- September 19, 2020
जलवायु परिवर्तन हिमालय के भूगर्भीय जलस्तर को घटा रहा है: शोध
पानी के चश्मे हिमालय क्षेत्र के ऊपरी तथा बीच के इलाकों में रहने वाले लोगों की जीवन रेखा हैं। लेकिन पर्यावरणीय स्थितियों और एक दूसरे से जुड़ी प्रणालियों की समझ और प्रबंधन में कमी के कारण यह जल स्रोत अपनी गिरावट की ओर बढ़ रहे हैं।
यह कहना है इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में रिसर्च डायरेक्टर एवं एडजंक्ट एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर अंजल प्रकाश का। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित डॉक्टर अंजल प्रकाश के इस अध्ययन के मुताबिक़ पानी के यह चश्मे जलापूर्ति के प्रमुख स्रोत है और वह भूतल और भूगर्भीय जल प्रणालियों के अनोखे संयोजन से फलते-फूलते और बदलते हैं। माकूल हालात में जलसोते या चश्मे के जरिए भूगर्भीय जल रिसकर बाहर आता है।
यह संपूर्ण हिमालय क्षेत्र के तमाम शहरी तथा ग्रामीण इलाकों में जलापूर्ति का मुख्य स्रोत है। भूतल जल निकासी नेटवर्क में भी यह चश्मे जरूरी पानी उपलब्ध कराते हैं। हिन्दू कुश हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र के अनेक इलाकों में भूगर्भीय जलस्तर घट रहा है नतीजतन इन जल स्रोतों के जरिए पानी की आपूर्ति में भी गिरावट आ रही है।
शोध के नतीजों पर रौशनी डालते हुए अंजल कहते हैं, “अध्ययन से यह जाहिर होता है कि अधिक ऊंचाई पर जलवायु के कारण होने वाले परिवर्तनों से नदियों और झरनों में पानी के प्रवाह में बदलाव हो रहा है। हिमालय के ऊपरी और मध्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए यह जल स्रोत उनकी जीवन रेखा हैं।”
वो आगे बताते हैं, “भूगर्भीय जल एचकेएच क्षेत्र के जल विज्ञान का एक जरूरी हिस्सा है। अध्ययनों से पता चलता है कि कई स्थानों पर भूगर्भीय जलस्तर पहले ही कम हो रहा है। मिसाल के तौर पर मध्य गंगा बेसिन में पहले ही भूजल ओवरड्राफ्ट दिख रहा है जिससे पानी की आपूर्ति प्रभावित हो रही है।”
एचकेएच क्षेत्र में पिछले करीब डेढ़ दशक से ट्रांसबाउंड्री जल संबंधी मुद्दों पर काम कर रही आईआईटी गुवाहाटी में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर डॉक्टर अनामिका बरुआ ने इस रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “चूंकि हम हिमालय क्षेत्र में भूतल और भूगर्भीय जल के बीच अंतर संबंधों को तलाश रहे हैं। ऐसे में ट्रांसबाउंड्री सहयोग का मुद्दा बेहद महत्वपूर्ण नजर आता है।
जैसा कि इस अध्ययन में जिक्र भी किया गया है। भूगर्भीय जल एक द्रव स्रोत है जो किसी राजनीतिक बंदिश की परवाह नहीं करता। इस अध्ययन में जलस्रोत को सतत तरीके से प्रबंधित करने के लिए क्षेत्रीय सहयोग का आह्वान किया गया है। क्षेत्र के प्रबंधन तंत्र को एक मंच पर आना होगा और एचकेएच क्षेत्र में सतही तथा भूगर्भीय दोनों ही प्रकार के जीवनदायी जल स्रोतों के बेहतर प्रबंधन के लिए तकनीकी तथा वैज्ञानिक जानकारी के साथ संयुक्त रूप से काम करना होगा।”
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए अंजल कहते हैं, कि क्षेत्र में भूजल प्रशासन के लिए इन सभी मुद्दों के अपने निहितार्थ हैं। अध्ययन से पता चलता है कि इस इलाके में जल तंत्रों के पुनर्विकास के लिए एक समन्वित योजना का सुझाव दिया गया है जो ट्रांसबाउंड्री किस्म की है और जिसमें विभिन्न गांवों में वाटर शेड फैले हुए हैं।
अध्ययन में इस तथ्य को दोहराया गया है कि हिमालय क्षेत्र ट्रांसबाउंड्री किस्म का है जिसमें विभिन्न गांवों में वाटर शेड फैले हुए हैं। इनकी वास्तविक संख्या आठ है। जल साझा करने की स्थिति में ट्रांसबाउंड्री प्रशासन को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। खासतौर पर जब किसी वाटरशेड में पड़ने वाले गांवों के बीच परस्पर विश्वास नहीं होता। इससे केएचके क्षेत्र के लगभग हर स्तर पर गैर प्रभावी जल प्रबंधन की स्थितियां पैदा हो जाती हैं। क्षेत्र में सतही और भूगर्भीय जल स्रोतों के संरक्षण के लिए एक क्षेत्रीय दृष्टिकोण और ट्रांसबाउंड्री सहयोग जरूरी है।
हाल के आंकड़ों से जाहिर होता है कि एचकेएच क्षेत्र के ग्लेशियरों के उल्लेखनीय हिस्से खतरनाक तरीके से पिघल रहे हैं। हाल में प्रकाशित अध्ययन में ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से क्षेत्र की जल व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों और निहितार्थ को समझने की कोशिश की गयी है। खासकर नदी बेसिन तथा हिमालय क्षेत्र पर निर्भरता वाले भूजल पर। इस रिपोर्ट में एचकेएच क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने और भूगर्भीय तथा सतही जल में होने वाले बदलावों के बीच सम्बन्धों की पड़ताल की गयी है।
इस रिपोट पर प्रतिक्रिया देते हुए टेरी स्कूल ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी नई दिल्ली में रीजनल वाटर स्टडीज विभाग के प्रमुख प्रोफेसर अरुण कंसल ने कहा, ‘‘यह लेख बेहद दिलचस्प है और सही समय पर लिखा गया है। इसमें स्प्रिंग शेड प्रबंधन के मुद्दे को रेखांकित करते हुए उसके महत्व को बताया गया है। राष्ट्रीय जल नीति 2012 और उसके बाद बनाई गई जल संबंधी नीतियों में स्प्रिंग शेड पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है।
जैसा कि हम जानते हैं कि पानी के चश्मे हिमालय क्षेत्र में रहने वाले लोगों की जीवन रेखा हैं और जल सततता के लिहाज से भी वे बेहद महत्वपूर्ण है। वे ग्लेशियरों और भूतल पर बहने वाले पानी के साथ परस्पर क्रिया के लिहाज से एक जटिल प्रणाली हैं और निगरानी तथा डेटा की कमी के कारण उनके प्रवाह का प्रारूपीकरण करना मुश्किल है। इंसान की गतिविधियों और स्थानीय कारणों से जल स्रोतों में लगातार गिरावट हो रही है।
यह स्थानीय प्रशासन और जमीन के उपयोगों में बदलाव दोनों की ही वजह से हो रहा है। बहरहाल जैसा कि आपके लेख में सही कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलने से जल स्रोतों की स्वतंत्रता पर गंभीर खतरा पैदा हुआ है और स्थानीय समुदायों में इससे संभालने की क्षमता नहीं है।’’