- September 18, 2015
बिहार चुनाव :: नरेन्द्र मोदी: तब और अब :- प्रदीप के. माथुर
(पी०सिंडीकेट) – बिहार में वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव भी मोदी ही लड़ रहे थे और वर्ष 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव भी मोदी ही लड़ रहे हैं। तब मोदी जनता की आशा और विश्वास का प्रतीक थे पर आज उनकी छवि
सत्तालोलुप नेता की तरह जनता से कुर्सी की भीख मांगते हुए सामान्य नेता की है।
कहते हैं कि लक्ष्मी चंचला होती है। लगता है वर्तमान भारत की राजनीति उससे भी अधिक चंचला है। अभी पिछले वर्ष देश में नरेन्द्र मोदीका नाम सब तरफ गूँजता था। उनके चुनावी अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को उत्तर भारत के बड़े-बड़े राजनेता भी न रोक पाये। राजनीति का गढ़ कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार को उन्होंने हंसते-हंसते अपने कब्जे में कर लिया। सारा राजनैतिक वातावरण ही मोदीमय था और लगता था कि वह भारतीय राजनीति के युगपुरूष हो गये हैं।
अब जब उस समय को बीते लगभग पांच सौ दिन ही हुऐ हैं लगता है कि स्थिति बिल्कुल उलटी हो गयी है। अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाने के लिए नरेन्द्र मोदी रक्षात्मक लड़ाई लड़ रहे हैं। बिहार उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। जहाँ उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस चुनावी युद्ध में अपने सब संसाधन लगा रही है। फिर भी उसकी जीत अनिश्चित है और पराजय का भय उसको और भी असहज बना रहा है।
मजे की बात तो यह है कि बिहार में वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव भी मोदी ही लड़ रहे थे और वर्ष 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव भी मोदी ही लड़ रहे हैं। सब साहस और दम की बातें करने के बाद सच यह है कि भाजपा गठबंधन न तो सीटो के बंटवारे के बाद अभी तक झंझट और झांय-झांय जारी है और वे ही अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार पर कोई सहमति नहीं बना पाये हैं अंदेशा यह है कि सुशील मोदी का उम्मीदवार घोषित करते ही सिर फुटव्वल का दौर आपस मे6 ही शुरू हो जायेगा. इस आपसी टकराव से बचने और जनता का ध्यान हटाने के लिए आवश्यक है कि ऐसे सारे प्रश्नों का एक ही जवाब दिया जाये और वह है मोदी, मोदी।
लेकिन प्रश्न यह है कि क्या अभी भी मोदी का वह जादू सलामत है जिसके चलते भाजपा ने बिहार लोकसभा के चुनाव में जादुई जीत प्राप्त की थी। और अगर सलामत नहीं है तो क्यों नहीं है? आज 16-17 महीनों में ऐसा क्या हो गया जो अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा ऐसा खच्चर बन गया है जिसको हर कोई पकड़ने का साहस दिखाने लगा है।
एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार में निर्विरोध प्रधानमंत्री बन कर आज नरेन्द्र मोदी देश के सबसे शक्तिमान नेता हैं। लोकसभा चुनाव की तुलना में आज कहीं अधिक संसाधन और प्रशासकीय अधिकार हैं। लेकिन आज वह जनता की अदालत में जाने पर अपने आपको कमजोर पा रहे हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि आज वह दोहरे आत्मविश्वास के साथ जनता के बीच जाते ।
स्पष्ट है कि अपने मन में भाजपा और उसके सब बड़े-छोटे नेता यह जानते है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार मतदाताओं की आशा और विश्वास पर खरी नहीं उतरी है। कोई भी आकड़ें, वक्तव्य और प्रचार इस बात को झुठला नहीं सकते। प्रश्न यह है कि जनता में यह विश्वास की कमी क्यों आयी।
अपने प्रचार अभियान में नरेन्द्र मोदी ने जनता से चार मोटे-मोटे बड़े वादे किये थे :-
1. महंगाई पर लगाम लगाई जायेगी।
2. भ्रष्टाचार को समाप्त किया जायेगा।
3. तेजी से आर्थिक विकास होगे, जिससे सबको नौकरियां मिलेंगी ।
4. विदेशों में जमा भारत का अथाह कालाधन वापिस लाया जायेगा।
आज नरेन्द्र मोदी को सत्ता में आये हुए 17 महीने होने जा रहे है लेकिन इन चारों में से कोई भी वादा पूरा किया हुआ नहीं लगता। महंगाई तेजी से बढ़ी है और सरकार द्वारा कमरों में बैठकर बनाये गए आकड़ें इस वास्तविकता को झुठला नहीं सकते। सच तो यह है कि प्रतिदिन उपयोग में आने वाली हर वस्तु के दाम काफी बढ़े और निरंतर बढ़ रहे हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि महंगाई समाप्त करने का न तो सरकार के पास कोई प्लान है और न ही यह उसकी प्राथमिकता लगती है।
इसी तरह भ्रष्टाचार समाप्ति के कोई लक्षण नजर नहीं आते। यह सच है कि व्यक्तिगत रूप से मोदी ईमानदार हैं पर इस तरह तो कांग्रेस के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ईमानदारी भी शक से परे थी। यदि डॉ. मनमोहन सिंह भ्रष्ट साथियों के विरूद्ध कुछ नहीं कर पाये तो उनसे राजनैतिक रूप से कहीं सशक्त होकर नरेन्द्र मोदी तो उतना भी नहीं कर पा रहे हैं। राजस्थान,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के भाजपा मुख्यमंत्रियों के विरूद्ध गम्भीर आरोप हैं। पर मोदी उनको हटाकर अपना और अपनी पार्टी का बचाव नहीं कर सकते हैं ना ही अभी तक उन्होंने सुषमा स्वराज और स्मृति ईरानी के विरूद्ध कोई कार्यवाही करने का साहस जुटाया है।
देश की अर्थव्यवस्था ठीक होने की जगह आज मोदी के 17 महीने के शासन के बाद वह और भी बुरी दशा में लग रही है । योजनाएं तो बड़ी-बड़ी हैं और बातें भी बड़ी-बड़ी की जा रही हैं, पर जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। न तो कोई बड़े कल-कारखाने लगे हैं और न ही रोजगार के अवसर बढ़े हैं। कल-कारखानों की बात तो अलग, कुटीर उद्योगों और कृषि आधारित ग्रामीण उद्योग-धंधों का भी विकास नहीं हो पाया है। हां, आश्वासन बहुत दिये जा रहे हैं।
खराब मानसून और बाढ़ आदि से जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है गांवों की अर्थव्यवस्था पर और भी बुरा प्रभाव पड़ा है। उपर से विश्व की अर्थव्यवस्था पर चीन के कारण पड़ने वाला दबाव है जिससे आज नहीं तो कल भारत अवश्य प्रभावित होगा। यदि आज हमारी अर्थव्यवस्था संकट में नहीं है तो इसका एक बहुत बड़ा कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेलों की कीमतों का कम होना है। स्पष्ट है कि इसको मोदी सरकार की उपलब्धि नहीं माना जा सकता है।
अपने चुनाव प्रचार में नरेन्द्र मोदी ने वादा किया था कि वह विदेशी बैंकों में रखा भारत का अथाह काला धन प्रधानमंत्री बनने के 100 दिन के अन्दर ले आयेंगे। यह भी कहा गया था कि यह धन भारत की जनता में बांट दिया जाये तो प्रत्येक नागरिक के हिस्से में 15 लाख रुपये आयेंगे। खैर 15 लाख रुपये की बात तो एक जुमला था। पर यह तो सब को आशा थी ही कि यह धन वापिस लाकर यदि देश के विकास में लगाया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से सुधरेगी और रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। पर ऐसा कुछ ना हुआ। थोड़े ही दिनों में तर्क दिया जाने लगा कि यह सम्भव नहीं है।
प्रश्न यह है कि अगर यह सम्भव नहीं था तो फिर ऐसा वादा ही क्यों किया गया। इस वादे पर मोदी विरोधियों ने काफी चुटकियां लीं, जो कि स्वाभाविक ही था। यह चारों वादे आम जनता के जीवन को छूने वाले थे। मोदी ने विकास की बात की और जनता ने उस पर विश्वास करके उनको आम चुनाव में वोट दिया। जनता की यह भी समझ में आया कि भ्रष्टाचार विकास के मार्ग की बाधा है तथा विदेशों में जमा काला धन वापिस आया तो देश का विकास होगा जिसमें आम आदमी की भागीदारी होगी।
यह कटु सत्य है कि मोदी सरकार इन चारों में से किसी भी वादे को आंशिक रूप से पूरा करने में भी सफल नहीं हुई है। अब अगर जनता का मोदी में विश्वास डगमगा रहा हो तो किसी को भी आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। प्रजातंत्र और जोशीली भाषा भारत की गरीब जनता के लिए रोटी का विकल्प नहीं हो सकती। फिर विश्वास का प्रमाण जमीन पर होता है न कि वादों और भाषणों में या उन अखबार के पन्नों और टेलीविजन सेट पर जहां यह भाषण छपते और प्रसारित किये जाते हैं। फिर प्रधानमंत्री मोदी को यह भी समझना चाहिए कि चाहे गुजरात की समृद्धि की बातें कितनी भी सच्ची क्यों न हों, वह बिहार के भूखे आदमी का पेट नहीं भर सकती।
एक मोदी तब थे जनता की आशा और विश्वास का प्रतीक, एक आज है सत्तालोलुप नेता की तरह जनता से कुर्सी की भीख मांगते हुए।
(लेखक संचार शिक्षाविद और वरिष्ठ पत्रकार हैं)