचायत चुनावों तक में लगातार हो रही हार से मिलती सबक पर कोई ध्यान ही दिया है। सब कुछ पहले ही जैसा है। मोदीमय। अब असम का चुनाव सन्निकट है तो उसके बाद पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश तथा पंजाब इत्यादि का।
पार्टी में एक धड़ा चाहता है कि राज्यों में मोदी के सहारे चुनाव लड़ने के बजाये पार्टी चुनाव लड़े, पार्टी का कोई विश्वसनीय चेहरा आगे किया जाये और स्थानीय नेताओं की चुनाव में पूछ और सहभागिता हो पर उत्तर प्रदेश में जब राजनाथ सिंह को आगे करने की बात आती है तो पार्टी संगठन इसके लिये तैयार नहीं दिखता है न ही असम में सोनोवाल को आगे करने की हामी भरता है। पश्चिम बंगाल में भी उसका कोई खास चेहरा नहीं है, बनाने में कोई रुचि भी नहीं दिखती।
अगर चुनावी और राजनीतिक रणनीति से काम लिया जा रहा होता तो संघ से संबंधित दिलीप घोष को अध्यक्ष न बनाया जाता। उधर असम में सियासी सरगर्मियां तेज हो गयी हैं, उत्तर प्रदेश भी धीरे धीरे चुनावी रंग में आ रहा है। पर पार्टी इस ओर कोई सजगतापूर्ण प्रयास करती नजर नहीं आती यह उसका अति आत्मविश्वास भी हो सकता है और निष्क्रियता। वजह एक हो या दोनों, नाव डुबाने के लिये बड़े कारक बन सकते हैं।
असम में मार्च अप्रैल में चुनाव होने हैं। भाजपा की स्थिति कुछ सुधरी थी पर बिहार चुनावों के बाद उसकी हालत डंवाडोल है। वह वहां सोनोवाल या विश्वशर्मा में से अभी तक किसी को भी मुख्यमंत्री के बतौर पेश करने का मन नहीं बना पायी है। इधर कांग्रेस ने अपना खेल शुरू कर दिया है। असम में भाजपा सरकार बना ले लगता नहीं। पश्चिम बंगाल में संघ के दिलीप घोष को राज्य की कमान सौंपी है, दो अन्य महत्वपूर्ण पदों पर भी संघ ले लोग ही काबिज हैं।
राजनीतिक अनुभव की कमी और संघ की मुहर लगने से अल्पसंख्यकों के बिदकने के चलते पश्चिम बंगाल में भी वह मुख्य मुकाबले में नहीं है। किसी भी तरह के ध्रुवीकरण का लाभ तृणमूल या वाम को मिलेगा। तमिलनाडु और केरल से वह क्या उम्मीद रख सकती है फिर पुडुचेरी का जीतना न जीतना कोई खास मायने नहीं रखता मायने रखता है उत्तर प्र्देश जहां सपा उसके लिये कतई जमीन छोड़ती नहीं दीख रही। फिर राजनाथ के नाम पर अभी भी आम सहमति नहीं है। गुजरात में हालात बेहतर करने के लिये आनंदीबेन पटेल को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।
गोवा उसके हाथ आ भी जाये तो पंजाब फिसलता दिख रहा है। कुल मिलाकर आगामी दो ढाई सालों में होने वाले चुनावों में भाजपा को नाकों चने चबाने होंगे। विशेषकर मोदी के करिश्मे के न चलने के मौजूदा चलन के चलते। निश्चित तौर पर सांगठनिक स्तर पर मोदी की लोकप्रियता में उतनी कमी नहीं आई है जितनी कि पार्टी के बाहर उनकी छवि को धक्का पहुंचा है इसलिये अब पार्टी को जल्द यह फैसला लेना होगा कि उसे असम, बंगाल, यूपी, पंजाब और फिर मध्य प्रदेश में मोदी की लोकप्रियता पर भरोसा करना चाहिए या राज्यों में सीएम का चेहरा देकर चुनाव लड़ना शुरू करना चाहिए।
असम में सोनेवाल या विश्वशर्मा अथवा उत्तर प्रदेश में राजनाथ। क्योंकि अब अगर मोदी के नाम पर चुनाव लड़ कर एक भी चुनाव हारे तो पार्टी का मनोबल बुरी तरह गिरेगा ही आगे भी जीत की संभावना क्षीण हो जायेगी, क्योंकि बीजेपी को मोदी के बगैर जंग लड़ने की आदत डालने में मुश्किल पेश आयेगी और इसमें देर भी लगेगी।
भाजपा विरोधियों को बिहार फार्मूला सूझ गया है वे एक बड़ा गठजोड़ बना कर हर जंग जीतना चाहते हैं, नीतीश पूरे देश में गैर भाजपा मोर्चा बनाने का सपना देख रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सारे मिलकर भाजपा का शिकार करना चाहते हैं। असम में यह चाल चली जा चुकी है। नीतिश अपने कद और सम्पर्कों का इस्तेमाल कर एआईयूडीएफ को कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लडने के लिए तकरीबन राजी करवा चुके हैं।
पश्चिम बंगाल में भी यह बिसात बिछाई जा चुकी है। चंदन मित्रा इसी हफ्ते यह चिंता व्यक्त कर चुके हैं। भाजपा के विरोध में कांग्रेस आज उसी तरह अन्य दलों के साथ खड़ी है, जिस तरह कभी कांग्रेस के विरोध में भाजपा हुआ करती थी। देश की भावी राजनीति अब भाजपा के समर्थन और विरोध के आधार पर तय होने वाली है। हालांकि भाजपा और मोदी के लिए यह चिंता की बात भी होनी चाहिए कि महज दो साल के भीतर ही भाजपा विरोध का ऐसा घ्रुवीकरण होना उन मतदाताओं पर कुठाराघात है जिन्होंने मोदी से बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं।
एशिया की सबसे बड़ी कालोनी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के उत्तर प्रदेश वाले उस हिस्से में है जो दिल्ली से सटा है। नाम है खोड़ा कालोनी। यहां ग्राम प्रधानी के चुनाव में जिन दो महिलाओं में भिड़ंत थी, उसमें एक इस क्षेत्र और राजनीति दोनों से अनजान थी, पर जीत उसी को हासिल हुई। हारे उम्मीदवार मुकेश यादव के पति कालू यादव जो जिला पंचायत सदस्य हैं और क्षेत्र पर खासा दबदबा रखते हैं,निराशा में सिर झटकते हुये कहते हैं, ‘मुकेश ने भाजपा के घोषित उम्मीदवार के बतौर चुनाव लड़ा, यही चूक हो गयी।
दलित और मुस्लिम वोट पूरी तरह खिसक गये’। यानी अब भाजपा का नाम ग्राम प्रधान के चुनाव में भी जीत की गारंटी नहीं रहा। इससे पहले जिला पंचायत के चुनावों में भाजपा ने बड़ी तैयारी और जोर शोर से हिस्सा लिया। बीजेपी 2017 के विधानसभा चुनाव के लिए इसे अपना लिटमस टेस्ट मान रही थी, प्रत्याशियों ने पोस्टरों पर प्रधानमंत्री जी का चेहरा चस्पा कर उनके आशीर्वाद के नाम पर वोट मांगे। पर यहां भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी, हालात यह हुई कि नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में तो भाजपा को शर्मनाक हार झेलनी ही पड़ी, उनके गोद लिए गांव जयापुर के ब्लॉक अराजी लाइन में भी वह हार गई।
काशी क्षेत्र के 12 जिलों में भी उसे करारी हार का सामना करना पड़ा। हार किस कदर शर्मनाक थी जरा अनुमान लगाइये, कलराज मिश्र के देवरिया में बीजेपी 56 में से 50 कल्याण सिंह के अलीगढ़ में 52 में से 44 सीटें तो रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा के गाजीपुर में 67 में से 57 सीटें हार गई। उमा भारती के झांसी में 24 में से 20 सीटें, राजनाथ सिंह के लखनऊ में 26 में से 20 सीटें हार गई। यहां तक कि राजनाथ सिंह के गोद लिए गांव में जिला पंचायत सदस्य का चुनाव भी नहीं जीत पाई।
इस बीच मध्य प्रदेश में रतलाम लोकसभा सीट पर मिली हार के बाद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने कहा कि पिछली बार मोदी लहर की वजह से इस सीट पर पार्टी को जीत मिली थी, इस बार लहर नहीं थी, सो हार गये। हाल ही में गुजरात में हुए निकाय चुनाव में कांग्रेस ने ग्रामीण इलाकों में बीजेपी को हरा दिया और शहरी इलाकों में भी उसने बेहतर प्रदर्शन किया इस पर शिव सेना ने अपने मुखपत्र में ‘शव पेटी से निकला कांग्रेस का मुर्दा’ के शीर्षक से लिखा, ‘जिस तरह से गुजरात के निकाय चुनावों में कांग्रेस ग्रामीण इलाकों में जीती है, उससे लगता है कि गुजरात की जनता का मोदी पर विश्वास कम हुआ है।
उसने कहा,गुजरात का विकास सबसे ज्यादा करने वाली भाजपा उसी की नगरपालिका और नगर निगमों के चुनाव में क्यों हार गई? जाहिर है गुजरात की जनता पूरी तरह से पीएम नरेंद्र मोदी के साथ नहीं है। 20 साल सत्ता से बाहर रहने के बाद भी कांग्रेस जीती है तो फिर पार्टी को इस खतरे की घंटी को सुनना चाहिये। पश्चिम बंगाल में खुद को तृणमूल के एकमात्र विकल्प के रूप में तरीके से पेश कर रही बीजेपी को निकाय चुनाव में राज्य के 2090 वार्ड में से सिर्फ चार फीसदी सीटों पर ही जीत मिली। यहां तक कि पार्टी 91 निकायों में से एक पर भी जीत हासिल नहीं कर सकी। वहीं कोलकाता नगर निगम के 144 वार्डो में से बीजेपी को सिर्फ सात पर जीत हासिल हुई थी।
कुल मिलकर दिल्ली में एकतरफा हार, बिहार में बुरी गत,रतलाम उप-चुनाव में मात और गुजरात के निकाय चुनावों में अपेक्षा से कमतर प्रदर्शन के बाद उत्तर प्रदेश जिला पंचायत में भी बुरी गत साफ कर देती है कि मोदी लहर लौट चुकी है और लौटी हुई लहर या ज्वार अपने पीछे तट पर ढेरों घोंघे, ढपोर शंख तथा गाद और गंद छोड़ जाती है। भाजपा को आज उसी का सामना करना पड़ रहा है।
अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आने वाले चुनाओं में बिन कोई चमत्कार घटित हुये भाजपा का कुछ नहीं हो सकता। केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू, पुडुचेरी और असम में अगले साल चुनाव हैं और उसके बाद उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल, गुजरात और गोवा में होंगे। इन चुनावों में भाजपा की परीक्षा तो होगी ही, मोदी मैजिक का आखीरी फैसला भी हो जायेगा।
मतदाता और पार्टी हित में भाजपा को अपनी नयी चुनावी रणनीति के अनुसार काम करने में अब देर नहीं करनी चाहिये क्यों कि भारतीय राजनीति में तमाम उदाहरण है जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि यहां अंधेर होने में देर नहीं है। आज भी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का कोई विकल्प नहीं है पर अगर राज्यों में उसका प्रदर्शन इसी तरह का रहा तो किसी विकल्प के खड़े होते देर न लगेगी।
(लेखक भारतीय फ्यूचरिस्ट हैं)
futuristindia@gmail.com