प्रीतिष नंदी जैसे लोग आजादी के लड़ाई के संघर्ष में कहाँ थे ?—

प्रीतिष नंदी जैसे लोग आजादी के लड़ाई के संघर्ष में कहाँ थे ?—

** प्रीतिश नंदी को जवाब : उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।
** टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप तो वैसे ही अंग्रेज़ी का गुलाम, नवभारत टाईम्स हिंदी का स्वरुप बिगाडने वाला है पत्र है
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन–(मुबंई)—- प्रीतिष नंदी जैसे लोग आजादी के लड़ाई के संघर्ष में कहाँ थे ? शायद अंग्रेजो की मदद कर रहे होंगे ! ऐसे लोगो की बात को क्यों गंभीरता से लिया जाता है? प्रतिष नंदी ने Imperialism शब्द का प्रयोग किया है मतलब साम्राज्यवाद! जब एक देश दूसरे देश पर कब्ज़ा करके अपनी भाषा को उन पर थोपता है उसे साम्राज्यवाद कहते हैं! नंदीजी के अनुसार भारत एक देश ही नहीं है, अनेक देशो का समूह है और हिंदी प्रदेश ने जबरन दुसरे देशो पर कब्ज़ा किया हुआ है! ये लोग भारत के संविधान को नहीं मानते, अभी भी भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा मानते हैं ! भारत का English Imperialism बरकरार रखने केलिए हिंदी Imperialism जैसे बेवकूफी वाली बात कर रहे हैं ! ऐसे ही मानसिकता वाले गुजरात हाई कोर्ट के एक जज ने कहा था “गुजरात के लिए हिंदी विदेशी भाषा है“ ! भारत का अंग्रेजी ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रतीक है, अब तक हम ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बने हुए हैं इसके लिए प्रतिष नंदी जैसे लोगो के इशारों पर सरकारों का काम करना बड़ी वजह है !

Hindi Imperialism गैर हिंदी प्रदेशो की ही सोच थी

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तत्कालीन सरकार की राजभाषा हिन्दुस्तानी थी, वह सरकार अगर दिल्ली में स्थापित होती तो बोस पुरे देश के स्कुल कॉलेजों में हिन्दुस्तानी में शिक्षा देने वाले थे !(उनके विचार पढ़िये ) महात्मा गाँधी ने हिंदी को राष्ट्र भाषा कह कर १९१८ को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की थी। दक्षिण में हिंदी के प्रचार के लिए अंबेडकर जी एक देश, एक भाषा के समर्थक थे , उन्होंने हिंदी को एकमात्र राजभाषा बनाया! उन्होंने भाषा पर आधारित राज्य बनाने का विरोध किया था और सभी राज्यों को केंद्र सरकार की राजभाषा हिंदी को ही अपनी राज भाषा बनाने को कहा था! हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का मांग करनेवाले पहले नेता थे। बाल गंगाधर तिलक और भगत सिंह ने भी हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की मांग की थी !

प्रीतिष् नंदी जिस Hindi Imperialism की बात कर रहे है वे विचार गैर हिंदी प्रदेश के राष्ट्रवादी नेताओं ने ही शुरू किए हुए विचार थे। उसमे हिंदी प्रदेश के किसी भी नेता का योगदान नहीं है, उल्टा हिंदी प्रदेश के कुछ नेता ही हिंदी के विरोध में थे ! हिंदी प्रदेश के नेताओं की उदारता और लापरवाही की वजह से हिंदी अब तक भारत का राज भाषा नहीं बन पायी है और अंग्रेजी ही राज भाषा बनी हुई है !

जिनको हिंदी पसंद नहीं है तो वे अपनी भाषा में सीखें, English Imperialism का समर्थन क्यों कर रहे है? प्रतिष नंदी बंगाली का समर्थन करें !बांग्लादेश में एक ही भाषा होने पर भी वहा ज्ञान के लिए अंग्रेजी पर निर्भर है क्योंकि वहाँ भी प्रतिष् नंदी जैसे लोग मौजूद हैं। सरकारों को सलाह देने के लिए !

अंग्रेजी हमें बाकी दुनिया से नहीं जोड़ती बल्कि अलग करती है क्योंकी बाकी दुनिया अपनी भाषा में सीखती है ! जो देश पहेले ब्रिटिश हुकूमत में नहीं थे ऐसे किसी भी देश में अंग्रेजी नहीं है, अंग्रेजी केवल उन देशो में है जहाँ पहले अंग्रेजो की हुकूमत थी ! अंग्रेजो की हुकुमत वाले सभी देशो में भी अंग्रेजी नहीं है, ऐसे में ये लोग अंग्रेजी को क्यों language for higher education, language for science, language for technology, language for medicine, language for commerce, language for employment etc के हेकर बेवकूफ बना रहे है? जिन लोगो को आधुनिक शिक्षा अपनी भाषा में लाने की काबिलियत नहीं है वही लोग किसी विदेशी भाषा पर निर्भर होते है ! जिनको घर में खाना पकाना नहीं आता हो ऐसे ही लोग हमेशा होटल में खाना खाते है और हमेशा बीमार ही रहते हैं !

अंग्रेजी ज्ञान की नहीं बल्कि अज्ञान की भाषा है।
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जो लोग ज्ञानी होते है वे कभी ज्ञान के लिए किसी विदेशी भाषा पर निर्भर नहीं होते है ! यूरोप और पूर्वी एशिया के लोग अपनी अपनी भाषा में सीखते है इसलिए ज्ञानी है! भारत और अफ्रीका के देश ज्ञान के लिए अपनी मालिक की भाषा पर निर्भर है (फ्रेंच,इंग्लिश,पोर्तुगीस आदि ),क्या दुनिया इन्हें ज्ञानी मानते हैं या अज्ञानी? अंग्रेजी से हमें जो ज्ञान प्राप्त है वो किसी भी विकास के काम के लिए पर्याप्त नहीं है, हर विकास के काम के लिए फिर से हम उन देशो से Technology की मदद लेते है जो अंग्रेजी में नहीं सीखते !
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2.प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी Kkgoswami1942@gmail.com, 0-9971553740

प्रीतीश नंदी जी, हिन्दी ही भारत को जोड़ सकती है और अंग्रेज़ी तो भारत को तोड़े हुए है।
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दु:ख होता है कि भारत की आज़ादी के सत्तर वर्ष बाद भी प्रीतीश नंदी जैसे भारत के बुद्धिजीवियों में अंग्रेज़ी के प्रति मानसिक गुलामी अभी भी बरकरार है। भारत बहुभाषी देश हैं जिनमें 33 भाषाओं को बोलने वालेलोगों की संख्या लाखों-करोड़ों में हैं। इन भाषाओं का साहित्य भी समृद्ध और उत्कृष्ट है। फिर भी परायी भाषा अंग्रेज़ी के माया-मोह में अभी भी ये लोग अपने को छुड़ा नहीं पा रहे हैं। यह उनकी मानसिक गुलामी का प्रतीक है। भारतीय भाषाओं को हेय दृष्टि से देखना भारत और भारतीयता को हेय दृष्टि से देखना है।

भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे की सहोदर हैं। ये परजीवी बुद्धिजीवी लोग देश के हित में बात नहीं कर रहे बल्कि देश का अहित ही कर रहे हैं। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के पोषक हैं ये लोग। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद को टूटते देख कर वे बौखला उठे हैं। इन्होंने हिन्दी और भारतीय भाषाओं में वैमनस्य और भेद पैदा करना शुरू कर दिया है। हिन्दी साम्राज्यवाद का अनर्गल, निराधार और सारहीन आरोप लगा कर वे अपनी भाषा हिन्दी का ही नहीं, भारत राष्ट्र और भारतीय जनता का अपमान कर रहे हैं। इन्हें ये सब मालूम है कि हिन्दी जन-जन की भाषा है और सर्वाधिक बोली जाती है और इसका संबंध भारत की सभी भाषाओं से है, फिर भी ये ऐसी अनर्गल बातें करते हैं। क्या इन्हें यह मालूम नहीं कि लोकतंत्र के अंतर्गत प्रशासन, शिक्षा, न्याय आदि में लोकभाषा ही काम करती है और हिन्दी सच्चे मायनों में लोकतंत्र की भाषा है। प्रीतीश नंदी ने हिन्दी को नीचा दिखाने के लिए बंगाली, मराठी, उर्दू आदि भारतीय भाषाओं को जानबूझ कर इन भाषाओं का उल्लेख कर इन्हें श्रेष्ठ सिद्ध करने का निरर्थक प्रयास किया है जो देश के लिए घातक है। इससे भाषाओं में परस्पर वैमनस्य और अलगाव की भावना पैदा होती है। हमारे देश की सभी भाषाएँ श्रेष्ठ, समृद्ध और उच्च स्तरीय हैं, फिर श्रेष्ठता का सवाल किस लिए उठाया गया। उर्दू तो वास्तव में हिन्दी की एक शैली है जिसका व्याकरण तो एक है लेकिन उसमे फारसी और अरबी भाषाओं के शब्दों और अरबी-फारसी लिपि के कारण प्रीतीश नंदी जैसे अलगाववादी लोगों ने उसे अलग भाषा मान लिया है। इसके अतिरिक्त रवीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, तुलसी, सूर, कबीर निराला, प्रसाद, सुब्रह्मण्यम, वेमन्ना, सुभाष चंद्र बोस, स्वामी विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, स्वामी दयानंद, राम प्रसाद बिस्मिल, पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, अबुल कलाम, भाभा आदि साहित्यकार, संन्यासी, स्वतंत्रता-सेनानी, वैज्ञानिक एक ही देश भारत के महापुरुष है। वे उनका किसी एक एक भाषा या प्रांत के साथ कोई संबंध नहीं रहा। वे समूचे भारत के हैं। समूचा देश उनके प्रति सम्मान, श्रद्धा और आदर का भाव रखता है।

टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप तो वैसे ही अंग्रेज़ी का गुलाम है और वह अपने नवभारत टाइम्स जैसे हिन्दी अखबार में अंग्रेज़ी के शब्द ज़बरदस्ती ठूँसता रहता है और हिन्दी के स्वरूप को बिगाड़ता रहता है। अगर उसमें प्रीतीश नंदी जैसे गुलाम मानसिकता वाले लोगों का यह अंग्रेज़ी लेख प्रकाशित होता है तो आश्चर्य की बात नहीं है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि प्रीतीश नंदी जी, हिन्दी ही भारत को जोड़ सकती है और अंग्रेज़ी तो भारत को तोड़े हुए है। अंग्रेज़ी भारत को भारत नहीं, इंडिया बनाए हुए है जिससे लोगों के बीच आज भी भेद-भाव की स्थिति बनी हुई है। भारतीय भाषाएँ हिन्दी की भगिनी की तरह देश को जोड़ने में अग्रसर होंगी। नंदी जी, ज़मीन पर आइए, वास्तविकता और यथार्थ को पहचानिए। दूसरे देशों से कुछ सबक लीजिए और देश के एकीकरण मे सहयोग दीजिए।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक एवं सरोज कुमार त्रिपाठी , भारतीय भाषा सम्मेलन
मो. 9289747206, 0124—405—7295
पता— 242, सेक्टर—55, गुरुग्राम—122011, रेपिड मेट्रो स्टेशन सेक्टर 55—56 (रेपिड मेट्रो का खंबा नंबर 250
ईमेल– dr.vaidik@gmail.com

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