- September 26, 2020
दिव्यांग का कार्यालय मेँ काम करवाना–आसमान से तारे तोड़ लाने के समान — शैलेश कुमार
बिहार का अर्थ वर्तमान परिदृश्य में बदल दिया गया है। यहाँ राजनीति के शिकारी ने कला संस्कृति से लेकर विकास के सभी विकल्प को समाप्त कर दिया है। जिससे यहाँ भंयकर समस्याऐं उत्पन्न हो गयी है। इस समस्या के तहत विकलांग को दिव्यांग का नाम देकर प्रधानमंत्री ने उसी तरह हास्यास्पद बना दिया है जैसे गांधी जी के हरिजन शब्द का। अर्थात सिर्फ नाम से परिवर्तन नही होगा जब तक की उसमें आमूलचूल परिर्वतन की सभी मापदंड लागू नही किया जाएगा।
बिहार में जब भी दिव्याङ्ग की बात आती है तो हम महिलाएं या पुरुष दिव्याङ्ग मेँ अंतर नहीं कर सकते है क्योंकि दोनों की समान पीड़ा है।
हम बात कर रहे है बिहार के दिव्यांग की । जिसके अधिकार को नियम रूपी काॅपी में लिखकर बंद कर दिया गया है। भौतिक रूप से उसे जमीन पर लाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते है। जटिल कार्यालय व्यवस्था के कारण दिव्यांग कोषों दूर कार्यालय जाने में सक्षम नहीं है फिर भी अगर किसी के सहारे जाते भी है तो काम में किसी भी तरह का अड़गा लगा दिया जाता है।
महिला दिव्यांग की स्थिति पुरूष दिव्यांग से कही अधिक खराब है। लेकिन जब मैं क्षेत्र में जाता हूँ तो मानसिक रूप से पुरुष दिव्याङ्ग की अपेक्षा काफी मजबूत उत्साहित देखे जाते हैं। दिव्यांग महिला खेत में काम करती है लेकिन उसे सरकार से कोई अपेक्षा नही है क्योंकि वह सरकार की भ्रष्ट तंत्र से लड नहीं सकती है।
हमने यूटयूब पर www.navsancharsamachar.com पर प्रसारित किया है वहाँ देखा जा सकता है।
निम्न वर्ग की कंचन कुमारी अंतर स्नातक पास है। उसे सरकार से योग्यता के अनुसार सहयोग की आशा है। माॅ खेत में काम करती है। लेकिन विवाह के लिए उसे पैंसे नही है। हमने उसे मुख्यमंत्री विवाह योजना के बारे में बताया और आवेदन भी उसे उपलब्ध करवाया।
सबसे विकराल समस्या तब आती है जब मुक-बधिर बच्ची की माँ – बाप सामने आते है और उनको चिकित्सकीय प्रमाण पत्र के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर जाना पड़ता है क्योकि सरकार के पास मधुबनी जैसे अस्पताल में मुक बधिर -दिमागी के लिए डॉक्टर है ही नही।
देखा जाय तो दिव्यांग के संबंध में कई संस्थाऐं हैं लेकिन उनके अधिकार दिलाने के नाम से घड़ीयाली आँसू बहाते हैं।
एक तरह स्वयं सेवी संस्था और सरकारी माध्यम अधिकारियों से संबंधित कुछ अनौपचारिक बैठकें कर, ढ़िढोरा पीटने में व्यस्त है। लेकिन परिणाम को धरातल पर लाने में असफल है। यह व्यवस्था बंदरों की तरह उछल कूद जैसा है।
सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह कानून बना कर छोड़ देती है। अर्थात सरकार सिर्फ आदेश पत्र और शिविरों मे लिपट कर रह जाती है।
पुरुष दिव्याङ्ग कहीं कुछ करते देखे जाते है लेकिन वहीं पर ग्रामीण महिला दिव्याग घर तक सिमट कर रह रही है उनके परिवार भी ध्यान नहीं देते है ।
दिव्याङ्ग महिला आम साधारण महिला की तरह ही अपने घर तक रह रही है।
गाँव -घर के पढ़े-लिखे पुरुष दिव्यांग के पास रोटी की समस्या है। अगर वे अपने परिवार से अलग रहें तो उनके पास सबसे बड़ी समस्या आयेगी -खाने की– घर की। दवा की। इस मौलिक अधिकार पर सरकार चुप है।
राशन कार्ड – एक दिव्यांग से राशन कार्ड की पारिवारिक फोटो मांगी जाती है। जबकी अधिकांश दिव्यांग अविवाहित है।
अविवाहित होने के कई कारण है- स्वस्थ्य लड़की शादी नही कर सकती है —, दिव्यांग लड़की या लड़का शादी करने के इच्छुक नही होते है — भरण पोषण की समस्या और स्थाई आमदनी।
वर्तमान सरकार के नियम के अनुसार अविवाहित दिव्यांग को प्रधान मंत्री आवास योजना नही दिया जा रहा है क्योंकि वह अविवाहित है।
80 % से अधिक दिव्यांग अर्थ हीनता से गुजर रहे हैं। समाज में सहयोग की भावना नही के बराबर है।
देखा जाय तो गरिब परिवार में दिव्यांग एक बोझ बन कर रह गया है। विशेष कर लड्की। गरीब परिवार , अशिक्षित परिवार मे विवाह पहली प्राथमिकता है ।
सवाल है की लड्की की शादी के लिए बैंक ऋण नहीं दे सकते , उसे समाज में ऋण नहीं मिल सकता है। बहुत ऐसे परिवार है जिसमें दिव्याङ्ग लड्की की पढ़ाई नहीं कारवाई जाती है क्योंकि परिवार असमर्थ है ।
बैंक की स्थिति निंदनीय है। गरीब परिवार के दिव्यांग से बैंक प्रबंधक मुँह तक नही खोलते हैं जबकि सरकार ढ़ीढ़ोरा पीट रही है कि दिव्यांग को ऋण मुहैया कराना आवश्यक है। ऐसा कुछ भी नही है। बैंक का पहला सवाल होता है की ऋण की अदायगी कैसे होगा। जहां तक लड्की का सवाल है तो बैंक उसे क्यों दें जबकि खुद परिवार उसको बोझ समझ रही है।
महिला दिव्याग या पुरुष दिव्याङ्ग के लिए मधुबनी जैसे जिला में कोई संस्था नहीं है जो इनलोगों को धन अर्जन मे सहायक हो सके या प्रशिक्षण दिलवा सके।
दिव्याङ्ग को सरकार मखौल बना चुकी है । झंझारपुर के दीप गोधनपुर के अजय कुमार ठाकुर , रहिका के जगतपुर के ललित पासवान और मोहिनी देवी परजुयार, बेनीपट्टी प्रखण्ड के रहने वाले है जिनको आज तक आवेदित सुविधा नहीं मिल पाई है।
मेरे पास नेत्रहीन से लेकर दिव्यांग तक का फोन आता है की क्या करूँ ? बैक ऋण देने से मना कर दिया।
सवाल है जब बैक 25-50 हजार रूपये ऋण नही दे रहा है तो दिव्यांग क्या करेगा? सबसे बड़ी समस्या है परिवार के लिए।
सबसे बड़ी समस्या है सरकारी नियम का पालन करवाना।
एक उदाहरण – हमारे गाँव में एक महिला दिव्यांग है जिसको मृत घोषित कर पेंशन बंद कर दिया गया है।
हमने जाकर उसे कानून की जानकारी दी। बाइटस बनाकर यूटयूब www॰navsancharsamachar॰com पर प्रसारित किया।
इतना ही नही इस लिंक से बार बार सचिव स्तरीय अधिकारी को स्मरण करवाया।
ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष कर दिव्यांग परिवार पूर्व जन्म का फल समझते है। दिव्यांग योजना क्या है ?इनलोगों पता नहीं है।
गांवो में जाकर जब मैं दिव्यांग परिजनों से जानकारी लेने का प्रयास करता हूँ तो शायद ही वे कुछ जानकारी दे पाते हैं।
सरकारी संस्थान भी सहयोग के बदले नकारात्मक रवैया अपनाने में आगे है। ठीक से कोई जानकारी नहीं दी जाती है ।
दिव्यांग की प्रथम सीढ़ी – चिकित्सालय है , यहाँ दिव्यांगता का सत्यापन होता है। वर्तमान मेँ सरकार के पास श्रेणीवार चिकित्सक नहीं है।
मुक – वधिर और मेंटल के लिए कॉलेज अस्पताल के सिवाय सदर (जिला,अनुमंडल) में चिकित्सक नहीं है। 100 किलोमीटर कॉलेज अस्पताल की दूरी तय कर सिर्फ प्रमाण पत्र बनबाने के लिए कोई भी गरीब मजदूर दिव्यांग के परिजन तैयार नही होते हैं।
विगत वर्षो में दिव्यांग के प्रति सरकार भी थोड़ी बहुत सजग हुई है। इसके लिए अलग से विभाग और आयुक्त की व्यवस्था की है। लेकिन वैधानिक रूप से लाभ पहुंचाने में शून्यतर सफल हो रही है।
दिव्यांग अदालत भी लगाई जा रही है। दिव्यांग समस्याऐं को लेकर अदालत में भी पेश हो रहें हैं। अदालत विभाग को आदेश भी दे रही है। जबावदेही भी सौंप रही है। इतने होने के बावजूद भी सरकार की तंत्र रस्सी की तरह टेढ़ी है।
वर्तमान व्यवस्था में सरकारी तंत्र से दिव्यांग का काम हो जाना आसमान से तारे तोड़ लाने के समान है।
एक उदाहण से मैं स्पष्ट करना चाहता हॅू- —
गजेन्द्र लाल कर्ण (मैथिल कायस्थ) ग्राम तेघड़ा मधुबनी के रहने वाले है । जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में फिलासफी के प्रोफेसर के साथ ही निदेशक विकलांग अधिकार विभाग,भारत सरकार में रहें।
उन्होने कैरिकुलम डेवलपमेंट आन डिसएबिलीटी Curriculum Development on Disability Studies.) पुस्तक लिखी । इस पुस्तक को 2005 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने मान्यता प्राप्त एकेडमी के लिए भी अनुशंसा की।
पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी की अध्यक्षता में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने विश्व विद्यालय और महाविद्यालय को निर्देश भी दिया की सभी अपने – अपने संस्थान में विशेष दिव्यांग विभाग खोलें लेकिन आज तक कोई भी संस्थान मूर्ति रूप नही दिया।
गजेन्द्र लाल कर्ण दिव्यांग अधिकार कार्यकर्ता रहे जो कैंसर से पीडीत हुए।
अभी तक सरकार के खाते मे दिव्याङ्ग सिर्फ पेशन तथा शिविर तक ही सीमित है।
बिहार के नि: शक्त जन आयुक्त डॉ शिवाजी कुमार को दिव्याङ्ग कल्याण से संबन्धित उठाए गए कदम पिछले किसी भी आयुक्त से काफी सराहनीय है। इनमें खासियत यह है की इन्होंने सरकारी महकमेँ को जगाने का प्रयास किया है जहां कानून कचरे मेँ डालने का शातिर प्रबन्ध होता है ।