- October 27, 2014
भगवान भास्कर की उपासना का महापर्व है छठ
सूर्य षष्टी महात्मय
भगवान सूर्य जिन्हें आदित्य भी कहा जाता है वास्तव एक मात्र प्रत्यक्ष देवता हैं. इनकी रोशनी से ही प्रकृति में जीवन चक्र चलता है. इनकी किरणों से ही धरती में प्राण का संचार होता है और फल, फूल, अनाज, अंड और शुक्र का निर्माण होता है. यही वर्षा का आकर्षण करते हैं और ऋतु चक्र को चलाते हैं. भगवान सूर्य की इस अपार कृपा के लिए श्रद्धा पूर्वक समर्पण और पूजा उनके प्रति कृतज्ञता को दर्शाता है. सूर्य षष्टी या छठ व्रत इन्हीं आदित्य सूर्य भगवान को समर्पित है इस महापर्व में सूर्य नारायण के साथ देवी षष्टी की पूजा भी होती है. दोनों ही दृष्टि से इस पर्व की अलग अलग कथा एवं महात्मय है. सबसे पहले आप षष्टी देवी की कथा सुनिये.
भगवान भास्कर की उपासना का महापर्व है छठ। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। परिवारिक सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल पाने के लिये ही इस पर्व को मनाया जाता है। पुरुष और स्त्री दोनों ही इस पर्व को समान रूप से मनाते हैं। छठ व्रत के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं; उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएमें हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा । तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया । लोकपरंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृ का षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।
स्नान और पाण – पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘स्नान और पाण’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
खरना
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
संध्या अर्घ्य
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
छठ व्रत कथा
एक थे राजा प्रियव्रत उनकी पत्नी थी मालिनी. राजा रानी नि:संतान होने से बहुत दु:खी थे. उन्होंने महर्षि कश्यप से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया. यज्ञ के प्रभाव से मालिनी गर्भवती हुई परंतु न महीने बाद जब उन्होंने बालक को जन्म दिया तो वह मृत पैदा हुआ. प्रियव्रत इस से अत्यंत दु:खी हुए और आत्म हत्या करने हेतु तत्पर हुए.
प्रियव्रत जैसे ही आत्महत्या करने वाले थे उसी समय एक देवी वहां प्रकट हुईं. देवी ने कहा प्रियव्रत मैं षष्टी देवी हूं. मेरी पूजा आराधना से पुत्र की प्राप्ति होती है, मैं सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ण करने वाली हूं. अत: तुम मेरी पूजा करो तुम्हे पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी. राजा ने देवी की आज्ञा मान कर कार्तिक शुक्ल षष्टी तिथि को देवी षष्टी की पूजा की जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. इस दिन से ही छठ व्रत का अनुष्ठान चला आ रहा है.
एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान श्रीरामचन्द्र जी जब अयोध्या लटकर आये तब राजतिलक के पश्चात उन्होंने माता सीता के साथ कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को सूर्य देवता की व्रतोपासना की और उस दिन से जनसामान्य में यह पर्व मान्य हो गया और दिनानुदिन इस त्यहार की महत्ता बढ़ती गई व पूर्ण आस्था एवं भक्ति के साथ यह त्यहार मनाया जाने लगा.
छठ व्रत विधि
इस त्यहार को बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश एवं भारत के पड़ोसी देश नेपाल में हर्षोल्लास एवं fनयम निष्ठा के साथ मनाया जाता है. इस त्यहार की यहां बड़ी मान्यता है. इस महापर्व में देवी षष्ठी माता एवं भगवान सूर्य को प्रसन्न करने के लिए स्त्री और पुरूष दोनों ही व्रत रखते हैं. व्रत चर दिनो का होता है पहले दिन यानी चतुर्थी को आत्म शुद्धि हेतु व्रत करने वाले केवल अरवा खाते हैं यानी शुद्ध आहार लेते हैं. पंचमी के दिन नहा खा होता है यानी स्नान करके पूजा पाठ करके संध्या काल में गुड़ और नये चावल से खीर बनाकर फल और मिष्टान से छठी माता की पूजा की जाती है फिर व्रत करने वाले कुमारी कन्याओं को एवं ब्रह्मणों को भोजन करवाकर इसी खीर को प्रसाद के तर पर खाते हैं. षष्टी के दिन घर में पवित्रता एवं शुद्धता के साथ उत्तम पकवान बनाये जाते हैं. संध्या के समय पकवानों को बड़े बडे बांस के डालों में भरकर जलाशय के निकट यानी नदी, तालाब, सरोवर पर ले जाया जाता है. इन जलाशयों में ईख का घर बनाकर उनपर दीया जालाया जाता है.
व्रत करने वाले जल में स्नान कर इन डालों को उठाकर डूबते सूर्य एवं षष्टी माता को आर्घ्य देते हैं. सूर्यास्त के पश्चात लोग अपने अपने घर वापस आ जाते हैं. रात भर जागरण किया जाता है. सप्तमी के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में पुन: संध्या काल की तरह डालों में पकवान, नारियल, केला, मिठाई भर कर नदी तट पर लोग जमा होते हैं. व्रत करने वाले सुबह के समय उगते सूर्य को आर्घ्य देते हैं. अंकुरित चना हाथ में लेकर षष्ठी व्रत की कथा कही और सुनी जाती है. कथा के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है और फिर सभी अपने अपने घर लट आते हैं. व्रत करने वाले इस दिन परायण करते हैं.
इस पर्व के विषय में मान्यता यह है कि जो भी षष्टी माता और सूर्य देव से इस दिन मांगा जाता है वह मुराद पूरी होती है. इस अवसर पर मुराद पूरी होने पर बहुत से लोग सूर्य देव को दंडवत प्रणाम करते हैं. सूर्य को दंडवत प्रणाम करने का व्रत बहुत ही कठिन होता है, लोग अपने घर में कुल देवी या देवता को प्रणाम कर नदी तट तक दंड देते हुए जाते हैं. दंड की प्रक्रिया इस प्रकार से है पहले सीघे खडे होकर सूर्य देव को प्रणाम किया जाता है फिर पेट की ओर से ज़मीन पर लेटकर दाहिने हाथ से ज़मीन पर एक रेखा खींची जाती है. यही प्रक्रिया नदी तट तक पहुंचने तक बार बार दुहरायी जाती है.
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इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भगवान सूर्यदेव को चन्दन समर्पण करना चाहिए-
1. दिव्यं गन्धाढ़्य सुमनोहरम् | वबिलेपनं रश्मि दाता चन्दनं प्रति गृह यन्ताम् ||
इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भगवान सूर्यदेव को चन्दन समर्पण करना चाहिए-2. शीत वातोष्ण
2. संत्राणं लज्जाया रक्षणं परम् | देहा लंकारणं वस्त्र मतः शांति प्रयच्छ में ||
इस मंत्र को पढ़ते हुए भगवान सूर्यदेव को वस्त्रादि अर्पण करना चाहिए-
3. शीत वातोष्ण संत्राणं लज्जाया रक्षणं परम् | देहा लंकारणं वस्त्र मतः शांति प्रयच्छ में ||
भगवान सूर्यदेव की पूजा के दौरान इस मंत्र का उच्चारण करते हुए उन्हें यज्ञोपवीत समर्पण करना चाहिए-
4. नवभि स्तन्तु मिर्यक्तं त्रिगुनं देवता मयम् | उपवीतं मया दत्तं गृहाणां परमेश्वरः ||
इस मंत्र को पढ़ते हुए भगवान सूर्यदेव को घृत स्नान कराना चाहिए-
5.नवनीत समुत पन्नं सर्व संतोष कारकम् | घृत तुभ्यं प्रदा स्यामि स्नानार्थ प्रति गृह यन्ताम् ||
भगवान सूर्यदेव की पूजा के दौरान इस मंत्र को पढ़ते हुए उन्हें अर्घ्य समर्पण करना चाहिए-
6.ॐ सूर्य देवं नमस्ते स्तु गृहाणं करूणा करं | अर्घ्यं च फ़लं संयुक्त गन्ध माल्याक्षतै युतम् ||
इस मंत्र का उच्चारण करते हुए प्रचंड ज्योति के मालिक भगवान दिवाकर को गंगाजल समर्पण करना चाहिए-
7.ॐ सर्व तीर्थं समूद भूतं पाद्य गन्धदि भिर्युतम् | प्रचंण्ड ज्योति गृहाणेदं दिवाकर भक्त वत्सलां ||
इस मंत्र को पढ़ते हुए भगवान सूर्यदेव को आसन समर्पण करना चाहिए-
8. विचित्र रत्न खन्चित दिव्या स्तरण सन्युक्तम् | स्वर्ण सिंहासन चारू गृहीश्व रवि पूजिता ||
सूर्य पूजा के दौरान भगवान सूर्यदेव का आवाहन इस मंत्र के द्वारा करना चाहिए-
9.ॐ सहस्त्र शीर्षाः पुरूषः सहस्त्राक्षः सहस्त्र पाक्ष | स भूमि ग्वं सब्येत स्तपुत्वा अयतिष्ठ दर्शां गुलम् ||
इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भगवान सूर्यदेव को दुग्ध से स्नान कराना चाहिए-
10. काम धेनु समूद भूतं सर्वेषां जीवन परम् | पावनं यज्ञ हेतुश्च पयः स्नानार्थ समर्पितम् ||
भगवान सूर्यदेव की पूजा के दौरान इस मंत्र को पढ़ते हुए उन्हें दीप दर्शन कराना चाहिए-
11. साज्यं च वर्ति सं बह्निणां योजितं मया | दीप गृहाण देवेश त्रैलोक्य तिमिरा पहम् ||