• July 27, 2017

पर्यावरण रक्षा सर्वोपरि–आशुतोष कुमार

पर्यावरण रक्षा सर्वोपरि–आशुतोष कुमार

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इन दिनों पूरा विश्व जिन अनेक संकटों से जूझ रहा है, उनमें पर्यावरण का संकट भी बहुत महत्वपूर्ण है। यों तो पर्यावरण संरक्षण की बात करना इन दिनों एक फैशन बन गया है। भारत में काम करने वाले लाखों अ-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ) पर्यावरण के लिए ही काम कर रहे हैं; पर उनके प्रयासों के बाद भी यह संकट हल होने की बजाय बढ़ ही रहा है।

लगभग 98 प्रतिशत का उद्देश्य पर्यावरण को बचाना नहीं, अपितु प्रचार और प्रसिद्धि पाकर अपनी जेब भरना है। ऐसे सभी संगठन महानगरों के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर, पंचतारा होटलों में सेमिनार कर तथा वातानुकूलित गाड़ियों में घूमकर लोगों को पर्यावरण का संदेश देते फिरते हैं। सच तो यह है कि ये स्वयं पर्यावरण का विनाश करते हैं।

पर्यावरण की परिभाषा में जल, जंगल, जमीन और खेतीबाड़ी से लेकर मौसम तक सब शामिल है। इसे क्षति पहुंचाने के सबसे बड़े अपराधी दुनिया के वे तथाकथित विकसित देश हैं, जो दुनिया के हर संसाधन को पैसे और ताकत के बल पर अपनी झोली में डाल लेना चाहते हैं। अत्यधिक बिजली और ऊर्जा संसाधनों का उपयोग कर वे अपने साथ-साथ पूरे विश्व को संकट में डाल रहे हैं। ग्रीन हाउस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन वही कर रहे हैं, जिससे ओजोन परत लगातार क्षतिग्रस्त हो रही है। विश्वव्यापी गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग) का कारण ओजोन का क्षरण ही है।

जहां तक भारत की बात है, तो यहां पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति शहरीकरण के कारण हुई है। आजादी से पूर्व गांधी जी भारत को एक ग्रामीण देश बनाना चाहते थे। अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में उन्होंने इस बारे में विस्तार से लिखा है; परन्तु उन्होंने अपना उत्तराधिकारी जिसे बनाया, वह जवाहरलाल नेहरू भारत को शहरों का देश बनाना चाहते थे। वे गांवों को पिछड़ेपन का प्रतीक मानते थे। उन्हें खेती की बजाय उद्योगों में भारत की उन्नति नजर आती थी। रूस और इंग्लैंड से प्रभावित नेहरू के प्रधानमंत्री बनने से ग्रामीण विकास की गति अवरुद्ध हो गयी और शहरीकरण बढ़ने लगा। पर्यावरण का संकट इसी का परिणाम है। दुनिया में जितनी ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं, उसका 1/5 भाग भारत उत्सर्जित करता है।

पश्चिमी देशों का भारत तथा उस जैसे विकासशील देशों पर यह आरोप है कि पशुओं के गोबर और जुगाली करने से बहुत बड़ी मात्रा में मीथेन गैस निकलती है, जो धरती के बढ़ रहे तापमान का प्रमुख कारण है। इसलिए वे चाहते हैं कि इन पशुओं को क्रमशः समाप्त कर पूरी खेती मशीनों के आधार पर हो; पर सच यह है कि सबसे अधिक (21.3 प्रतिशत) ग्रीन हाउस गैसें विद्युत निर्माण संयंत्रों से निकलती हैं। इनमें परमाणु ऊर्जा से बनने वाली बिजली का योगदान सर्वाधिक है। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले महाविनाश का ताजा उदाहरण जापान है। इससे पूर्व सोवियत संघ में हुई चेर्नोबल दुर्घटना भी बहुत पुरानी नहीं है।

इसके बाद 16.8 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसें औद्योगिक इकाइयों से तथा 14 प्रतिशत परिवहन से उत्पन्न होती हैं। इन दिनों खेती में अन्न के बदले जैविक ईंधन उगाने का फैशन चल निकला है। इस ईंधन से भी 11.3 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न हो रही हैं। स्पष्ट है कि वैश्विक गरमी का कारण भारत की परम्परागत कृषि प्रणाली नहीं, अपितु तथाकथित उन्नत देशों की मशीनी पद्धति है।

कम्प्यूटर ने मानव के जीवन को आसान बनाया है। अतः इसका विरोध करने का कोई कारण नहीं है; पर यह नहीं भूलना चाहिए कि एक कम्प्यूटर चलते समय 200 वाट बिजली खाता है और कार्यालय खुलने से लेकर बंद होने तक प्रायः सब कम्प्यूटर काम न होने पर भी चलते रहते हैं। इनका उपयोग कार्यालय संबंधी काम में कम और निजी ई.मेल, चैटिंग और देश-विदेश में फोनवार्ता आदि में अधिक हो रहा है।

मोबाइल इन दिनों जीवन की आवश्यकता ही नहीं अनिवार्यता बन गये हैं। इसके कारण पूरी दुनिया हमारी मुट्ठी में समा गयी है; पर हर समय कान में घुसे तार से युवा पीढ़ी कान और मस्तिष्क संबंधी रोगों की शिकार भी हो रही है। ट्विटर और फेसबुक से चिपके छात्र हर दिन अपने खेलकूद का पूरा समय इसी में खर्च कर देते हैं। इसका असर जहां उनकी पढ़ाई पर पड़ रहा है, वहां वे मोटे भी हो रहे हैं। मोबाइल से चिपके लोगों का ध्यान इस ओर भी नहीं जाता कि मोबाइल टावर हर साल 60 करोड़ लीटर डीजल पी जाते हैं। इनसे निकलने वाली ध्वनि तरंगों के कारण मधुमक्खी, तितली और गौरैया जैसे मानवमित्र कीट और पक्षी समाप्त हो रहे हैं।

परिवहन के आधुनिक साधनों ने दूरियां घटाई हैं; पर दुनिया का 60 प्रतिशत तेल इसी में खर्च होता है। एक बोइंग 747 विमान दो मिनट में जितनी ऊर्जा खर्च करता है, उतनी ऊर्जा से घास काटने वाली एक लाख मशीनें लगातार आठ घंटे तक चल सकती हैं। पूरी दुनिया में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का दो प्रतिशत वायुयानों के कारण है। दिल्ली । दिल्ली जैसे मैट्रो नगरों में सामान्य व्यक्ति 24 में से दो-तीन घंटे घर से दुकान या कार्यालय जाने में ही लगा देता है। इस कारण न वह परिवार को समय दे पाता है और न अपने स्वास्थ्य को। इस यात्रा में लाल बत्ती और सड़क जाम के दौरान कितनी प्रदूषित वायु उसके फेफड़ों में जम जाती है, कहना कठिन है।

शहरी जीवन का आधार है बिजली। यदि थोड़ी देर के लिए भी बिजली चली जाए, जो जीवन दूभर हो जाता है। घर में कपड़े धोने से लेकर चटनी पीसने तक के काम अब मशीनों से होने लगे हैं और ये मशीनें बिजली से चलती हैं। शहरों में दूरियां बहुत अधिक होती हैं। पुरुष अपने काम के लिए घर से दस-बीस कि.मी दूर जाता ही है। बच्चे भी पढ़ने के लिए बस या टैक्सी में बैठकर इतनी ही दूर जाते हैं। केवल पढ़ाई ही क्यों, कई तरह की ट्यूशन के लिए भी उन्हें हर दिन इतनी ही यात्रा और करनी पड़ती है। ये वाहन तेल से चलते हैं, जो भरपूर प्रदूषण फैलाते हैं। इन दिनों शहरों में हर युवक पर मोटरसाइकिल और युवती पर स्कूटर होना अनिवार्य सा हो गया है। इस भागमभाग से दुर्घटनाएं भी बढ़ रही हैं। शहर में हर व्यक्ति औसत 300 लीटर पानी भी हर दिन खर्च कर देता है।

इसके दूसरी ओर ग्राम्य जीवन को देखें, तो वहां का जीवन सरल और न्यूनतम आवश्यकताओं पर आधारित है। घर से खेत, विद्यालय और बाजार आदि की दूरी कम होने के कारण आसानी से लोग पैदल या साइकिल से चले जाते हैं। पेड़-पौधे और नदी-तालाब के कारण मौसम न अधिक ठंडा होता है और न अधिक गरम। गरमी में लोग पेड़ के नीचे, तो सरदी में अलाव के पास बैठकर शरीर को आराम देते हैं। वहां शहर की तरह कूलर या हीटर की आवश्यकता नहीं होती। ईंधन भी खेत से मिल जाता है और शेष कमी गोबर के कंडे पूरी कर देते हैं। अर्थात न गैस की आवश्यकता है और न हीटर की। अब तो गोबर से गैस और बिजली भी बनने लगी है।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम फिर से ग्राम्य जीवन को अपनाएं। भारत की अधिकांश समस्याओं की जड़ शहरीकरण है। ग्राम्य जीवन संतोष और शांति देता है, जबकि शहरी जीवन तनाव। इसलिए इन दोनों में कुछ संतुलन होना चाहिए। गांवों में आवश्यक बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की सुविधा पहुंच जाए, तो लोग शहरों की ओर भागना बंद कर दें।

ग्राम्य जीवन का बहुत बड़ा आधार गाय है। गाय से प्राप्त दूध, दही, घी आदि हमें स्वास्थ्य प्रदान करता है। उसके गोबर और गोमूत्र से खेती को उन्नत करने वाली खाद और कीटनाशक बनते हैं। मरने के बाद भी उसकी खाल और सींग के अनेक उपयोग हैं। गियर और हल्के पहिये लगाकर कुछ वैज्ञानिकों ने बैलगाड़ी को उन्नत किया है। इससे बैलों की शक्ति कम खर्च होती है तथा ग्राम्य परिवहन की गति बढ़ी है। इस ओर यदि कुछ और शोध तो, तो गोवंश के बल पर ग्राम लगभग स्वावलम्बी हो सकता है।
स्पष्ट है कि यदि पर्यावरण की रक्षा करनी है, तो फिर से गांवों की ओर जाना होगा। पर्यावरण की देखभाल को केवल सरकारी क्षेत्र का कार्य मानने से हम अपने पर्यावरण को संतुलित नहीं रख सकते. सुरक्षित संसाधन संरक्षित पर्यावरण के नारे को अपने आचरण का अंग बना अधिक से अधिक पौधे लगाने के साथ ही पर्यावरण को हर प्रकार के प्रदूषण से बचाना भी समय की आवश्यकता है. ग्लोबल वार्मिंग से आज संपूर्ण विश्व भयभीत है. पिघलते ग्लेशियर जहाँ शुद्ध पेयजल का संकट पैदा कर रहे हैं वहीँ तेजी से धरती निगलने को भी तत्पर हैं जिस के कारण दुनिया के तमाम बड़े शहर जो समुद्र किनारे बसे हैं, डूबने से नहीं बच सकेंगे. पर्यावरण का बिगड़ता संतुलन और बढ़ती आबादी मानव सभ्यता के विकास में दो ऐसे रोड़े हैं जिनपर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो इसके दुष्‍परिणाम से हमें कोई नहीं बचा सकेगा. आज आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण पर बढते संकट पर प्रत्येक नागरिक को गंभीरता से चिंतन करने व जागरूक हो अपने पूरे परिवार के साथ उसकी देखभाल करने के लिए आगे आना चाहिए.
आशुतोष कुमार

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