- October 29, 2021
पेगासस स्पाईवेयर : सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर वी रवींद्रन की निगरानी में तीन विशेषज्ञों की एक स्वतंत्र समिति नियुक्त
सर्वोच्च न्यायालय ने पेगासस स्पाईवेयर मामले की जांच के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर वी रवींद्रन की निगरानी में तीन विशेषज्ञों की एक स्वतंत्र समिति नियुक्त करने का जो निर्णय लिया है, वह बुनियादी अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में उठाया गया एक कदम है। इस समिति के पास बड़ा दायित्व है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जिन 12 याचिकाओं को स्वीकार किया है उनमें आरोप लगाया गया है कि निजता और अभिव्यक्ति की आजादी के बुनियादी अधिकारों का हनन किया गया है। इसमें दावा किया गया है कि सरकार भी हनन के इन मामलों में एक पक्ष है और भारतीय नागरिकों की निगरानी में विदेशी संस्थानों को शामिल किया गया है। इतना ही नहीं सरकार ने याचियों के दावों में जाहिर तथ्यों में से किसी को नकारा भी नहीं है। आदेश के मुताबिक इसने राष्ट्रीय सुरक्षा का सहारा लिया जो इस बात के लिए पर्याप्त नहीं है कि अदालत केवल ‘मूक दर्शक’ बनी रहे।
समिति से कहा गया है कि वह अपनी रिपोर्ट ‘जल्दी’ प्रस्तुत करे और अगली सुनवाई आठ सप्ताह में करने की बात कही गई है। सभी तीन तकनीकी विशेषज्ञ अकादमिक जगत के हैं और वे कंप्यूटर विज्ञान तथा साइबर सुरक्षा जैसे विषयों से जुड़े रहे हैं। समिति की जांच का दायरा व्यापक है और वह किसी भी व्यक्ति, किसी भी अधिकारी के पास मौजूद दस्तावेज या व्यक्ति को तलब कर सकती है।
समिति से यह निर्धारित करने को कहा गया है कि क्या पेगासस का इस्तेमाल भारतीय नागरिकों की जासूसी के लिए किया गया, यदि हां तो किन लोगों की जासूसी की गई और निगरानी की खबरें बाहर आने के बाद भारत सरकार की ओर से क्या कदम उठाए गए। उसे यह भी पता करना है कि अगर पेगासस को केंद्र सरकार, किसी राज्य सरकार या किसी सरकारी एजेंसी ने इस्तेमाल किया तो क्या यह वैध था? समिति निजता के अधिकार के संरक्षण के लिए मौजूदा कानूनों में बदलाव, देश की साइबर सुरक्षा बढ़ाने और अवैध निगरानी की आशंका जताने वाले नागरिकों की समस्याओं के हल के लिए व्यवस्था विकसित करने की अनुशंसा कर सकती है। वह नई साइबर सुरक्षा एजेंसी बनाने और समुचित कानून बनने तक निजता बढ़ाने के लिए तदर्थ उपायों का सुझाव भी दे सकती है।
समय की कमी और पेगासस की तकनीकी जटिलताओं तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के बयान की जरूरत को देखते हुए यह कठिन काम है। सरकार ने आरंभ में इसे लेकर जो ‘सीमित शपथ पत्र’ दिया था उसमें इसे ‘अस्पष्ट ढंग से नकारा’ गया था और संभव है कि समिति की जांच में भी आगे अड़चनें आएं। बहरहाल, सकारात्मक बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को लेकर अधिकार संपन्न समिति बनाई। मामलों में तथ्य निर्धारण के अलावा समिति से कहा जा रहा है कि वह संकट निवारण प्रणाली तथा निजता तथा अभिव्यक्ति की आजादी के बुनियादी अधिकार की रक्षा के लिए अंतरिम विकल्प भी सुझाए।
इस निर्णय में एक और बात जिस पर ध्यान दिया गया है वह है डेटा संरक्षण और निजता सुनिश्चित करने वाले कानून को पारित करने में हो रही देरी। चार वर्ष से भी अधिक समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने निजता को बुनियादी अधिकार माना था और सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति बी श्रीकृष्ण ने तीन वर्ष से भी अधिक पहले इस विषय में कानून का मसौदा बनाया था। वह मसौदा संसद में पेश नहीं किया गया बल्कि उसमें संशोधन करके उपायों को शिथिल किया गया और डेटा संग्रह और निगरानी के असीमित अधिकार सरकारी एजेंसियों को सौंप दिए गए। समस्या निवारण प्रणाली तथा विशिष्ट कानूनों की कमी के कारण इस बुनियादी अधिकार के हनन के मामलों में दंडित करना असंभव है। पेगासस मामला इन कारणों से संभावित नुकसान का सटीक उदाहरण है। समिति के पास अवसर है कि वह चीजों को सही करने की शुरुआत करे।