• March 30, 2015

जमीन अधिग्रहण अध्यादेश :कानून के तहत मुकदमों के लिए रास्ता साफ !!

जमीन अधिग्रहण अध्यादेश :कानून के तहत मुकदमों के लिए रास्ता साफ !!

जहां नए जमीन अधिग्रहण कानून और  उससे संबंधित अध्यादेश को लेकर देश में विरोध का माहौल है, वहीं उच्चतम न्यायालय ने पिछले तीन महीनों में इससे जुड़े सैकड़ों मामलों पर सुनवाई कर उन्हें निपटाया। मुख्य न्यायाधीश के पीठ ने पुराने रिकॉर्ड खंगालते हुए उनका निपटारा किया, मानो नए कानून के तहत मुकदमों के लिए रास्ता साफ करना हो।

इन मुड़ी-तुड़ी फाइलों में भविष्य के लिए सबक मौजूद हैं। कुछ अधिग्रहण तो दो दशक पुराने भी हैं, जैसे भारत संघ बनाम राम लाल (1989) या पटेल पंजभाई बनाम एन गुजरात विश्वविद्यालय (1987) सरीखे मामले। जमीन मालिकों ने शीर्ष अदालत की देहरी तक पहुंचने में लंबा रास्ता तय किया है। उनकी कानूनी लड़ाई की शुरुआत ‘संदर्भ अदालत’ से शुरू होकर उच्च न्यायालय के रास्ते होते हुए अंत में उच्चतम न्यायालय तक पहुंची है। इस बीच और अंत में समीक्षाएं भी सामने आईं। इसमें सबसे लंबा वक्त उच्च न्यायालय के स्तर पर ही लगा, जहां मामले कई बार दशकों तक अटके रहे।

उच्चतम न्यायालय औसतन पांच साल का वक्त लेता है। जब तक मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा तो कुछ जमीन मालिकों ने तो अपने मुकदमों की पैरवी की जिम्मेदारी अपने उत्तराधिकारियों को सौंप दी। जमीन अधिग्रहण अधिकारी बनाम कृष्णैया (मृत) शीर्षक वाले मामले में यह नजर आता है, जो उच्चतम न्यायालय में वर्ष 2007 से अटका पड़ा है। नए अधिग्रहण भी ऐसे कमजोर मामलों की भंवर में फंस सकते हैं। ऐसे में सरकार को कानूनी अवसंरचना की अनदेखी के नुकसान को अवश्य महसूस करना चाहिए और विधिक पेशे की चालाकियों को कम महत्त्व देना चाहिए।

जमीन अधिग्रहण की सुनवाइयों के दौरान इस कानून के कुछ नरम संवेदनशील पहलू नजर आए। मुआवजे की दर विवाद की प्रमुख जड़ों में से एक थी। कलेक्टर का अनुमान निरपवाद रूप से उच्च न्यायालयों द्वारा पलट दिया गया, जिससे मुआवजा बढ़ गया। तकरीबन एक दशक या उसके बाद उच्चतम न्यायालय ने और भी ऊंचा पैकेज आवंटित किया, जो अक्सर विधिक प्रतिनिधियों के लिए किसी तोहफे सरीखा रहा।

मूल्यांकन का आकलन तमाम चलन में आने वाले प्रावधानों से बड़ी सतर्कता के साथ किया गया। प्लॉट का आकार, विकसित इलाके से उसकी नजदीकी, जिस दर पर निजी पक्षों को नजदीकी जमीन बेची गई, जो भले ही उपजाऊ हो या बंजर, विकसित होने के बाद भविष्य का मूल्यांकन, प्रस्तावित परियोजना का मकसद, अधिग्रहण अधिसूचना के बाद जमीन की कीमतों में उछाल-मुआवजे की सही राशि का अनुमान लगाने के लिए ये उच्चतम न्यायालय द्वारा तय कुछ मानदंड हैं। ये सभी मुकदमों के लिए व्यापक आधार मुहैया कराते हैं, जैसा कि उच्चतम न्यायालय में पिछले कुछ हफ्तों में देखा जा सकता है।

मानो अगर ये काफी नहीं हों तो सरकार लगभग प्रत्येक पहलू पर गड़बड़ करती है। अधिसूचनाएं रद्द हो जाती हैं, प्रस्तावित परियाजनाएं लटक जाती हैं और नई सरकार नई अधिसूचना जारी करती है और इसके साथ ही मुकदमेबाजी का नया दौर शुरू होता है। राजनीति और निहित स्वाथों के दखल से जमीन मालिकों का उत्पीडऩ और लंबा खिंच जाता है। पर्यावरण प्रभाव आकलन एक नया कारक है। अक्सर आपत्तियां नकार दी जाती हैं, जैसा कि आंध्र प्रदेश की नई राजधानी के मामले में हुआ।

फिर कुछ और परेशान करने वाले पहलू भी हैं, जैसे कि जमीन के उचित रिकॉर्ड का अभाव, जिसे राज्य सरकारों ने नजरअंदाज किया। जमीन की इकाई के संदर्भ में इस्तेमाल होने वाली विलक्षण श्रेणियां हैं। डूंगर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले से जुड़े एक हालिया निर्णय में 1992 में गुरुनानक तापीय बिजली संयंत्र के लिए अधिग्रहीत की गई जमीन, ‘नेहरी’, ‘चाही’ और ‘बरानी’ जैसी श्रेणियों में मापी गई। उसके बाद ‘गैर मुमकिन’ श्रेणी वाली जमीन की बारी आती है। सुनवाई के दौरान किसी दशक के पड़ाव पर माप ‘कनाल्स’ और ‘मराल्स’ में आ गई। बंगाल में इसके लिए ‘क_ïा’ और ‘छटाक’ जैसे नाम सामने आते हैं। न्यायाधीशों को देश के सभी हिस्सों से ऐसी असामान्य जिज्ञासाओं को जानना पड़ता है।

जिन लोगों ने जमीन अधिग्रहण मुकदमों का अवलोकन किया होगा तो वे यही सोचेंगे कि नया कानून भी जमीन मालिकों को उसी सुलूक से मुक्त नहीं करेगा, जब तक कि सरकार की कार्रवाई उचित और निष्पक्ष न हो। विधिक चुनौतियों में अस्पष्टï परिभाषाओं (‘जनहित’ और ‘तात्कालिकता’ से न जाने कितने हजार मुकदमे चले) से लेकर मुआवजे की दर और प्राधिकरणों की मनमानी जैसे मसले शामिल हो सकते हैं।

जितनी जल्दी यह कानून प्रभाव में आता है, उसकी वैधानिकता खुद चुनौती मिलने का इंतजार कर रही है। दीवानी अदालतों द्वारा पारित अंतरिम आदेशों और हिदायतों से परियोजनाएं रुक सकती हैं, जब तक कि विधिक तंत्र खुद त्वरित न्याय के लिए मदद नहीं करता। अगर सरकार द्वारा लंबे समय से उपेक्षित दुष्क्रियाशील न्यायिक तंत्र विकास की राह में अवरोध खड़े करता है तो उसे केवल फटकारना कहा जा सकता है।

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