- September 11, 2020
देश का उद्धार विलासियों द्वारा नहीं हो सकता। उसके लिए सच्चा त्यागी होना पड़ेगा — मुंशी प्रेमचंद से प्रेमचंद
धनपत राय श्रीवास्तव (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) जो प्रेमचंद नाम से जाने जाते हैं, वो हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे।
उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिंदी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा।
उन्होंने हिंदी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बंद करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे।
जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबंध, साहित्य का उद्देश्य अंतिम व्याख्यान, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।
1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आंदोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है।
उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है।
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिंदी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में १९१८ से १९३६ तक के कालखंड को ‘प्रेमचंद युग’ कहा जाता है।
प्रेमचंद स्मृति द्वार, लमही, वाराणसी
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था।
प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। प्रेमचंद के माता-पिता के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- “जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब पंद्रह साल के हुए तब उनकी शादी कर दी गई और सोलह साल के होने पर उनके पिता का भी देहांत हो गया।” इसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा।
प्रेमचंद के जीवन का साहित्य से क्या संबंध है इस बात की पुष्टि रामविलास शर्मा के इस कथन से होती है कि- “सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पंडे-पुरोहित का कर्मकांड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे।”
उनको बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ ‘शरसार’, मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ।
1906 में उनका दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ जो बाल-विधवा थीं। वे सुशिक्षित महिला थीं जिन्होंने कुछ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी तीन संताने हुईं – श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।
1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। उनकी शिक्षा के संदर्भ में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- “1910 में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास लेकर इंटर किया और 1919 में अंग्रेज़ी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी. ए. किया।” 1919 में बी.ए. पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।
1921 ई. में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से 23 जून को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। प्रेस उनके लिए व्यावसायिक रूप से लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ।
1933 ई. में अपने ऋण को पटाने के लिए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कंपनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबंध भी पूरा नहीं कर सके और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।
साहित्यिक जीवन
भित्तिलेख
प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 से हो चुका था । आरंभ में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद की पहली रचना के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-“प्रेमचंद की पहली रचना, जो अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’ नाम के अपने लेख में किया है।” उनका पहला उपलब्ध लेखन उर्दू उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ है जो धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी रूपांतरण देवस्थान रहस्य नाम से हुआ।
प्रेमचंद का दूसरा उपन्यास ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ है जिसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। 1908 ई. में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ।
देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर प्रेमचंद के नाम से लिखना पड़ा। उनका यह नाम दयानारायन निगम ने रखा था। ‘प्रेमचंद’ नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई।
1915 ई. में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई। 1918 ई. में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि उनकी लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे।
1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद वे पूरी तरह साहित्य सृजन में लग गए। उन्होंने कुछ महीने मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वर्षों तक हिंदी पत्रिका माधुरी का संपादन किया। 1922 में उन्होंने बेदखली की समस्या पर आधारित प्रेमाश्रम उपन्यास प्रकाशित किया।
1925 ई. में उन्होंने रंगभूमि नामक वृहद उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें मंगलप्रसाद पारितोषिक भी मिला। 1926-27 ई. के दौरान उन्होंने महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका चाँद के लिए धारावाहिक उपन्यास के रूप में निर्मला की रचना की। इसके बाद उन्होंने कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि और गोदान की रचना की।
उन्होंने 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। १९३२ ई. में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कथा-लेखक की नौकरी भी की।
1934 में प्रदर्शित फिल्म मजदूर की कहानी उन्होंने ही लिखी थी।
1920-36 तक प्रेमचंद लगभग दस या अधिक कहानी प्रतिवर्ष लिखते रहे। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ “मानसरोवर” नाम से ८ खंडों में प्रकाशित हुईं। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त वैचारिक निबंध, संपादकीय, पत्र के रूप में भी उनका विपुल लेखन उपलब्ध है।
असरारे मआबिद- उर्दू साप्ताहिक आवाज-ए-खल्क़ में 8अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। कालांतर में यह हिंदी में देवस्थान रहस्य नाम से प्रकाशित हुआ।
हमखुर्मा व हमसवाब- इसका प्रकाशन 1907 ई. में हुआ। बाद में इसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से प्रकाशित हुआ।
किशना- इसके संदर्भ में अमृतराय लिखते हैं कि- “उसकी समालोचना अक्तूबर-नवंबर 1907 के ‘ज़माना’ में निकली।” इसी आधार पर ‘किशना’ का प्रकाशन वर्ष 1907 ही कल्पित किया गया।
रूठी रानी- इसे सन् 1907 में अप्रैल से अगस्त महीने तक ज़माना में प्रकाशित किया गया।
जलवए ईसार- यह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ था।
सेवासदन- 1918 ई. में प्रकाशित सेवासदन प्रेमचंद का हिंदी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। यह मूल रूप से उन्होंने ‘बाजारे-हुस्न’ नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिंदी रूप ‘सेवासदन’ पहले प्रकाशित हुआ। यह स्त्री समस्या पर केंद्रित उपन्यास है जिसमें दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, स्त्री-पराधीनता आदि समस्याओं के कारण और प्रभाव शामिल हैं।
डॉ रामविलास शर्मा ‘सेवासदन’ की मुख्य समस्या भारतीय नारी की पराधीनता को मानते हैं।
प्रेमाश्रम (1922)- यह किसान जीवन पर उनका पहला उपन्यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में ‘गोशाए-आफियत’ नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आंदोलनों के दौर में लिखा गया। इसके संदर्भ में वीर भारत तलवार किसान राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचन्द:1918-22 पुस्तक में लिखते हैं कि- “1922 में प्रकाशित ‘प्रेमाश्रम’ हिंदी में किसानों के सवाल पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें सामंती व्यवस्था के साथ किसानों के अंतर्विरोधों को केंद्र में रखकर उसकी परिधि के अंदर पड़नेवाले हर सामाजिक तबके का-ज़मींदार, ताल्लुकेदार, उनके नौकर, पुलिस, सरकारी मुलाजिम, शहरी मध्यवर्ग-और उनकी सामाजिक भूमिका का सजीव चित्रण किया गया है।”
रंगभूमि (1925)- इसमें प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं।
निर्मला (1925)- यह अनमेल विवाह की समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है।
कायाकल्प (1926)
अहंकार – इसका प्रकाशन कायाकल्प के साथ ही सन् 1926 ई. में हुआ था। अमृतराय के अनुसार यह “अनातोल फ्रांस के ‘थायस’ का भारतीय परिवेश में रूपांतर है।”
प्रतिज्ञा (1927)- यह विधवा जीवन तथा उसकी समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है।
गबन (1928)- उपन्यास की कथा रमानाथ तथा उसकी पत्नी जालपा के दांपत्य जीवन, रमानाथ द्वारा सरकारी दफ्तर में ग़बन, जालपा का उभरता व्यक्तित्व इत्यादि घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है।
कर्मभूमि (1932)-यह अछूत समस्या, उनका मंदिर में प्रवेश तथा लगान इत्यादि की समस्या को उजागर करने वाला उपन्यास है।
गोदान (1936)- यह उनका अंतिम पूर्ण उपन्यास है जो किसान-जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद ‘द गिफ्ट ऑफ़ काओ’ नाम से प्रकाशित हुआ।
मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्यास है जिसे उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया। इसके प्रकाशन के संदर्भ में अमृतराय प्रेमचंद की जीवनी में लिखते हैं कि इसका-“प्रकाशन लेखक के देहान्त के अनेक वर्ष बाद 1948 में हुआ।”
कहानी
मानसरोवर
इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद ने कुल 301 कहानियाँ लिखी हैं जिनमें 3 अभी अप्राप्य हैं।
प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन(राष्ट्र का विलाप) नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है।
उनकी कुछ कहानियों की सूची नीचे दी गयी है-
1. अन्धेर 2. अनाथ लड़की 3. अपनी करनी 4. अमृत 5. अलग्योझा 6. आख़िरी तोहफ़ा
7. आखिरी मंजिल 8. आत्म-संगीत 9. आत्माराम 10. दो बैलों की कथा 11. आल्हा
12. इज्जत का खून 13. इस्तीफा 14. ईदगाह 15. ईश्वरीय न्याय 16. उद्धार 17. एक ऑंच की कसर 18. एक्ट्रेस 19. कप्तान साहब 20. कर्मों का फल 21. क्रिकेट मैच22. कवच 23. क़ातिल 24. कोई दुख न हो तो बकरी खरीद ला 25. कौशल़ 26. खुदी 27. गैरत की कटार 28. गुल्ली डण्डा 29. घमण्ड का पुतला 30. ज्योति 31. जेल 32. जुलूस 33. झांकी 34. ठाकुर का कुआं 35. तेंतर 36. त्रिया-चरित्र 37. तांगेवाले की बड़ 38. तिरसूल 39. दण्ड 40. दुर्गा का मन्दिर 41. देवी 42. देवी – एक और कहानी 43. दूसरी शादी 44. दिल की रानी 45. दो सखियाँ 46. धिक्कार 47 धिक्कार – एक और कहानी 48. नेउर 49. नेकी 50. नब़ी का नीति-निर्वाह 51. नरक का मार्ग 52. नैराश्य 53. नैराश्य लीला 54. नशा 55. नसीहतों का दफ्तर 56. नाग-पूजा
57. नादान दोस्त 58. निर्वासन 59. पंच परमेश्वर 60. पत्नी से पति 61. पुत्र-प्रेम 62. पैपुजी
63. प्रतिशोध 64. प्रेम-सूत्र 65. पर्वत-यात्रा 66. प्रायश्चित 67. परीक्षा 68. पूस की रात
69. बैंक का दिवाला 70. बेटोंवाली विधवा 71. बड़े घर की बेटी 72. बड़े बाबू 73. बड़े भाई साहब 74. बन्द दरवाजा 75. बाँका जमींदार 76. बोहनी 77. मैकू 78. मन्त्र 79. मन्दिर और मस्जिद 80. मनावन 81. मुबारक बीमारी 82. ममता 83. माँ 84. माता का ह्रदय
85. मिलाप 86. मोटेराम जी शास्त्री 87. र्स्वग की देवी 88. राजहठ 89. राष्ट्र का सेवक
90. लैला 91. वफ़ा का ख़जर 92. वासना की कड़ियॉँ 93. विजय 94. विश्वास 95. शंखनाद
96. शूद्र 97. शराब की दुकान 98. शान्ति 99. शादी की वजह 100. शान्ति 101. स्त्री और पुरूष 102. स्वर्ग की देवी 103. स्वांग 104. सभ्यता का रहस्य 105. समर यात्रा 106. समस्या 107. सैलानी बन्दर 108. स्वामिनी 109. सिर्फ एक आवाज 110. सोहाग का शव
111. सौत 112. होली की छुट्टी 113.नम क का दरोगा 114.गृह-दाह 115.सवा सेर गेहुँ नमक का दरोगा 116.दुध का दाम 117.मुक्तिधन 118.कफ़न
कहानी संग्रह-
सप्तसरोज- 1917 में इसके पहले संस्करण की भूमिका लिखी गई थी। सप्तसरोज में प्रेमचंद की सात कहानियाँ संकलित हैं। उदाहरणतः बड़े घर की बेटी[ , सौत, सज्जनता का दण्ड, पंच परमेश्वर, नमक का दारोगा, उपदेश तथा परीक्षा आदि।
नवनिधि- यह प्रेमचंद की नौ कहानियों का संग्रह है। जैसे-राजा हरदौल, रानी सारन्धा, मर्यादा की वेदी, पाप का अग्निकुण्ड, जुगुनू की चमक, धोखा, अमावस्या की रात्रि, ममता, पछतावा आदि।
‘प्रेमपूर्णिमा’, ‘प्रेम-पचीसी’, ‘प्रेम-प्रतिमा’, ‘प्रेम-द्वादशी’,
समरयात्रा- इस संग्रह के अंतर्गत प्रेमचंद की ११ राजनीतिक कहानियों का संकलन किया गया है। उदाहरणस्वरूप-जेल, कानूनी कुमार, पत्नी से पति, लांछन, ठाकुर का कुआँ, शराब की दुकान, जुलूस, आहुति, मैकू, होली का उपहार, अनुभव, समर-यात्रा आदि।
मानसरोवर’ : भाग एक व दो और ‘कफन’। उनकी मृत्यु के बाद उनकी कहानियाँ ‘मानसरोवर’ शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई।
नाटक
संग्राम (1923)- यह किसानों के मध्य व्याप्त कुरीतियाँ तथा किसानों की फिजूलखर्ची के कारण हुआ कर्ज और कर्ज न चुका पाने के कारण अपनी फसल निम्न दाम में बेचने जैसी समस्याओं पर विचार करने वाला नाटक है।
कर्बला (1924) प्रेम की वेदी (1933)
ये नाटक शिल्प और संवेदना के स्तर पर अच्छे हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्तुतः संवादात्मक उपन्यास ही बन गए हैं।
प्रेमचंद के कुछ निबंधों की सूची निम्नलिखित है-
पुराना जमाना नया जमाना, स्वराज के फायदे, कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिंदी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्यता, उपन्यास, जीवन में साहित्य का स्थान।
अनुवाद
प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्होंने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। उन्होंने ‘टॉलस्टॉय की कहानियाँ’ (1923), गाल्सवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्याय (1931) नाम से अनुवाद किया। उनका रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्यास फसान-ए-आजाद का हिंदी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ।
विविध
बाल साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी, दुर्गादास
विचार : प्रेमचंद : विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खंडों में)
संपादन
प्रेमचन्द ने ‘जागरण’ नामक समाचार पत्र तथा ‘हंस’ नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया था। उन्होंने सरस्वती प्रेस भी चलाया था। वे उर्दू की पत्रिका ‘जमाना’ में नवाब राय के नाम से लिखते थे।
विशेषताएँ
बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित विनोद वर्मा के साथ हुए साक्षात्कार रचना दृष्टि की प्रासंगिकता-मन्नू भंडारी में मन्नू भंडारी प्रेमचंद के विषय में बताती हैं कि-“साहित्य के प्रति और साहित्य के हर दृष्टि के प्रति यानी चाहे राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खासकरके एक आम आदमी को, एक किसान को, एक आम दलित वर्ग के लोगों को वह अपने आप में एक उदाहरण था. साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत शायद प्रेमचंद की रचनाओं से हुई थी.”
विरासत
प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने में कई रचनाकारों ने भूमिका अदा की है। उनके नामों का उल्लेख करते हुए रामविलास शर्मा प्रेमचंद और उनका युग में लिखते हैं कि- “प्रेमचंद की परंपरा को ‘अलका’, ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ के निराला ने अपनाया।
उसे ‘चकल्लस’ और ‘क्या-से-क्या’ आदि कहानियों के लेखक पढ़ीस ने अपनाया। उस परंपरा की झलक नरेंद्र शर्मा, अमृतलाल नागर आदि की कहानियों और रेखाचित्रों में मिलती है।”
बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित लेख स्वस्थ साहित्य किसी की नक़ल नहीं करता में निर्मल वर्मा लिखते हैं कि- 50-60 के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं।
प्रेमचंद की तीन जीवनीपरक पुस्तकें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं:
प्रेमचंद घर में- 1944 ई. में प्रकाशित यह पुस्तक प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा लिखी गई है जिसमें उनके व्यक्तित्व के घरेलू पक्ष को उजागर किया है। 2005 ई. में प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार ने इस पुस्तक तो दोबारा संशोधित करके प्रकाशित कराया।
प्रेमचंद कलम का सिपाही- 1962 ई. में प्रकाशित प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय द्वारा लिखी गई यह प्रेमचंद वृहद जीवनी है जिसे प्रामाणिक बनाने के लिए उन्होंने प्रेमचंद के पत्रों का बहुत उपयोग किया है।
कलम का मज़दूर: प्रेमचन्द- 1964 ई. में प्रकाशित इस कृति की भूमिका रामविलास शर्मा के अनुसार-“29 मई, 1962” में लिखी गई थी किंतु उसका प्रकाशन बाद में किया गया था।
मदन गोपाल द्वारा रचित यह जीवनी मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई थी जिसका बाद में हिंदी रूपांतरण भी प्रकाशित हुआ। यह प्रेमचंद के परिवार के बाहर के व्यक्ति द्वारा रचित जीवनी है जो प्रेमचंद संबंधी तथ्यों का अधिक तटस्थ रूप से मूल्यांकन करती है।
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बिहार सम्मान 2020 — पत्रकारिता के उत्कृष्टता के लिए — प्रेम चंद सम्मान
चापलूसी का जहरीला प्याला आपको तब तक नहीं नुकसान पहुंचा सकता जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझ कर पी ना जाए—मुंशी प्रेमचंद
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— शैलेश कुमार
पिता – स्व0 भूबनेश्वर लाल दास
ग्राम -सलेमपुर , पोस्ट विजयी , जिला मधुबनी
जन्म – 10 जनवरी 1971
योग्यता — स्नातक (इतिहास) , आर के कॉलेज ,मधुबनी।
पीजी डिप्लोमा — मास क्म्यूनिकेशन एंड जर्नलिज़्म पीटीयू जालंधर।
वेब (ऑन लाइन) मीडिया — 2012 ,www.navsancharsamachar.com
यूट्यूब पर www.navsancharsamachar.com प्रसारण june 2018 से
दिव्याङ्ग —
अविवाहित —
समर्पण — वेद और गीता ।
सफलता — तात्विक बोध।
परिवार मे योगदान — नगण्य।
आर्थिक स्थिति — भाई पर निर्भर।
आवागमन का साधन –सिर्फ साइकल ।
11 वर्षों तक बहादुरगढ़ (हरियाणा) मेँ उद्योगपतियों के यूनियन मे कम्प्युटर क्लर्क।
2011 मेँ बाएँ पाँव घुटना प्लास्टर ।
2018 सितम्बर बाएँ पाँव घुटना फ्रेक्चर। 2019 मार्च मेँ घर वापस।
2006 मे पटना मे एक निजी विद्यालय मे शिक्षक , वही हिप जाइंट फ्रेक्चर -1 वर्ष तक बेड पर।
जाति — कायस्थ –
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