- October 7, 2015
दरिद्रता लाते हैं अनावश्यक संसाधन – डॉ. दीपक आचार्य
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मांग और आपूर्ति का सिद्धान्त सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का मूल आधार है। जहाँ जो आवश्यकता अर्थात मांग है उसके अनुरूप आपूर्ति होते रहने का समानुपात बना रहने पर समाज, क्षेत्र और देश का संतुलन बना रहता है।
इस समीकरण को हमेशा बनाए रखने में जो समुदाय निरन्तर प्रयत्नशील बना रहता है वह बिना किसी समस्या के प्रगति की ओर बढ़ता रहता है।
इसके विपरीत जो लोग या समुदाय इस समीकरण को भुला कर अपने-अपने हिसाब से काम करने लगते हैं उनकी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का संतुलन गडबड़ा जाता है और वहाँ दरिद्रता, समस्याएं और अभाव अपने पाँव पसारने लगते हैं।
आजकल मांग और आपूर्ति के सिद्धान्त से भी आगे बढ़कर हम दिखावों की भेंट चढ़ते जा रहे हैं जहाँ आपूर्ति के लिए बहुत सारे रास्ते खुले हुए हैं जहाँ दुनिया में जो वस्तु चाहो, उसके लिए आसान किश्तों और ब्याज पर सब कुछ उपलब्ध हो रहा है। पास में कौड़ी भी न हो तब भी दुनिया की खूब सारी वस्तुएं कर्ज लेकर भी प्राप्त की जा सकती हैं।
इस मामले में हम दूरदर्शी या विवेकी न होकर दुनिया को दिखाने वाली मानसिकता से ग्रस्त हो गए हैं। यह अपने आप में जीवन का वह सूर्य या चन्द्र ग्रहण है जिसमें हम फैशनपरस्ती के मोह में पड़कर अपने आपको दूसरों के बराबर दिखाने या कि उनसे भी दो-चार कदम आगे बढ़कर समृद्ध,विलासी और सर्वश्रेष्ठ बताने भर के लिए क्या से क्या नहीं कर पा रहे हैं।
जीवन में आवश्यकता होने पर किसी भी वस्तु, सेवा या संसाधन की प्राप्ति करने की इच्छा ठीक है ताकि हमारे जीवन को सहूलियत प्राप्त हो सके, जीना आसान हो सके और समस्याओं का अंत हो सके।
लेकिन दूसरों को दिखाने भर के लिए संसाधनों का जखीरा जमा कर लेना और इसके बूते अपने आपको वैभवशाली दर्शाना अपने आप में बौद्धिक दिवालियेपन और विवेकहीनता का द्योतक है जिसे किसी भी दृष्टि से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।
आज के इंसान की यही सबसे बड़ी समस्या है। वह दूसरों की देखा-देखी अपने पास उन उपकरणों, संसाधनों की भी भारी भीड़ जमा कर लेता है जिसका उसके लिए कोई खास उपयोग नहीं है और इनके बगैर भी जिन्दगी को अच्छी तरह जीया जा सकता है।
नकलची बंदर-भालुओं की तरह जीने का हमारा यह स्वभाव और दूसरों का अंधानुकरण करने की आदत ही ऎसी है कि हम न अपने लिए जी रहे हैं, न अपने आनंद के लिए। बल्कि जो कुछ कर रहे हैं वह उन लोगों को दिखाने के लिए कर रहे हैं जो लोग इन्हें देखकर हमारा मूल्यांकन करते हैं और हमारे बारे में धारणाएं बनाकर वापस हम तक परोसते हैं।
और हम हैं कि इन लोगों से तारीफ पाने के इतने अधिक मोहताज हो चुके हैं हम उनकी नज़रों में अच्छा बनने या दिखने-दिखाने के लिए वह सब कुछ करने लगे हैं जो जायज-नाजायज, पाप-पुण्य, वर्जित या स्वीकार्य कुछ भी क्यों न हो।
हमारे लिए हमारे अपने दर्शक ही जीवन भर के लिए निर्णायक हो गए हैं। यही कारण है कि हममें से अधिकांश लोग उन तमाम कर्मों में लिप्त हैं जो सिर्फ औरों को दिखाने भर के लिए हैं।
इस फैशनी और अध्ीं दौड़ में हम अपने ज्ञान, विवेक और सत्यासत्य से लेकर वह सब कुछ भुला चुके हैं जिनसे हमारे जीवन का लक्ष्य और औचित्य तय होता है और व्यक्तित्व का आत्म निर्माण होता है।
हमारा सुकून, शांति और संतोष अब हमारी आत्मा तय नहीं करती, हमारे मन-मस्तिष्क इसका निर्णय नहीं कर पाते बल्कि अब हम पूरी तरह औरों पर ही निर्भर हैं। भीड़ को हम अपना भाग्य निर्माता समझ बैठे हैं, भेड़ों की रेवड़ों की तरह हमें हांकने वालों को संरक्षक मान बैठे हैं।
समाज की सभी समस्याओं का मूल इसी में छिपा हुआ है। हममें से बहुत से लोग वाहनों के बगैर अच्छी तरह जिन्दगी गुजार सकते हैं लेकिन हम औरों के पास वाहन देख कर खुद को वाहनस्वामी कहलाने के फेर में वाहनों पर खर्च करते हैं, बहुत सारे लोग हैं जिनके लिए आधुनिक उपकरणों की कोई उपयोगिता नहीं है, फिर भी हम इन संसाधनों, मशीनों और उपकरणों का भण्डार अपने पास बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं।
अपनी सामान्य जिन्दगी के लिए जरूरी और उपयोगी संसाधनों का होना जरूरी है लेकिन आवश्यकताहीन संसाधनों को अपने पास जमा करने का कोई औचित्य नहीं है।
यही कारण है कि अधिकांश लोग कर्ज में डूबे हुए हैं, अपने शरीर, घर-परिवार और कुटुम्ब के लिए जरूरी खर्च तक नहीं कर पा रहे हैं, अपनी उपयोगिता के लायक गतिविधियों में बेवजह कटौती करने को विवश हैं, मन मारकर रहने की विवशता में जीने लगे हैं।
हम थोड़ा गंभीर होकर चिन्तन करें कि दूसरों की देखादेखी अपने आपको बड़ा और वैभवशाली दिखाने की गरज से आखिर क्यों हम अपने आपको अनचाही विवशताओं के जंगल में धकेलने और पूरी जिन्दगी कर्जदार ही बने रहने को अच्छा मान रहे हैं।
जिन वस्तुओं व संसाधनों की हमें आवश्यकता है उनकी ओर ही मन लगाएं। जिनके बगैर भी हम अपनी जिन्दगी को चला सकते हैं, उन संसाधनों का मोह त्यागें। आवश्यकताओं को सीमित रखें और सादगी अपनाएं।