पंचायत में भूमिका तलाशती महिला जनप्रतिनिधि —- राजेश निर्मल

पंचायत में भूमिका तलाशती महिला जनप्रतिनिधि —- राजेश निर्मल

सुल्तानपुर (यूपी) मौसम में बदलाव के लक्षण नजर आने लगे है। मौसम में उमस और गर्मी के साथ साथ पंचायत चुनाव ने भी दस्तक दे दी है। उत्तर प्रदेश में पंचायती चुनाव इसी महीने मार्च में होने वाले थे लेकिन महामारी और बोर्ड परीक्षा के चलते इसे थोड़ा और बढ़ाना पड़ा। तारीख़ों के आगे बढ़ जाने से पंचायती चुनाव की दांव-पेंच, आंकलन और उठापटक कम नहीं हुई है। सब कुछ उसी गति से चल रहा है।

गांव, मोहल्ले की बहस रोज़ चौराहे तक जाती है और शाम ढलने पर फिर गांव लौट आती है। इसी बहस में एक बहस हम भी छेड़ते है कि महिलाओं की वर्तमान पंचायतों में क्या भूमिका है? जिसके जवाब हम सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश के बल्दीराय और इसौली इलाके कुछ गांवों के लोगो और पुरानी महिला ग्राम प्रधानों से बात कर के ढूंढते हैं।

भले ही देश की संसद में अब तक महिलाओं के 33% आरक्षण की मांग को पूरा करने में टालमटोल चल रही हो, लेकिन देश के पंचायती राज में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। पंचायती राज मंत्रालय के आंकड़ों की माने तो देश के बहुत से राज्यों में महिलाओं के लिए आरक्षण 33% से बढ़ाकर 50% तक कर दिया है। हर दूसरे पद में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जा रही है। 73वें संविधान संशोधन 1992 के बाद से पंचायती राज में एक तिहाई आरक्षण को मंजूरी मिली बाद में जिसे बढ़ा कर कई राज्यों ने इसे पचास प्रतिशत तक किया है। जिससे सीधे तौर पर महिलाओं की भागीदारी में एक बड़ा चमत्कारी परिवर्तन देखने को मिला है। 73वें संशोधन के बाद से आज देश में 2.5 लाख पंचायतों में लगभग 32 लाख प्रतिनिधी चुन कर आ रहे है। इनमें 14 लाख से अधिक महिला ही हैं। जो कुल निर्वाचित सदस्यों का 46.14% है।

इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी होने के बावजूद भी जनप्रतिनिधि के रूप में महिलाएं पंचायत में अपनी भूमिका सशक्त रूप से निभा नहीं पा रही हैं। वह पुरुष प्रधान समाज में केवल चुनी हुई कठपुतली की तरह काम करने को मजबूर हैं। प्रधान और पंचायत सदस्य चुने जाने के बावजूद न तो वह किसी बैठक में हिस्सा ले पाती हैं और न ही किसी निर्णय में उनकी भागीदारी होती है। उनकी भूमिका केवल पुरुषों द्वारा लिए गए निर्णय पर अंतिम मुहर लगाने से अधिक नहीं होती है। ऐसे निर्णय जिनकी जानकारी स्वयं उन्हें नहीं होती है, पूर्व की भांति उनकी भूमिका घर की चारदीवारी के अंदर चूल्हे चौके तक ही सीमित रहती है।

पंचायत में पुरुष प्रधानता और उनकी दबंगई का आलम यह था कि कोई भी महिला जनप्रतिनिधि उस वक्त तक हमसे बात करने को तैयार नहीं हुई, जब तक हमने उनकी पहचान और क्षेत्र का नाम छुपाने का आश्वासन नहीं दे दिया। नाम और क्षेत्र की पहचान गुप्त रखने की शर्त पर सीतापुर (बदला हुआ नाम) गांव की साल 2010 की ग्राम प्रधान रमावती (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि “मुझे हमेशा से लगता था कि गांव का मुखिया या ग्राम प्रधान कोइ पुरुष ही होता है। मेरी कल्पना में नहीं था कि कोई महिला भी कभी प्रधान हो सकती हूं। लेकिन जब हमारा गांव महिला रिजर्व सीट घोषित किया गया तो पंचायत पर आधिपत्य रखने वाले दबंगों ने चुनाव में मुझे खड़ा कर दिया और मैं प्रधान बनी। लेकिन मेरे अनुभव की बात करे तो मुझे आज भी लगता है सिर्फ़ आरक्षित सीट हो जाने से प्रतिनिधित्व महिलाओं के हाथ में नहीं आता।”

प्रधानी का चुनाव लड़ने का अपना अनुभव बताते हुए रामवती कहती हैं कि “मैं हरिजन समुदाय से हूँ, जहां दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम भी बड़ी मुश्किल से होता है। ऐसे में मेरे चुनाव के बारे में सोचने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। मैं मज़दूरी करके अपने परिवार का पेट पाल रही थी। एक सुबह मैं सोकर उठी तो देखा गांव के बड़े सम्मानित लोग मेरे दरवाज़े पर खड़े थे, मुझे बड़ा अचंभा हुआ। फिर वह सभी मुझसे चुनाव लड़ने की गुज़ारिश करने लगे। कह रहे थे कि इस बार गांव की सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है।

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