ग्लोबल वार्मिंग की कीमत न चुकानी पड़ती तो भारत का GDP होता 25% अधिक

ग्लोबल वार्मिंग की कीमत न चुकानी पड़ती तो भारत का GDP होता 25% अधिक

लखनऊ (निशांत कुमार )——– जलवायु परिवर्तन भारत और अन्य विकासशील देशों के लिए कितना घातक साबित हो सकता है उसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले एक दशक में भारत में बाढ़ से 3 बिलियन डॉलर की आर्थिक क्षति हुई, जो बाढ़ से वैश्विक आर्थिक नुकसान का लगभग 10 फ़ीसद है। साल 2020 में चक्रवात अम्फान ने 13 मिलियन लोगों को प्रभावित किया और पश्चिम बंगाल से टकराने के बाद इस तूफ़ान से 13 बिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। इस बात में कोई दो राय नहीं कि ऐसी आपदाओं में निम्न-आय वाले परिवारों को उच्च-आय वाले परिवारों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक नुकसान होता है।
इसलिए, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में जलवायु परिवर्तन से उपजे इस आपातकाल का विनाशकारी मानवीय और आर्थिक प्रभाव पड़ेगा। महामारी की दूसरी लहर के दौरान चक्रवात तौक्ते और चक्रवात यास की आमद इस विनाशकारी प्रभाव की एक झलक है ।
दुनिया के एक बड़े थिंक टैंक, या विशेषज्ञों के एक समूह, ODI द्वारा की गई एक नई समीक्षा भारत में जलवायु परिवर्तन की लागत को रेखांकित करती है। यह बताती है कि बढ़ते तापमान कैसे भारत के आर्थिक विकास को खतरे में डालेंगे। इन खतरों में कृषि उत्पादकता का गिरना, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रभाव, श्रम उत्पादकता में कमी और समुद्र के स्तर में वृद्धि शामिल हैं।
अपनी तरह के इस पहले अध्ययन में भारत में जलवायु निष्क्रियता की आर्थिक लागत से जुड़े शोध साहित्य की समीक्षा की गयी है। और समीक्षा में पाया गया है कि अगर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए तत्काल कार्रवाई नहीं की गयी तो जलवायु परिवर्तन की मानवीय और आर्थिक लागत आने वाले वर्षों में निश्चित रूप से बढ़ती रहेगी। इसका अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि एक अध्ययन में पाया गया है कि अगर दुनिया 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तक पहुंच जाता है तो वर्ष 2100 में भारत का GDP 90 फ़ीसद कम हो जाएगा।
इस समीक्षा पर ODI के वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी, एैंजिला पिकियारिइलो, का कहना है, “भारत पहले से ही जलवायु परिवर्तन की लागतों को महसूस कर रहा है और 2020 में कई शहरों में 48 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान दर्ज किया गया और साल के कम से कम एक महीने के लिए एक अरब लोगों को गंभीर पानी की कमी का सामना करना पड़ा। यदि वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए उत्सर्जन में कटौती करने के लिए पर्याप्त कार्रवाई नहीं की गई, तो मानव और आर्थिक कीमत और भी अधिक बढ़ जाएगी।”
आगे, इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स के सीनियर लीड-प्रैक्टिस, अमीर बज़ाज़, कहते हैं, “हमने चक्रवात तौकते और चक्रवात यास के साथ देखा कि कैसे कम आय वाले और अन्य हाशिए पर रहने वाले समुदाय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे अधिक असुरक्षित हैं। वे अक्सर घनी बस्तियों में रहते हैं जिनमें जोखिम को कम कर सकने वाले बुनियादी सेवाओं और बुनियादी ढांचे की ख़ासी कमी होती है। कई समुदाय तो खड़ी ढलानों और बाढ़ के मैदानों जैसी खतरनाक जगहों पर भी रहने को मजबूर होते हैं। इसलिए जलवायु और मानव विकास के लक्ष्यों को आपस में जोड़ना बेहद महत्वपूर्ण है।”
इस अध्ययन में पाया गया कि भारत को ग्लोबल वार्मिंग की कीमत न चुकानी पड़ती तो उसका सकल घरेलू उत्पाद (GDP) आज लगभग 25% अधिक होता। शोधकर्ताओं ने उन तमाम तंत्रों का आकलन किया है जिनके ज़रिये जलवायु परिवर्तन भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा। उन्होंने भविष्यवाणी भी की है कि 2100 में सकल घरेलू उत्पाद और ज़्यादा कम हो सकता है।
लेकिन कम कार्बन वाली व्यवस्थाओं का विकास करने से न सिर्फ इस अनुमानित नुकसान को कम किया जा सकता है, बल्कि इससे अन्य आर्थिक लाभ भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
ODI में प्रबंध निदेशक (अनुसंधान और नीति), रथिन रॉय, कहते हैं, “विकास के लिए कम कार्बन वाली व्यवस्थाओं का अनुसरण करने से भारत में आर्थिक सुधार को बढ़ावा मिल सकता है और आने वाले समय में भारत की समृद्धि सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है। निम्न-कार्बन विकल्प अधिक कुशल और कम प्रदूषणकारी होते हैं, जिससे स्वच्छ हवा, अधिक ऊर्जा सुरक्षा और तेज़ी से रोजगार सृजन जैसे तत्काल लाभ मिलते हैं।”
अगले दशक में भारत की नीति, निवेश और राजनयिक विकल्पों पर बहुत कुछ निर्भर है। अच्छी बात यह है कि फ़िलहाल G20 देशों में सिर्फ भारत ही ऐसा देश है जो ‘2°C के लक्ष्य के अनुरूप’ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) पूरा कर पा रहा है। लेकिन मंजिलें अभी और भी हैं।
ODI की जलवायु और सस्टेनेबिलिटी निदेशक, सारा कोलेनब्रैंडर कहती हैं, “हालांकि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से काफी नीचे है। भारतीय लोगों को उस जलवायु संकट को कम करने का खर्च नहीं उठाना चाहिए जो उन्होंने पैदा नहीं किया है।”

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