बाजारवाद के इस दौर में प्रेम भी तोहफों का मोहताज़ हो गया———डॉ नीलम महेंद्र

बाजारवाद के इस दौर में प्रेम भी तोहफों का मोहताज़ हो गया———डॉ नीलम महेंद्र

वैलेंटाइन डे, एक ऐसा दिन जिसके बारे में कुछ सालों पहले तक हमारे देश में बहुत ही कम लोग जानते थे, आज उस दिन का इंतजार करने वाला एक अच्छा खासा वर्ग उपलब्ध है।

अगर आप सोच रहे हैं कि केवल इसे चाहने वाला युवा वर्ग ही इस दिन का इंतजार विशेष रूप से करता है तो आप गलत हैं। क्योंकि इसका विरोध करने वाले बजरंग दल, हिन्दू महासभा जैसे हिन्दूवादी संगठन भी इस दिन का इंतजार उतनी ही बेसब्री से करते हैं।

आज के भौतिकवादी युग में जब हर मौके और हर भावना का बाज़ारीकरण हो गया हो, ऐसे दौर में गिफ्ट्स टेडी बियर चॉकलेट और फूलों का बाजार भी इस दिन का इंतजार उतनी ही व्याकुलता से करता है।

आज प्रेम आपके दिल और उसकी भावनाओं तक सीमित रहने वाला केवल आपका एक निजी मामला नहीं रह गया है। उपभोगतावाद और बाज़ारवाद के इस दौर में प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही बाज़ारवाद का शिकार हो गए हैं। आज प्रेम छुप कर करने वाली चीज नहीं है, फेसबुक इंस्टाग्राम पर शेयर करने वाली चीज है। आज प्यार वो नहीं है जो निस्वार्थ होता है और बदले में कुछ नहीं चाहता बल्कि आज प्यार वो है जो त्याग नहीं अधिकार मांगता है।

क्योंकि आज मल्टीनेशनल कंपनियाँ बढ़ी चालाकी से हमें यह समझाने में सफल हो गई हैं कि प्रेम को तो महँगे उपहार देकर जताया जाता है। वे हमें करोड़ों के विज्ञापनों से यह बात समझा कर अरबों कमाने में कामयाब हो गई हैं कि “इफ यू लव समवन शो इट”, यानी, अगर आप किसी से प्रेम करते हैं तो “जताइए” और वैलेंटाइन डे इसके लिए सबसे अच्छा दिन है।

यह वाकई में खेद का विषय है कि राधा और मीरा के देश में जहाँ प्रेम की परिभाषा एक अलौकिक एहसास के साथ शुरू होकर समर्पण और भक्ति पर खत्म होती थी आज उस देश में प्रेम की अभिव्यक्ति तोहफों और बाज़ारवाद की मोहताज़ हो कर रह गई है।

उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक समाज के रूप में पश्चिमी अंधानुकरण के चलते हम विषय की गहराई में उतर कर चीज़ों को समझकर उसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में उसकी उपयोगिता नहीं देखते। सामाजिक परिपक्वता दिखाने के बजाए कथित आधुनिकता के नाम पर बाज़ारवाद का शिकार हो कर अपनी मानसिक गुलामी ही प्रदर्शित करते हैं। इस बात को समझने के लिए हमें पहले यह समझना होगा कि वैलेंटाइन डे आखिर क्यों मनाया जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि ईसा पूर्व 278 में रोमन साम्राज्य में सम्राट मौरस औरेलियस क्लौडीयस गॉथियस को अपनी सेना के लिए लोग नहीं मिल रहे थे। उन्हें ऐसे नौजवान या फिर ऐसे युवा ढूंढने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था जो सेना में भर्ती होना चाहें। उन्होंने ऐसा महसूस किया कि अपनी पत्नियों और परिवार के प्रति मोह के चलते लोग सेना में भर्ती नहीं होना चाहते।

उन्होंने अपने शासन में शादियों पर ही पाबंदी लगा दी। तब संत वैलेंटाइन ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई और वे चोरी छुपे प्रेमी युगलों का विवाह करा देते थे।जब सम्राट क्लौडीयस को इस बात का पता चला तो उन्होंने संत वैलेंटाइन को गिरफ्तार कर उनको मृत्यु दंड दे दिया। ऐसा कहा जाता है कि उनकी याद में ही वैलेंटाइन डे मनाया जाता है।

तो अब प्रश्न यह है कि हमारे देश में जहाँ की संस्कृति में विवाह हमारे जीवन का एक एहम संस्कार है उस देश में ऐसे दिन को त्यौहार के रूप में मनाने का क्या औचित्य है जिसके मूल में विवाह नामक संस्था का ही विरोध हो ? क्योंकि भारत में विवाह का कभी भी विरोध नहीं किया गया बल्कि यह तो खुद ही पांच छ दिनों तक चलने वाला दो परिवारों का सामाजिक उत्सव है।

दरअसल यहां यह समझना भी जरूरी है कि मुख्य विषय वैलेंटाइन डे के विरोध या समर्थन का नहीं है बल्कि किसी दिन या त्यौहार को मनाने के महत्व का है।

किसी भी त्यौहार को मनाने या किसी संस्कृति को अपनाने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हमें किसी भी कार्य को करने से पहले इतना तो विचार कर ही लेना चाहिए कि इसका औचित्य क्या है ?

कहा जाता है कि वैलेंटाइन डे प्यार जताने का दिन है। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि जरूरी नहीं कि इस दिन आप अपने प्रेमी को ही अपना प्यार जताएं, आप अपने माता पिता को, गुरु को किसी को भी अपना प्यार जता सकते हैं।

ऐसे लोगों के लिए एक तथ्य। भारत जैसे सांस्कतिक रूप से समृद्ध देश को प्यार जताने के लिए विदेश से किसी दिन को आयात करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह तो त्योहारों का वो देश है जो मानवीय संबंधों ही नहीं बल्कि प्रकृति के साथ भी अपने प्रेम और कृतज्ञता को अनेक त्योहारों के माध्यम से प्रकट करता है।

जैसे गुरु पूर्णिमा (गुरु शिष्य) , रक्षा बंधन, भाई दौज (भाई बहन), करवाचौथ (पति पत्नी) , गौरी गणेश व्रत (माता और संतान), मकर संक्रांति (पिता पुत्र प्रेम), पितृ पक्ष (पूर्वजों), वसंत पंचमी (प्रेमी युगल), गंगा दशहरा, तुलसी विवाह (प्रकृति), हमारे देश में इस प्रकार के अनेक पर्व विभिन्न रिश्तों में प्रेम प्रकट करने का एक सशक्त माध्यम हैं।

इसके बावजूद अगर आज भारत जैसे देश में वसंतोत्सव की जगह वैलेंटाइन डे ने ले ली है तो कारण तो एक समाज के रूप में हमें ही खोजने होंगे। यह तो हमें ही समझना होगा कि हम केवल वसंतोत्सव से नहीं प्रकृति से भी दूर हो गए।

केवल प्रकृति ही नहीं अपनी संस्कृति से भी दूर हो गए।हमने केवल वैलेंटाइन डे नहीं अपनाया बाज़ारवाद और उपभोगतावाद भी अपना लिया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हम मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बन कर खुद अपनी संस्कृति के विनाशक बन जाते हैं जब हम अपने देश के त्योहारों को छोड़कर प्यार जताने के लिए वैलेंटाइन डे जैसे दिन को मनाते हैं।

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