- August 21, 2023
जल संकट का समाधान ज़रूरी : सरिता
बिंझरवाड़ी गांव का इतिहास 600 साल पुराना है. माना जाता है कि इसे राजपूतों द्वारा बसाया गया था. इस गांव में बिंझा समुदाय की संख्या अधिक होने के कारण इसका नाम बिंझरवाड़ी गांव पड़ा है. गांव में लगभग 400 घर हैं जिसमें से बिंझा समुदाय के अतिरिक्त 40 घर सामान्य और करीब 50 घर राजपूत समुदाय के हैं. गांव की अधिकतर आबादी सिलाई-कढ़ाई और पशुपालन के अतिरिक्त थोड़ा बहुत खेती का काम करती है. शुरू से ही बिंझरवाड़ी गांव में पानी की काफी कमी थी, परंतु आज यह सबसे बड़ी समस्या बन गई है. इससे निपटने के लिए गांव के लोगों द्वारा एक जोहड़ (बावली) का निर्माण किया गया है. वर्ष 2004-05 में यहां करीब 400 बेरियां थीं, जो वर्तमान में घटकर 100 से 150 रह गई हैं. जहां से लोगों को पानी प्राप्त होता है. ग्रामीणों का कहना है कि एक बेरी में 1000 लीटर ही पानी निकाला जा सकता है. जहां से गांव की महिलाओं और किशोरियों को पानी के घड़ों को सर पर रख कर अपने घर तक जाना पड़ता है. गर्मी के दिनों में पानी के बिना लोगों का जीवन कितना मुश्किल हो जाता होगा और महिलाओं को पानी की व्यवस्था के लिए किस तरह संकटों से गुज़रना पड़ता होगा, इसका अंदाज़ा लगाना भी कठिन है.
इस संबंध में गांव के निवासी 33 वर्षीय मुनि राम कहते हैं कि गांव में पानी की सबसे बड़ी समस्या है. इसके लिए गांव के लोगों ने बहुत संघर्ष किया है. वह पानी की व्यवस्था के लिए गांव के प्रधान, एसडीएम और तहसीलदार तक अपनी समस्या पहुंचा चुके हैं. यहां तक कि गांव वालों ने जिलाधिकारी और मुख्यमंत्री कार्यालय तक अपनी आवाज़ उठाई है. काफी धरने प्रदर्शन भी किए गए. 2014 में एक स्थानीय गैर सरकारी संस्था ‘आजाद युवा संगठन’ का इस क्षेत्र में काफी योगदान रहा है. गांव वालों के लगातार संघर्ष से स्थिति में थोड़ा सुधार तो हुआ है, लेकिन समस्या अब भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. मुनि राम बताते हैं कि अक्सर कई जगह पानी की बेरियों पर ताला लगा दिया जाता है, जो जातिवाद को नहीं, बल्कि पानी की समस्या को दर्शाता है. हालांकि पहले यह जातिवाद को दर्शाता था, क्योंकि पहले अलग अलग जातियों की अलग अलग बेरियां होती थीं. पानी की बेरियों पर ताला होता था.
वर्तमान में पानी लोगों के घरों तक पहुंचता है, जिसे स्थानीय नहर के माध्यम से सप्लाई की जाती है. लेकिन फिर भी आप महिलाओं को सिर पर घड़ा लिए हुए देख सकते हैं क्योंकि पानी पर्याप्त मात्रा में लोगों तक नहीं पहुंच पाता है. गांव के लोगों का कहना है कि गांव में पानी स्टोरेज की कमी है. यहां ऐसी व्यवस्था नहीं है कि अगर 1 या 2 महिने तक पानी न आए तो लोग अपना गुजारा कर सकें, उन्हें इसकी कोई समस्या न हो. इस संबंध में गांव की एक महिला यशोदा का कहना है कि यहां सबसे ज्यादा दिक्कत गर्मियों में होती है. बेरियों से प्रतिदिन लगभग 10 घड़े पानी निकाल कर लाना पड़ता है जिसमें पूरा दिन निकल जाता है. गांव में पाइपलाइन लग जाने के बाद भी 10 या 20 दिनों में एक बार उसमें पानी आता है. जब आता भी है तो वह पूरे गांव में एक समान रूप से नहीं आता है.
जल संकट की समस्या को दूर करने के लिए लगातार प्रयास कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता और स्तंभकार दिलीप बीदावत कहते हैं कि वैसे तो राजस्थान के अलग-अलग क्षेत्रों में विविध प्रकार के पानी के पारंपरिक जल स्रोतों का निर्माण समुदाय द्वारा किया गया है. क्षेत्र की सतही एवं भूगर्भीय संरचना बरसात की मात्रा के अनुसार किस प्रकार के जल स्त्रोत बनाए जा सकते हैं, यह ज्ञान उस जमाने में भी लोगों को था जब शिक्षा और तकनीक आज की तरह विकसित नहीं हुई थी. बरसात की बूंदों को सतह पर संजोने के साथ-साथ भू-गर्भ में पीने योग्य जल कहां मिल सकता है और कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इसका पता लगाने में कई पीढ़ियों का अनुभव रहा होगा. इसके अतिरिक्त सतही जल समाप्ति के बाद भू-गर्भ में प्रकृति द्वारा संजोये गये जल को ढूंढना और उपयोग कर जीवन को सतत चलाए रखने का भी अद्भुत अनुभव रहा होगा. लेकिन आज की पीढ़ी इस तकनीक को भुला चुकी है, जिसका परिणाम जल संकट के रूप में सामने आ रहा है.
बहरहाल, बिंझरवाड़ी गांव के लगभग सभी घरों की महिलाएं सिर पर पानी ढोने का काम करती हैं. महिलाएं जहां घड़ों और बाल्टियों में पानी लाती हैं वहीं पुरुष टैक्टर और ऊंट गाड़ियों से गैलन भर कर पानी लाते हैं. गांव के लोगों को प्रतिदिन पानी लाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है. पानी की इस समस्या ने किशोरियों की शिक्षा को बहुत अधिक प्रभावित किया है. अक्सर उन्हें घर की महिलाओं के साथ मिलकर पानी की व्यवस्था के लिए स्कूल छोड़नी पड़ जाती है. क्या हम सोच सकते हैं कि जिस गांव में लड़कियां स्कूल बैग की जगह सिर पर घड़ा और मटका उठाएं पानी के लिए मशक्कत कर रही हों, वह गांव तरक्की कर पाएगा ?