• March 26, 2016

निकम्मे ही कोसते हैं भगवान या भाग्य को – डॉ. दीपक आचार्य

निकम्मे ही कोसते हैं  भगवान या भाग्य को  – डॉ. दीपक आचार्य

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जब भी कोई अच्छा सुकून देने वाला कुछ होता है हम छूटते ही कह दिया करते हैं हमारी मेहनत का परिणाम है। तब हम न भाग्य को याद करते हैं, न भगवान को। लेकिन जब कभी बुरा लगता है तब भाग्य को भी कोसते हैं और भगवान को भी नहीं छोड़ते।

अधिकांश लोगों की पूरी जिन्दगी इसी आदत में निकल जाती है। भाग्य अपनी जगह है, भगवान अपनी जगह है।  ये हमारे लिए तभी काम आते हैं जब इन्हें जगाया जाए। जगने के बाद ही ये हमारी सुध लेते हैं अन्यथा नहीं। हम जागरण की कोशिश नहीं करते बल्कि खुद सोये  रहते हैं।

दुनिया के अधिकांश लोगों के समस्त प्रकार के दुर्भाग्य, समस्याओं, मानसिक एवं शारीरिक पीड़ाओं, विषमताओं, अभावों और दीन-दैन्यावस्था का कारण वे स्वयं ही होते हैं। हम इतने आरामतलबी, परायी सेवा में आनंद महसूस करने वाले, भोगी-विलासी, प्रमादी, आलसी और दरिद्री हो गए हैं कि हम खुद कुछ करना नहीं चाहते,और चाहते हैं दूसरे लोग करते रहें और प्राप्ति हमें होती रहे।

इस वजह से हमने अपने मन-मस्तिष्क और शरीर को भी ढाल कर हद दर्जे का निकम्मा बना डाला है।  इंसान के रूप में पैदा होने के बावजूद हम लोग पशुओं के अधिक करीब होते जा रहे हैं जहां परिश्रम से जी चुराना, अपने स्वार्थ में रमे रहना और दूसरों के भरोसे जिन्दगी काट लेना हमारी दिनचर्या ही हो गया है।

इसके सिवा न हमसे कुछ बन पा रहा है, न हमारे भीतर कुछ कर पाने की इच्छाशक्ति ही है। हमारी सारी समस्याओं के जनक हम ही हैं जिन्होंने मानवीय मर्यादाओं, अनुशासन, आदर्श जीवनचर्या सब कुछ को छोड़ दिया है और इसका स्थान ले लिया है आलस्य ने।

बहुत सारे सदा शोकाकुल, आकुल-व्याकुल लोग हैं जो रोजाना अपना दुखड़ा रोते हुए अभावों और समस्याओं से परेशान होने की बातें करते हुए मरे जा रहे हैं लेकिन अपनी गलती स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। इन लोगों की रोजाना की जीवनचर्या को देखा जाए तो साफ-साफ लगेगा कि ये अपनी ही करनी से दुःखी हैं, और ऎसे में न कोई इंसान इन निकम्मों, आलसियों और दरिद्रियों की मदद करने की सोच पाता है, न भगवान इनकी ओर देखता है।

इन लोगों के जीवन में उठने से लेकर सोने तक की दिनचर्या में कई खामियां देखी जाती हैं वहीं इनकी मनोवृत्ति, स्वभाव और व्यवहार में भी स्वार्थ,मलीनताओं और राग-द्वेष का भरपूर समावेश होता है जो इन्हें इंसान से अलग ठहराता हुआ त्रिशंकु जिन्दगी दे डालता है। जहाँ न ये जमीन के होते हैं, न आसमान के। न घर के न घाट के। न सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के होते हैं, न अपने वंश-परिवार, माता-पिता या कुटुम्बियों के।

इन लोगों का जीवन स्वच्छन्द, स्वेच्छाचारी, उन्मुक्त और मर्यादाहीन होने के साथ ही संस्कारों से इतना अधिक मुक्त हो जाता है कि ये न अपने आप के रहते हैं, न अपने आपे में। जो लोग सूर्योदय से पूर्व उठते नहीं, देर रात तक बेवजह जगते रहते हैं, उन लोगों का जीवन हमेशा अंधकारमय रहता है। जिन लोगों की रात्रि ड्यूटी है उन्हें छोड़कर जो लोग रात को दस बजे बाद बिना वजह से जगते रहते हैं, सूर्योदय के बाद तक सोते रहते हैं, वे सारे के सारे लोग अनिद्रा के साथ ही घातक बीमारियों से पीड़ित रहेंगे ही, इन्हें आईसीयू का भावी मरीज,  डॉक्टरों के लिए कमाऊ मजूर होने और गोलियों पर जिन्दा रहने की विवशता से कोई नहीं रोक सकता।

वात, पित्त और कफ त्रिदोष से ये जबर्दस्त पीड़ित रहते हैं और इस वजह से अनेक रोगों की चपेट में आए बगैर नहीं रहते। नेत्र रोग, मोटापा, वार्धक्य, मनोरोग और बीसियों बीमारियों को इनके शरीर में आसानी से देखा जा सकता है। ये लोग अपनी इस करनी से जीवन की बीस फीसदी आयु समाप्त कर डालते हैं और तय समय से बीस साल पहले ही ऊपर पहुंच जाते हैं।

इसी प्रकार जो लोग आत्मचिन्तन, ध्यान और आध्यात्मिक विषयों की बजाय संसार को जानने, संसार में रमने और षड़यंत्रों में लगे रहने की बीमारी पाल लेते हैं, अनर्गल चर्चाओं का आनंद पाते हैं, समय को जाया करते हैं, बददुआएं  लेते हैं, कामचोरी करते हैं, बिना मेहनत का धन और संसाधनों के भोग में जुटे रहते हैं, हराम का खान-पान करते हैं, भ्रष्ट और रिश्वतखोर हैं, निरपराध और सज्जन लोगों को तनाव एवं दुःख देते हैं, वे सारे के सारे लोग यमराज की लेज़र किरणों में आए हुए होते हैं और इनकी आयु छीन ली जाती है।

बहुत से लोग भिखारियों और निम्न दर्जे के याचकों की तरह इधर-उधर भीख मांगते फिरते हैं, अपने आपको पालतु श्वानों के रूप में ढाल लेते हैं, दूसरों की दया पर जिन्दा रहते हैं, सर्वशक्तिमान परमात्मा को भुला कर भूत-प्रेतों, जिन्नों और पितरों की उपासना को जीवन का ध्येय बना चुके होते हैं उनकी दुर्गति निश्चित ही होती है। ये लोग जिन परिसरों में रहते हैं वहाँ का सारा माहौल इनके मलीन आभामण्डल की वजह से दूषित रहता है, इसलिए ऎसे लोगों से दूर भी रहें।

इसलिए जीवनचर्या को दिव्य बनाएं और जीवन का सुख पाएं, पूर्ण आयु का भोग करें। महाविधुरों और महाविधवाओं की तरह न भाग्य का रोना रोएं, न भगवान को कोसें।

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