बेसहारा बच्चों को चाहिए पहचान पत्र —- मामूनी दास

बेसहारा बच्चों को चाहिए पहचान पत्र —- मामूनी दास

दिल्ली— -19 के प्रकोप के बाद देश भर के रेलवे को बंद कर दिया गया था. इसके कारण रेलवे प्लेटफॉर्म पर निर्भर रहने वाले हजारों बच्चे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आजीविका से वंचित हो गए थे. ऐसे में कई बच्चे भोजन की तलाश में मंदिरों और गुरुद्वारों में भीख मांगने को मजबूर हो गए थे. कुछ बच्चे सिग्नलों पर भीख मांगने लगे, हालांकि उन्हें समय-समय पर पुलिस द्वारा फटकार भी लगाई जाती थी. लेकिन पेट भरने के लिए कोई और विकल्प नहीं होने के कारण वह वापस सिग्नल पर पहुंच जाते थे. कई बच्चों ने रैन बसेरों में शरण ली और कुछ को आश्रय के बिना अपने घरों को लौटने पर मजबूर हो गए थे. जहां घर के बड़ों या उनके रिश्तेदारों या अन्य लोगों द्वारा उनके साथ दुर्व्यवहार और प्रताड़ित किया जाने लगा जिसके बाद उन्हें फिर से घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.
ऐसे बच्चों का आधार कार्ड या अन्य किसी प्रकार का पहचान पत्र या जनधन खाता नहीं होने का मतलब है कि वह सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली कई बुनियादी सुविधाओं जैसे कि राशन और अन्य कल्याणकारी सहायता का लाभ नहीं उठा सकते हैं. इस संबंध में 20 वर्षीय युवक राजन का कहना है कि “कोरोना काल एक बहुत ही कठिन समय था. कई बच्चों को नहीं पता था कि क्या करें? कहां जाएं? कुछ बच्चों के माता-पिता बीमार थे और कुछ के पास रहने के लिए घर तक नहीं था. इसलिए वे भोजन, आश्रय और अन्य बुनियादी जरूरतों की तलाश में भटकते रहते थे”. राजन पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर इस्तेमाल की गई प्लास्टिक की बोतलें इकट्ठा करता है. कोरोना संकट के दौरान उसे भी अपने गांव लौटना पड़ा था. जहां वह एक-दो महीने में एक बार आता था.
दिल्ली में रेलवे स्टेशन के पास कचड़ा बीनने का काम करने वाले लोकेश और कुछ अन्य युवकों ने कहा कि महामारी के दौरान वे रेलवे स्टेशन के बाहर वितरित भोजन पर जीवित रहने के लिए रेलवे स्टेशन के आसपास ही भटकते रहते थे. जहां इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन और अन्य गैर सरकारी संगठनों के कार्यकर्ता कभी-कभी भोजन वितरित किया करते थे. लेकिन कई बच्चे ऐसे थे जिन्हें उक्त संगठनों द्वारा ऐसी सहायता भी नहीं मिल पाती थी. महामारी के दौरान इन बच्चों की दुर्दशा को बच्चों द्वारा प्रकाशित एक समाचार पत्र में ‘स्ट्रीट चिल्ड्रन’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया था. ‘बालकनामा’ नाम के इस समाचारपत्र के अप्रैल-मई 2020 संस्करण की शीर्ष कहानी यह थी कि ‘सड़क पर रहने वाले बच्चों का जीवन काफी कठिन है, लेकिन कोरोना वायरस महामारी ने इसे और भी खराब कर दिया है’. उक्त समाचार के मुताबिक कोरोना काल के दौरान रेलवे स्टेशनों के पास रहने वाले इन बच्चों की कमाई का इकलौता मौका भी खत्म हो गया था.
बालकनामा का एक अन्य संस्करण में हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पास एक अन्य कचड़ा बीनने वाले बच्चे की कठिन ज़िंदगी पर प्रकाश डालता है. इस बच्चे का नाम पंकज है. इसमें लिखा है कि चिलचिलाती धूप में बिना चप्पल के सड़कों पर चलने के कारण उसके पैर लगभग जल गए थे. जुलाई 2020 के बालकनामा संस्करण में, पंकज कहते हैं “जीवन कभी आसान नहीं रहा, लेकिन कोरोना के दौरान यह और भी कठिन हो गया.” बालकनामा में ऐसी कई कहानियां प्रकाशित हुईं हैं, जो यह बताती हैं कि कैसे रेलवे प्लेटफार्म और सड़कों पर निर्भर बच्चों के माता-पिता को न केवल कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, बल्कि अपनी नौकरी खोने के बाद वह कर्ज के जाल में फंसते चले गए. जिससे बाहर निकलना अब उनके लिए आसान नहीं है. खबरों के मुताबिक कई परिवार ऐसे भी थे जिन्होंने दिन में दो वक्त की जगह सिर्फ एक वक्त का खाना खाया. अमर कहते हैं, ”पहचान पत्र या आधार कार्ड न होना, हम में से कई लोगों के लिए एक समस्या बन गया क्योंकि हमें आधार कार्ड के बिना राशन नहीं मिल सकता था.”
महामारी के दौरान रेलवे प्लेटफार्मों से बचाए गए बच्चों की संख्या में गिरावट देखने के बाद, एक बार फिर से इसमें उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है. हालांकि प्रत्येक स्टेशन पर इसके अलग अलग रुझान देखने को मिले हैं. रेलवे पुलिस बल (आरपीएफ) द्वारा 2020 में स्टेशनों से रेस्क्यू किये गए बच्चों की संख्या एक साल पहले बचाए गए संख्या की एक चौथाई थी. आरपीएफ ने 2020 में 5193 बच्चों को बचाया जो 2019 में 16,294, 2018 में 17,479 और 2017 में 13,779 से काफी कम है. 2021 में यह संख्या एक बार फिर से बढ़कर 11,900 हो गई. अकेले मार्च महीने में ही 2042 बच्चों को रेस्क्यू किया गया. 2022 में बचाए गए बच्चों की संख्या 3621 थी जिन्हें देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता थी.
बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था के एक कार्यकर्ता के अनुसार, “डेल्टा लहर के तीन महीने बाद, बचाए गए बच्चों की संख्या में भारी कमी आई थी. लेकिन बाद में जैसे ही ट्रेनों का आवागमन सामान्य हुआ, बच्चों का आना भी शुरू हो गया. ये रुझान भी एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन में थोड़े भिन्न थे. विशेषकर उत्तर और पूर्वी भारत के कुछ स्टेशनों पर बच्चों की बड़ी संख्या को रेलवे प्लेटफार्म पर लौटते देखा गया है. इस संबंध में रेलवे चिल्ड्रन इंडिया संस्था के सीईओ नवीन सेलाराजू कहते हैं कि कोविड के प्रकोप के बाद से बहुत कम बच्चों को बचाया गया है. वह स्ट्रीट चिल्ड्रन की संख्या में वृद्धि के पीछे के उन मूल कारणों को जानते हैं, जो बच्चों को इसके लिए मजबूर करता है. सेलाराजू कहते हैं ”कोविड ने इन बच्चों की जीवन को और भी कठिन बना दिया है.” उनकी संस्था द्वारा बचाए गए ज्यादातर बच्चे बेरोजगार परिवारों, छोटे किसानों, सब्जी विक्रेताओं के घरों से थे और उनमें से कई परिवार आज भी आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है.
बच्चों के लिए विशेष रूप से काम करने वाली संस्था सलाम बालक ट्रस्ट के एक सदस्य के अनुसार “ऐसे बच्चों को मोटे तौर पर उन समूहों में विभाजित किया जा सकता है जो स्टेशनों के आसपास रहते थे और अपना जीवन यापन करते थे. उनके अनुसार लगभग सभी हितधारक इस बात से सहमत हैं कि महामारी ने बच्चों की तस्करी सहित अन्य कठिनाइयों को और भी बढ़ा दिया है. रेलवे पुलिस बल के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2021 में रेलवे स्टेशनों पर तस्करों से छुड़ाए गए बच्चों की संख्या में वृद्धि देखी गई है. 2021 में लगभग 492 बच्चों को तस्करी से बचाया गया, 2020 में 181 से, 2019 में 361 और 2018 में 367 बच्चों को बचाया गया था.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और यूनिसेफ की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार महामारी ने अनगिनत परिवारों को गरीबी के अंधेरे में धकेल दिया और बाल श्रम को बढ़ा दिया है. 2020 की शुरुआत में 160 मिलियन बच्चे (विश्व स्तर पर दस बच्चों में से एक) बाल श्रम में शामिल थे. बच्चों के अधिकारों के लिए काम कर रहे सभी संगठन ऐसे सभी बच्चों, जो रेलवे और फुटपाथों से जुड़े हैं, को पहचान पत्र देकर उनकी जनगणना के लिए सहमत हैं. उनके अनुसार, “इन बच्चों के लिए आधार सहित सभी प्रकार के पहचान पत्र को प्राथमिकता के आधार पर बनाए जाने की आवश्यकता है ताकि फिर किसी आपदा के दौरान भोजन, आश्रय और अन्य आवश्यक चीजों से वंचित न रह जाएं.

(चरखा फीचर्स)

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