- January 26, 2021
जन – गण- मन की भाषा – डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
आज समग्र राष्ट्र गणतंत्र दिवस मना रहा है। गण का अर्थ है समूह। भारत की शासन व्यवस्था जनतांत्रिक है। लेकिन जनता सीधे शासन नहीं करती बल्कि उसके चुने हुए प्रतिनिधिगण संविधान के अनुसार शासन करते हैं। 26 जनवरी 1950, आज ही के दिन भारत का संविधान लागू हुआ था। इसलिए प्रतिवर्ष देश गणतंत्र दिवस मनाता है। यही वह अवसर है जिस पर हमें विचार करना चाहिए कि हमने इस दिन जिस राह पर चलने का निश्चय किया था, हम उस राह पर चल रहे हैं या नहीं ? जहां पहुंचना चाहते थे वह पहुंचे हैं या नहीं ?
जहां तक भाषा का प्रश्न है स्वतंत्रता सेनानियों की प्रबल भावना, जनतंत्र और संविधान की अपेक्षा तो यही थी कि देश की व्यवस्था जन गण मन की भाषा में हो ताकि जन गण मन की भावनाओं, आवश्यकताओं और अपेक्षाओं के अनुसार देश की व्यवस्था चल सके। आज गणतंत्र दिवस के अवसर पर इस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है। हमें वस्तुस्थिति को समझना होगा कि स्वतंत्रता से अब तक जन-मन की भाषाएँ यानी भारतीय भाषाएँ कहां से कहां पहुंची हैं और हम किस ओर बढ़ रहे हैं। भारतीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ रहा है या घट रहा है इसको लेकर कथित आशावादियों और यथार्थवादियों के बीच प्रायः वाद विवाद होता ही रहता है।
एक शक्तिशाली अंग्रेजीदां वह वर्ग है जो अंग्रेजी को आज की प्रमुख आवश्यकता मानता है और भारतीय भाषाओं के अंग्रेजीकरण पर इस हद तक आमादा है कि वह इन भाषाओं के चलते-फिरते हर शब्द को अंग्रेजी से बदलने के लिए पूरी शक्ति झोंके हुए है। इस मामले में सबसे चिंताजनक स्थिति तो हिंदी की है। हिंदी का मीडिया, सिनेमा जगत और विज्ञापन जगत प्रमुख है। इस क्षेत्र में जिस प्रकार अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा बढ़ा है उससे स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही है। अपने को आधुनिक, अतिशिक्षित और प्रगतिशील दिखाने की फिराक में लगे मीडियाकर्मी अपनी भाषा से ज्यादा अपने अंग्रेजी ज्ञान को बघारते दिखते हैं। एक ऐसा भी बड़ा वर्ग है जो यह तो जानता और मानता है कि हमारी भाषाओं की बुनियाद हर क्षेत्र से खिसक रही है लेकिन वह पूरी तरह असहाय होने की मुद्रा बनाकर कुछ भी करने को तैयार नहीं है। इस वर्ग का मानना है कि जब कुछ होना ही नहीं है तो क्यों कुछ किया जाए। हिंदी के विद्वानों और साहित्यकारों द्वारा हिंदी को साहित्य और मनोरंजन तक सीमित करने के चलते देश के ज्यादातर लोगों की यह धारणा बन चुकी है कि हिंदी भाषा के प्रचार का मतलब केवल कहानी, कविता और मनोरंजन । इसीके चलते देश के ज्यादातर लोग ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा और रोजगार आदि में भारतीय भाषाओं के प्रयोग या माध्यम की बात को केवल एक बचकाना शगूफा समझने लगे हैं। व्यवस्था में भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाने के बजाए कहानी – कविता, नृत्य- नाटक गीत -संगीत आदि तक और कार्मिकों की रुचि पुरस्कार आदि तक सिमट कर रह गई है । तमाम सरकारी आदेशों के बावजूद हिंदी पखवाड़ों आदि के माध्यम से व्यवस्था में हिंदी को बढ़ाने की बात धीरे – धीरे गौण होती जा रही है।
लेकिन स्वतंत्रता से लेकर अब तक देश में हिंदी का प्रसार हुआ है या संकुचन ? यदि कुछ बिंदुओं को लेकर ही आकलन करें तो कुछ ही समय में स्थिति स्पष्ट होने लगती है। स्वतंत्रता के समय ही नहीं स्वतंत्रता के दो तीन दशक बाद तक भी देश में हिंदी भाषी क्षेत्रों में ज्यादातर लोग हिंदी में ही पढ़ाई करते थे और अन्य राज्यों में वहां की स्थानीय भाषाओं में। राजभाषा आयोग की उन्नीस सौ छप्पन की रिपोर्ट को ही देखें तो पूरे देश में अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत सर्वाधिक तमिलनाडु में था जो कि कुल आबादी का लगभग 1%था । इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे देश में 1951 तक अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत कितना कम रहा होगा।अच्छी अंग्रेजी जानने वालों या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले तो कुछ अत्यधिक संपन्न वर्ग के लोग ही थे जिनका सत्ता में खासा दखल था। सामान्य जन तो मातृभाषा में ही पढ़ता था। राज्यभाषा ते साथ-साथ राष्ट्रभाषा का सम्मान देते हुए देशवासी राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हिंदी भी पढ़ते थे। यह जान कर आश्चर्य होगा कि वह तमिलनाडू जहाँ कहा जाता है कि हिंदी का विरोध है वहाँ उस समय हिंदी ऐच्छिक विषय होने पर भी 1952-53 में 78.6% तथा 1953-54 में 82 % लोग स्वेच्छा से हिंदी पढ़ते थे ।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वाधीन हुआ, जनतंत्र की भी स्थापना हुई लेकिन शासन-प्रशासन, वित्तीय व्यवस्था, न्याय व्यवस्था व शिक्षा व्यवस्था पर आज भी अंग्रेजी का आधिपत्य है। जब व्यवस्था नहीं बदली तो व्यवस्था की भाषा कैसे बदलती ? पीछे देखो, आगे लिखो की नीति पर चलते पूरी व्यवस्था में अंग्रेजी अपने पांव पसारती गई। निजी क्षेत्र हो या सरकारी क्षेत्र लगभग सभी जगह यही मानसिकता काम करती रही है। अब भारत में यह एक अलिखित निर्विवाद सत्य बन गया है कि भारत में बिना अंग्रेजी के तो आप कुछ नहीं कर पाएंगे, कुछ नहीं कर सकते और कहीं नहीं पहुंच सकते। इसका कारण स्पष्ट है कि देश की व्यवस्था में जनभाषाओं को वह स्थान नहीं मिल सका जिसकी अपेक्षा संविधान निर्माताओं ने की थी।
व्यवस्था में जनभाषा के स्थान पर अंग्रेजी के प्रभाव के बढ़ने के चलते आज महानगरों की लगभग पूरी आबादी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने लगी है। यह रुझान बहुत ही तेजी से छोटे नगरों, कस्बा से होते होते गांवों तक पहुंच चुका है। छोटे छोटे कस्बों और गावों तक में जाने – अनजाने अंग्रेजी के नाम पर खुलने वाले अधकचरे स्कूल हमारे देश के नौनिहालों को अंग्रेजी रटवा कर राष्ट्रीय के बजाए सीधे सीधे अंतर्राष्ट्रीय बनाने में लगे हुए हैं। हर कोई समझने के बजाए रटने की दौड़ में लगा है। सरकारी स्कूल जहां हिंदी माध्यम से पढ़ाई होती भी है, उनकी हालत इतनी खस्ता है कि वहां पढ़ाई का कोई माहौल ही नहीं दिखता । दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें उस वर्ग के बच्चे जाते हैं जहाँ प्राय: पढ़ने का कोई विशेष माहौल या रुझान होता नहीं है धीरे-धीरे ये स्कूल देश के विकास में अपनी भूमिका खत्म करते जा रहे हैं । जबकि ऐसे ही स्कूलों से एक समय देश के बड़े – बड़े विद्वान और वैज्ञानिक निकलते थे।
लोग अक्सर जनभाषा प्रेमियों को यह दोष देते आए हैं कि जब वे अपनी भाषा के समर्थक हैं तो वे अपने बच्चों को मातृभाषा-माध्यम में क्यों नहीं पढ़ाते? लेकिन वे ऐसा कहते हुए यह भूल जाते हैं कि जब प्रगति के हर क्षेत्र में केवल अंग्रेजी के मार्ग बनाए जाएँगे तो जन-भाषा वाले कहाँ से जाएँगे ? आप विकास के लिए अंग्रेजी की सड़क और पटरियाँ हनाएँगे और जनभाषा की राह में कांटे बिछाएँगे तो जनभाषा – प्रेमियों के पास विकल्प ही कहाँ बचता है ? आप ही रास्ते बंद करें और आप ही दोष दें, यह तो चालबाजी है ।
जब शिक्षा, रोजगार, व्यापार, सुचना व्यवस्था सहित सभी अवसरों और संसाधनों की ढलान अंग्रेजी की ओर बनती रहे तो अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगाएँ ? दूसरी ओर लोग अंग्रेजी की पटरी से सबसे आगे निकल जाएँ। हिंदी के प्रसार के सभी प्रश्नों के उत्तर उच्च शिक्षा – रोजगार और व्यवस्था की भाषा में निहित हैं । इनके बिना किए गए प्रयास औपचारिकता पूरी करने तक तो ठीक हैं, लेकिन कभी सफल नहीं हो सकते , कुछ सफल होंगे भी तो टिकेंगे नहीं । मुंबई में आयोजित ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन- 2014’ में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए इस संबंध में गोवा की तत्कालीन राज्यपाल स्व. श्रीमती मृदुला सिन्हा का यह कथन सबसे सटीक है – ‘हिंदी को हृदय के साथ-साथ पेट की भाषा बनाना भी आवश्यक है।‘ अर्थतंत्र से कट कर हिंदी या किसी भी भाषा का प्रयोग व प्रसार बढ़ाने के प्रयास सार्थक नहीं हो सकते । इसलिए सबसे आवश्यक है व्यवस्था की पटरी हिंदी व राज्यों की भाषाओं में समानान्तर रूप से इस प्रकार से बिछाई जाए कि शिक्षातंत्र के डिब्बों की सवारी करते हुए देश के युवा रोजगार के हर लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। यदि रोजगार की व्यवस्था न हुई तो हिंदी या किसी भी भाषा में की गई व्यवस्था के तैयार डिब्बे भी खाली ही रहेंगे , उनमें कोई बैठेगा नहीं । यदि रोजगार मिले तो तमाम व्यवस्थाएँ अपने आप निर्मित हो जाएँगी। माँग – पूर्ति के सिद्धांत के चलते और अर्थतंत्र की व्यवस्था से निजी क्षेत्र सभी व्यवस्थाएँ स्वयं कर लेगा।
उच्च शिक्षा और रोजगार के साथ-साथ देश की व्यवस्था में यदि उन छिद्रों की बात की जाए जिनसे तमाम प्रयासों का जल बह जाता है और हासिल कुछ नहीं होता तो उनमें कुछ महत्वपूर्ण बिंदू निम्नलिखित हैं :-
विधि और न्याय व्यवस्था : भारत की व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक विधि निर्माण से लेकर न्याय व कानूनी प्रक्रियाओं के पालन में अंग्रेजी के माध्यम से कहीं कोई रुकावट नहीं जबकि जनभाषाके लिए हर कदम पर समस्याएं हैं । कहीं पटरी ही नहीं है अगर है भी तो टूटी-फूटी। उच्च न्यायालय स्तर पर तो भारतीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति कहीं-कहीं ही है। और उच्चतम न्यायालय में तो है ही नहीं। इस स्थिति के चलते विधि शिक्षा से लेकर सब कुछ ज्यादातर अंग्रेजी में ही चलता है। इसीलिए विधि विशेषज्ञ और वकील आदि भी अंग्रेजी में ही कार्य करते हैं । हर कार्य, कहीं न कहीं विधि व्यवस्था से संबंधित होता है । फिर अंग्रेजी की पूर्व परंपरा और सुविधा की पटरी के चलते चाहे – अनचाहे जनभाषा-प्रेमी भी उसे अंग्रेजी में करने को विवश होते हैं। इसीके परिणामस्वरूप निजी और सरकारी क्षेत्र में अंग्रेजी का बोलबाला है। ऐसे कितने वकील है जो अंग्रेजी ठीक से न जानते हुए भी अपनी वकालत की गाड़ी जैसे – तैसे अंग्रेजी में खींचते हैं और आम आदमी तो आँख बंद करते बिना सोचे – समझे हस्ताक्षर करने को अभिशप्त है।
सूचना की भाषा नियत करना : – भारत सरकार के और राज्यों के कानूनों में बड़ी संख्या में ऐसे प्रावधान हैं जिनमें एक से दूसरे को सूचना देना कानूनन अनिवार्य है –जैसे –कंपनी अधिनियम में कंपनी की ओर से शेयरधारक को , ग्राहक कानूनों में उत्पाद या सेवा प्रदाता द्वारा ग्राहक को , बीमा कंपनी द्वारा बीमाधारक को जानकारी दी जानी आवश्यक है । यह उनका कानूनी अधिकार है। लेकिन ये सूचनाएं प्राय: अंग्रेजी में दी जाती हैं । इससे कानून के पालन की औपचारिकता तो पूरी होती है लेकिन अंग्रेजी न जानने वाले या ठीक से न समझनेवाले देश के 95% या उससे ज्यादा लोग विधि द्वारा उन्हें प्राप्त अधिकारों से वंचित रहते हैं
क्योंकि भारत में प्राय : कोई ऐसा प्रावधान नहीं कि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जनता को सूचना जनभाषा में यानी देश की और राज्य की भाषा में दी जाए। यदि हमारे देश में भी विभिन्न कानूनों के अंतर्गत दी जाने वाली जानकारी व सूचनाएँ संघ व राज्य का भाषा में दी जाए तो जनता को उसके कानूनी अधिकार तो मिलेंगे ही, जनभाषा के प्रयोग व प्रसार में तीव्र गति से प्रगति होगी।
हिंदी संघ की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है यानी सरकारी भाषा है । इसी प्रकार राज्यों में भी राज्यों की भाषाएँ वहाँ की राजभाषाएँ हैं। इनके प्रावधान सरकारी कार्यालयों तक सीमित हैं। जिसके कारण राजभाषा संबंधी प्रावधानों का प्रभाव निजी क्षेत्र पर नहीं है। इसका परिणाम यह कि सरकारी कार्यालयों को छोड़कर किसी के लिए जनभाषा का प्रयोग आवश्यक नहीं है । सरकारी बैंक है तो उसे हिंदी का प्रयोग करना है, गैरसरकारी है तो कोई आवश्यकता नहीं। सभी क्षेत्रों में यही स्थिति है । अगर ये प्रावधान जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप जनहित को ध्यान में रख कर जनभाषा के प्रयोग की दृष्टि से बनाए गए हैं तो इनका प्रभाव निजी क्षेत्र पर क्यों नहीं होना चाहिए । जनता तो तो अपनी भाषा में सूचना और सुविधा चाहिए , सरकारी हो या गैर सरकारी । इसलिए यह आवश्यक है कि हिंदी को संघ की राजभाषा के सीमित दायरे से निकाल कर राष्ट्रभाषा का दर्जा देते हुए हिंदी के प्रयोग को निजी क्षेत्र पर भी लागू किया जाना चाहिए । यही व्यवस्था राज्यों में भी होनी चाहिए, वे राजभाषाएँ नहीं राज्य-भाषाएं होनी चाहिए ।
आज सभी सेवाएँ धीरे –धीरे कागज से हटकर डिजिटल व्यवस्था के अनुसार ऑन लाइन होती जा रही हैं । इसी प्रकार स्थानीय प्रशासन से ले कर राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न व्यवस्थाएं ई – प्रशासन( ई- गवर्नेंस) से जुड़ रही हैं जिनसे न केवल पारदर्शिता बढ़ती है बल्कि व्यवस्था भी अपेक्षाकृत चुस्त-दुरुस्त होती है । लेकिन समस्या यह है कि ऑन लाइन सेवाएँ और ई गवर्नेंस प्राय: अंग्रेजी में होने के चलते इंग्लिश गवर्नेंस बनता जा रहा है । अगर ये व्यवस्थाएँ जनता के लिए हैं तो जनभाषा में यानी संघ और राज्यों की भाषा में होनी चाहिए । इन प्रणालियों में जनभाषा में सूचनाओं और निर्बाध कार्य करने की व्यवस्था से ही ये जन-उपयोगी होंगी और अर्थतंत्र में भी जनभागीदारी बढ़ेगी। अगर एक पंक्ति में कहें तो बात यह कि देश की जनता के सभी काम उनकी भाषा में सधने ताहिए, राष्ट्र की भाषा और राज्य के स्तर पर राज्य की भाषा। वैश्विक स्तर पर वैश्विक भाषाओं का प्रयोग भी स्वभाविक है।
नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा तथा भारतीय भाषाओं के शिक्षण के प्रावधान अब जन-मन में आशा जगा रहे हैं। भारत सरकार केंद्रीय स्तर पर उच्च तकनीकी व प्रबंधन शिक्षण संस्थानों में भी हिंदी शिक्षण की व्यवस्था कर रही है। इनके परिणाम कितने परिणामजनक होंगे यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन यह आवश्यक है कि शिक्षा के साथ-साथ रोजगार और व्यवस्था में भी जनभाषा को उचित स्थान दिया जाए। तभी जन गण मन… का सपना साकार हो सकेगा।